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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 131 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 131/ मन्त्र 5
    ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगष्टिः स्वरः - मध्यमः

    आदित्ते॑ अ॒स्य वी॒र्य॑स्य चर्किर॒न्मदे॑षु वृषन्नु॒शिजो॒ यदावि॑थ सखीय॒तो यदावि॑थ। च॒कर्थ॑ का॒रमे॑भ्य॒: पृत॑नासु॒ प्रव॑न्तवे। ते अ॒न्याम॑न्यां न॒द्यं॑ सनिष्णत श्रव॒स्यन्त॑: सनिष्णत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आत् । इत् । ते॒ । अ॒स्य । वी॒र्य॑स्य । च॒र्कि॒र॒न् । मदे॑षु । वृ॒ष॒न् । उ॒शिजः॑ । यत् । आवि॑थ । स॒खि॒ऽय॒तः । यत् । आवि॑थ । च॒कर्थ॑ । का॒रम् । ए॒भ्यः॒ । पृत॑नासु । प्रऽव॑न्तवे । ते । अ॒न्याम्ऽअ॑न्याम् । न॒द्य॑म् । स॒नि॒ष्ण॒त॒ । श्र॒व॒स्यन्तः॑ । स॒नि॒ष्ण॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदित्ते अस्य वीर्यस्य चर्किरन्मदेषु वृषन्नुशिजो यदाविथ सखीयतो यदाविथ। चकर्थ कारमेभ्य: पृतनासु प्रवन्तवे। ते अन्यामन्यां नद्यं सनिष्णत श्रवस्यन्त: सनिष्णत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आत्। इत्। ते। अस्य। वीर्यस्य। चर्किरन्। मदेषु। वृषन्। उशिजः। यत्। आविथ। सखिऽयतः। यत्। आविथ। चकर्थ। कारम्। एभ्यः। पृतनासु। प्रऽवन्तवे। ते। अन्याम्ऽअन्याम्। नद्यम्। सनिष्णत। श्रवस्यन्तः। सनिष्णत ॥ १.१३१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 131; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः प्रजारक्षकाः किं कुर्युरित्याह ।

    अन्वयः

    हे वृषन् विद्वन् यद्य आप्तास्ते तवास्य वीर्यस्य प्रभावेण मदेषु वर्त्तमाना उशिजो धर्मं कामयमाना दुष्टांश्चर्किरन् श्रवस्यन्तः सन्तः प्रवन्तवे पृतनासु सनिष्णत। अन्यामन्यां नद्यं मेघ इव कारं सनिष्णत तान् सखीयतो जनांस्त्वमाविथ यद्यतो यानाविथ तान्पुरुषार्थवतश्चकर्थैभ्यः सर्वं राज्यमाविथ यद्ये च ते भृत्यास्तेऽपि धर्मेणादित् प्रजाः पालयेयुः ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (आत्) (इत्) एव (ते) तव (अस्य) (वीर्यस्य) पराक्रमस्य (चर्किरन्) भृशं विक्षिप्येयुः (मदेषु) हर्षेषु (वृषन्) आनन्दं वर्षयन् (उशिजः) धर्मं कामयमानाः (यत्) ये (आविथ) रक्षेः (सखीयतः) सखेवाचरतः (यत्) यतः (आविथ) पालय (चकर्थ) कुरु (कारम्) क्रियते यस्तम् (एभ्यः) धार्मिकेभ्यः (पृतनासु) मनुष्येषु। पृतना इति मनुष्यना०। निघं० २। ३। (प्रवन्तवे) प्रविभागं कर्त्तुम् (ते) (अन्यामन्याम्) भिन्नाम् भिन्नाम् (नद्यम्) नदीम् (सनिष्णत) संभजेयुः (श्रवस्यन्तः) आत्मनः श्रवोऽन्नमिच्छन्तः (सनिष्णत) संभजन्तु ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रजारक्षणेऽधिकृतास्ते धर्मेण प्रजापालनं चिकीर्षन्तः प्रयतेरन् ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर प्रजा की रक्षा करनेहारे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (वृषन्) आनन्द को वर्षाते हुए विद्वान् ! (यत्) जो धर्मात्मा जन (ते) आपके (अस्य) इस (वीर्यस्य) पराक्रम के प्रभाव से (मदेषु) आनन्दों में वर्त्तमान (उशिजः) धर्म की कामना करते हुए जन (चर्किरन्) दुष्टों को निरन्तर दूर करें वा (श्रवस्यन्तः) अपने को अन्न की इच्छा करते हुए (प्रवन्तवे) अच्छे विभाग करने को (पृतनासु) मनुष्यों में (सनिष्णत) सेवन करें अर्थात् (अन्यामन्याम्) अलग अलग (नद्यम्) नदी को जैसे मेघ वैसे (कारम्) जो किया जाता उस कार का (सनिष्णत) सेवन करें उन (सखीयतः) मित्र के समान आचरण करते हुए जनों को आप (आविथ) पालो (यत्) जिस कारण जिनको (आविथ) पालो इससे उनको पुरुषार्थवाले (चकर्थ) करो (एभ्यः) इन धार्मिक सज्जनों से सब राज्य की पालना करे और जो आप के कर्मचारी पुरुष हों (ते) वें भी धर्म से (आदित्) ही प्रजाजनों की पालना करें ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रजा की रक्षा करने में अधिकार पाये हुए हैं, वे धर्म के साथ प्रजा पालने की इच्छा करते हुए उत्तम यत्नवान् हों ॥ ५ ॥

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    विषय

    विलक्षण ऐश्वर्य

    पदार्थ

    १. हे (वृषन्) = शक्तिशाली प्रभो! (यत्) = जब आप (उशिजः) = मेधावी पुरुषों को (आविथ) = रक्षित करते हैं, (यत्) = जब (सखीयतः) = आपके मित्रत्व की कामना करते हुए इनको (आविथ) = आप रक्षित करते हो तब ये लोग (आत् इत्) = शीघ्र ही (मदेषु) = उल्लासों की प्राप्ति के निमित्त (ते अस्य वीर्यस्य) = आपकी इस शक्ति का (चर्किरन्) = अपने अन्दर प्रक्षेप करते हैं, आपकी उपासना से आपकी शक्तियों को अपने में सञ्चरित करते हैं । २. हे प्रभो! आप (एभ्यः) = इन उशिक, (सखीयन्) = पुरुषों के लिए (पृतनासु प्रवन्तवे) = संग्रामों में शत्रुओं को जीतने के लिए (कारं चकर्थ) = क्रियाशीलता का निर्माण करते हैं । इनके जीवन को क्रियाशील बनाते हैं । क्रियाशीलता के द्वारा ये शत्रुओं पर विजय करनेवाले होते हैं । ३. (ते) = वे क्रियाशील पुरुष (अन्यं अन्याम्) = विलक्षण और अति विलक्षण (नद्यम्) = [नदि समृद्धौ] समृद्धि को (सनिष्णत) = प्राप्त करते हैं, (अवस्यन्तः) = आपका यशोगान करते हुए ये (सनिष्णत) = समृद्धि को प्राप्त करते हैं । काम-विध्वंस द्वारा शरीर का स्वास्थ्य, क्रोध-नाश से मानस शान्ति और लोभ को दूर करके बुद्धि की सूक्ष्मता को प्राप्त करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - मेधावी पुरुष प्रभु की शक्ति से अपने को शक्ति - सम्पन्न करते हैं । क्रियाशीलता के द्वारा कामादि शत्रुओं का विध्वंस करते हैं और स्वास्थ्य, शान्ति व बुद्धि की सूक्ष्मतारूप ऐश्वर्यों को प्राप्त करते हैं ।

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    विषय

    सूर्यवत् राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( वृषन् ) सब सुखों के और ऐश्वर्यों के वर्षण करने वाले ! राजन् ! तू ( यत् उशिजः आविथ ) जो तू अपने यश, धर्म, अर्थ की कामना करने वाले, तेजस्वी पुरुषों की रक्षा करता है और ( यत् सखीयतः आविथ ) जो तू मित्र के समान वर्त्ताव करने वाले सहायक जनों की रक्षा करता है ( आत् इत् ) तभी, ( ते ) वे ( मदेषु ) हर्षों और उत्सवों के अवसरों में (ते) तेरे (अस्य वीर्यस्य) इस बल, पराक्रम की ( चर्किरन् ) वृद्धि करते हैं । अथवा ( ते अस्य वीर्यस्य चर्किरन् ) वे तेरे इस महान् बल के द्वारा दुष्टों का नाश करें। और तू ( पृतनासु ) संग्रामों में ( एभ्यः प्रवन्तवे ) इनके हितार्थ उत्तम ऐश्वर्य का विभाग करने के लिये ( एभ्यः ) उनके हित, योग्य ( कारम् चकर्थ ) कार्य विभाग नियत कर । (ते) वे ( अन्याम् अन्यां ) एक से एक बढ़ कर, या पृथक् पृथक् ( नद्यं सनिष्णत ) अपनी समस्त समृद्धि को भोग करें और ( श्रवस्यन्तः ) अन्न, यश और ऐश्वर्य की वृद्धि की कामना करते हुए ( सनिष्णत ) दान भी करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परुच्छेष ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, २ निचृदत्यष्टिः । ४ विराडत्यष्टिः । ३, ५, ६, ७ भुरिगष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या माणसांना प्रजेचे रक्षण करण्याचा अधिकार मिळालेला असतो त्यांनी धर्माने प्रजेचे पालन करण्याची इच्छा बाळगून उत्तम प्रयत्न करावेत. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of generosity, people loving and dedicated to you in their moods of joy praise and celebrate this valour and justice of yours since you protect and promote them, yes, promote and advance them, so friendly to you and to all as they are. You work wonders for them in their battles of life and production for proper distribution and participation while they, desiring their share of food and wealth, rightfully hope to gain one thing after another of the flow of national wealth.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the guardians of men do is taught further in the 5th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned showerer of bliss! Those absolutely truthful persons who are impressed by thy strength, are always in an exhilarated or cheerful mood, desiring righteousness, throw away or overcome all wicked ignoble persons. Desirous of getting food in order to distribute it among the needy persons, they gladly do so to help others. As a cloud produces rivers by raining down water, so they do many things to benefit others. Thou defendest or protectest those who desire to be thy friends and makest them industrious. With the help and co-operation of these righteous persons, thou protectest the whole State. Let thy servants or subordinates also protect the people righteously.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (उशिजः ) धर्म कामयमानाः = Desiring Dharma or righteousness. (पृतनासु ) मनुष्येषु । पृतना इति मनुष्यनाम (नि० २.३ )= Among men. (प्रवन्तवे ) प्रविभागं कर्तुम = In order to distribute.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men who are authorized to protect the people should always try to discharge their duty honestly and righteously, desiring the welfare or protection of the people.

    Translator's Notes

    उशिज: is derived from वश-कान्तौ कान्ति: कामना वन-संभक्तौ ।

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