ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 131/ मन्त्र 6
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिगष्टिः
स्वरः - मध्यमः
उ॒तो नो॑ अ॒स्या उ॒षसो॑ जु॒षेत॒ ह्य१॒॑र्कस्य॑ बोधि ह॒विषो॒ हवी॑मभि॒: स्व॑र्षाता॒ हवी॑मभिः। यदि॑न्द्र॒ हन्त॑वे॒ मृधो॒ वृषा॑ वज्रि॒ञ्चिके॑तसि। आ मे॑ अ॒स्य वे॒धसो॒ नवी॑यसो॒ मन्म॑ श्रुधि॒ नवी॑यसः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒तो इति॑ । नः॒ । अ॒स्याः । उ॒षसः॑ । जु॒षेत॑ । हि । अ॒र्कस्य॑ । बो॒धि॒ । ह॒विषः॑ । हवी॑मऽभिः । स्वः॑ऽसाता । हवी॑मऽभिः । यत् । इ॒न्द्र॒ । हन्त॑वे । मृधः॑ । वृषा॑ । व॒ज्रि॒न् । चिके॑तसि । आ । मे॒ । अ॒स्य । वे॒धसः॑ । नवी॑यसः । मन्म॑ । श्रु॒धि॒ । नवी॑यसः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उतो नो अस्या उषसो जुषेत ह्य१र्कस्य बोधि हविषो हवीमभि: स्वर्षाता हवीमभिः। यदिन्द्र हन्तवे मृधो वृषा वज्रिञ्चिकेतसि। आ मे अस्य वेधसो नवीयसो मन्म श्रुधि नवीयसः ॥
स्वर रहित पद पाठउतो इति। नः। अस्याः। उषसः। जुषेत। हि। अर्कस्य। बोधि। हविषः। हवीमऽभिः। स्वःऽसाता। हवीमऽभिः। यत्। इन्द्र। हन्तवे। मृधः। वृषा। वज्रिन्। चिकेतसि। आ। मे। अस्य। वेधसः। नवीयसः। मन्म। श्रुधि। नवीयसः ॥ १.१३१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 131; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः केन किं कुर्युरित्याह ।
अन्वयः
हे वज्रिन्निन्द्र भवान् यथाऽर्कस्यास्या उषसश्च प्रभावेण जना बुद्ध्यन्ते तथा नोऽस्मान् बोधि हि किलोतो स्वर्षाता हवीमभिर्हविषो जुषेत यद्यो वृषा त्वं मृधो हन्तवे चिकेतसि नवीयसो वेधसो मेऽस्य नवीयसो मन्माश्रुधि ॥ ६ ॥
पदार्थः
(उतो) अपि (नः) अस्मान् (अस्याः) (उषसः) प्रातःकालस्य मध्ये (जुषेत) सेवेत (हि) खलु (अर्कस्य) सूर्यस्य (बोधि) बोधय (हविषः) दातुमर्हस्य (हवीमभिः) आह्वातुमर्हैः कर्मभिः (स्वर्षाता) सुखानां विभागे। अत्र सुपां सुलुगिति ङेर्डा। (हवीमभिः) स्तोतुमर्हैः (यत्) ये (इन्द्र) दुष्टविदारक (हन्तवे) हन्तुम्। अत्र तवेन् प्रत्ययः। (मृधः) संग्रामस्थान् शत्रून्। मृध इति संग्रामना०। निघं० २। १७। (वृषा) वृषेव बलिष्ठः (वज्रिन्) प्रशस्तशस्त्रयुक्त (चिकेतसि) जानीयाः (आ) (मे) मम (अस्य) (वेधसः) मेधाविनः (नवीयसः) अतिशयेन नवस्य नवीनविद्याध्येतुः (मन्म) विज्ञानजनकं शास्त्रम् (श्रुधि) शृणु (नवीयसः) अतिशयेन नवाऽध्यापकस्य ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्योत्पन्नयोषसा प्रबुद्धजनाः प्रकाशे स्वान् स्वान् व्यवहाराननुतिष्ठन्ति तथा विद्वद्भिरसुबोधितां नरा विज्ञानप्रकाशे स्वानि स्वानि कर्माणि कुर्वन्ति ये दुष्टान्निवार्य श्रेष्ठान्संसेव्य नूतनाऽधीतविदुषां सकाशाद्विद्या गृह्णन्ति तेऽभीष्टप्राप्तौ सिद्धा जायन्ते ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य किससे क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (वज्रिन्) प्रशंसित शस्त्रयुक्त विद्वान् ! (इन्द्र) दुष्टों का संहार करनेवाले आप जैसे (अर्कस्य) सूर्य और (अस्याः) इस (उषसः) प्रभात वेला के प्रभाव से जन सचेत होते जागते हैं वैसे (नः) हम लोगों को (बोधि) सचेत करो (हि, उतो) और निश्चय से (स्वर्षाता) सुखों के अलग-अलग करने में (हवीमभिः) स्पर्द्धा करने योग्य कामों के समान (हवीमभिः) प्रशंसा के योग्य कामों से (हविषः) देने योग्य पदार्थ का (जुषेत) सेवन करो (यत्) जो (वृषा) बैल के समान बलवान् आप (मृधः) संग्रामों में स्थित शत्रुओं को (हन्तवे) मारने को (चिकेतसि) जानो (नवीयसः) अतीव नवीन विद्या पढ़नेवाले (वेधसः) बुद्धिमान् (मे) मुझ विद्यार्थी और (अस्य) इस (नवीयसः) अत्यन्त नवीन पढ़ानेवाले विद्वान् के (मन्म) विज्ञान उत्पन्न करनेवाले शास्त्र को (आश्रुधि) अच्छे प्रकार सुनो ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य से प्रकट हुई प्रभात वेला से जागे हुए जन सूर्य के उजेले में अपने-अपने व्यवहारों का आरम्भ करते हैं, वैसे विद्वानों से सुबोध किये मनुष्य विशेष ज्ञान के प्रकाश में अपने-अपने कामों को करते हैं। जो दुष्टों की निवृत्ति और श्रेष्ठों की उत्तम सेवा वा नवीन पढ़े हुए विद्वानों के निकट से विद्या का ग्रहण करते हैं, वे चाहे हुए पदार्थ की प्राप्ति में सिद्ध होते हैं ॥ ६ ॥
विषय
प्रातः - जागरण व सन्ध्या - हवन
पदार्थ
१. (उत उ) = निश्चय से (नः) = हमारी (अस्याः उषसः) = इस उषा का (जुषेत) = यह प्रीतिपूर्वक सेवन करे, अर्थात् हम प्रातः जाग जाएँ । हमारा यह (उषा) = जागरण हमें प्रभु का प्रिय बनाए । (हि) = निश्चय से (अर्कस्य) = हमारे स्तुति = मन्त्रों को (बोधि) = जानें, अर्थात् हम प्रभु का स्तवन करें और वह स्तवन प्रभु - ज्ञान का विषय बने । (हवीमभिः) = प्रभु - पुकारों के साथ (हविषा) = हमारी हवि को (बोधि) = आप जानें, अर्थात् प्रार्थना के साथ हम अग्निहोत्र करनेवाले भी हों । (हवीमभिः) = प्रार्थनाओं के साथ (स्वर्षाता) = [स्वः साता] स्वर्ग-प्राप्ति के निमित्त [हविषः बोधि] दी गई हवियों को प्रभु जानें, अर्थात् हम प्रभु को पुकारते हुए, उसका आराधन करते हुए हवि देनेवाले हों, अग्निहोत्रादि यज्ञों को करनेवाले हों । ये यज्ञ हमें स्वर्ग प्राप्त करानेवाले हों । २. (यत्) = कि हे (इन्द्र) = शत्रुओं का संहार करनेवाले (वृषा) = शक्तिशाली (वज्रिन्) = क्रियाशीलतारूप वनवाले प्रभो! आप (मृधः) = शत्रुओं को (हन्तवे) = मारना (चिकेतसि) = जानते हैं । आप हमारे शत्रुओं को नष्ट करते हैं । आप (नवीयसः) = अतिशयेन स्तवन करनेवाले (वेधसः मे) = मेधावी मेरे (मन्म) = स्तोत्र को (आशुधि) = सर्वथा श्रवण कीजिए । (अस्य) = इस (नवीयसः) = नवतर जीवनवाले मेरे स्तवन को अवश्य ही सुनिए ।
भावार्थ
भावार्थ - हम [क] प्रातः जागें, [ख] स्तवन करें, [ग] हवन करें, [घ] प्रभु हमारे कामादि शत्रुओं का संहार करें, [ङ] मेधावी व नमनशील बनकर स्तोत्रों का उच्चारण करें ।
विषय
सूर्यवत् राजा का वर्णन ।
भावार्थ
राजा ( अस्याः ) इस उषा काल और ( अर्कस्य ) सूर्य के ( हविषः ) ग्रहण करने योग्य व्रत और आचरण को ( जुषेत ) सेवन करे । ( उतो ) और ( नः ) हमें प्रभात वेला और सूर्य के समान ही ( हवीमभिः ) स्तुति करने योग्य ग्रहण करने और उपदेश करने योग्य ( हवीमभिः ) ज्ञानों और कर्मों द्वारा ( स्वः- साता ) सुख ऐश्वर्य को प्राप्त करने के लिये ( नः ) हमें ( बोधि ) ज्ञानवान्, प्रबुद्ध कर, जागृत और सचेत कर । हे ( वज्रिन् ) शस्त्र बल के धारण करने हारे ! हे ( इन्द्र ) राजन् ! ( यत् ) जिससे तू ( वृषा ) प्रजाओं पर सुखों और शत्रुगण पर शस्त्रों की वर्षा करने में समर्थ और वृषभ के समान बलवान्, हृष्ट पुष्ट, वीर्यवान्, राज्य कार्य भार को वहन करने में समर्थ होकर ( मृधः ) संग्रामकारी शत्रु सेनाओं के ( हन्तवे ) दण्ड देने और मारने के लिये ( चिकेतसि ) खूब अच्छी प्रकार उपाय करे इसलिये तू ( मे ) मुझ ( अस्य वेधसः ) इस विद्वान्, कार्य विधान करने में कुशल ( नवीयसः नवीयसः ) नवीन नवीन विद्याओं को ज्ञान करने वाले विद्वान् पुरुष के ( मन्म ) मनन करने योग्य ज्ञान का ( आ श्रुधि ) श्रवण कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परुच्छेष ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, २ निचृदत्यष्टिः । ४ विराडत्यष्टिः । ३, ५, ६, ७ भुरिगष्टिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे पहाट झाल्यावर जागे झालेले लोक सूर्यप्रकाशात आपला व्यवहार सुरू करतात, तशी विद्वानांकडून सुबोध झालेली माणसे विशेष ज्ञानाने आपापल्या कामाचा आरंभ करतात. जे दुष्टांचे निवारण व श्रेष्ठांची उत्तम सेवा करतात. नवीन शिकलेल्या विद्वानाजवळून विद्या ग्रहण करतात त्यांना अभीष्ट प्राप्ती होते. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of light, now listen and accept this joyous celebration of ours of the light of the dawn, know this prayer and, O shower of light and joy, accept our invocation and holy offerings since, O wielder of the thunderbolt, lord of generosity, you keep awake for us for the elimination of violence. Listen to this newest prayer of mine made in full knowledge in worship, listen and accept this latest thought and petition.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do with is told in the sixth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (destroyer of the malevolent) O possessor of of strong weapons, Thou wake us up as at the advent of the Dawn and the rise of the Sun, people get up. In order to distribute happiness among the people, by the admirable and imitable noble acts, accept our gifts. Thou enlightenest us to kill our wicked enemies standing in the battle field. Listen to me-who am an intelligent learner of a new science and a new teacher about a Scientific teaching.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्र) दुष्टविदारक = Destroyer of the malvolent. (वेधसः ) मेधाविनः = Of a highly intelligent person. (मन्त्र) विज्ञानजनकं शास्त्रम् = Scientific knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As men begin to perform their works in light at the advent of the Dawn, in the same manner, learned persons do their noble deeds in the light of knowledge of science. Those persons succeed in accomplishing their objects, who keep the wicked away, serve good persons and acquire knowledge from those who have learned new sciences.
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