ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 171/ मन्त्र 4
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - मरुतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒स्माद॒हं त॑वि॒षादीष॑माण॒ इन्द्रा॑द्भि॒या म॑रुतो॒ रेज॑मानः। यु॒ष्मभ्यं॑ ह॒व्या निशि॑तान्यास॒न्तान्या॒रे च॑कृमा मृ॒ळता॑ नः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मात् । अ॒हम् । त॒वि॒षात् । ईष॑माणः । इन्द्रा॑त् । भि॒या । म॒रु॒तः॒ । रेज॑मानः । यु॒ष्मभ्य॑म् । ह॒व्या । निऽशि॑तानि । आ॒स॒न् । तानि॑ । आ॒रे । च॒कृ॒म॒ । मृ॒ळत॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मादहं तविषादीषमाण इन्द्राद्भिया मरुतो रेजमानः। युष्मभ्यं हव्या निशितान्यासन्तान्यारे चकृमा मृळता नः ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मात्। अहम्। तविषात्। ईषमाणः। इन्द्रात्। भिया। मरुतः। रेजमानः। युष्मभ्यम्। हव्या। निऽशितानि। आसन्। तानि। आरे। चकृम। मृळत। नः ॥ १.१७१.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 171; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे मरुतोऽस्मात्तविषादीषमाण इन्द्राद्भिया रेजमानोऽहमिदं निवेदयामि। यानि युष्मभ्यं हव्या निशितान्यासंस्तानि वयमारे चकृम तैर्नोऽस्मान् यूयं यथा मृळत तथा वयमपि युष्मान् सुखयेम ॥ ४ ॥
पदार्थः
(अस्मात्) (अहम्) (तविषात्) बलिष्ठात् (ईषमाणः) ऐश्वर्यं कुर्वन्। अत्र बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। (इन्द्रात्) परमैश्वर्यात् सभासेनेशात् (भिया) भयेन (मरुतः) प्राण इव प्रियाः सभासदः (रेजमानः) कम्पमानः (युष्मभ्यम्) (हव्या) आदातुमर्हाणि (निशितानि) तीव्राणि शस्त्रास्त्राणि (आसन्) सन्ति (तानि) (आरे) समीपे (चकृम) कुर्याम (मृळत) सुखयत। अत्रोभयत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (नः) अस्मान् ॥ ४ ॥
भावार्थः
यदा कस्माच्चिद्राजपुरुषादन्यायेन पीड्यमानः प्रजाजनः सभायां स्वदुःखं निवेदयेत्तदा तस्य हृच्छल्यमुत्पाटयेत्। येन राजपुरुषा न्याये वर्त्तेरन्। प्रजाजनाश्च प्रीताः स्युः। यावन्तः स्त्रीपुरुषा भवेयुस्तावन्तः सर्वे शस्त्राभ्यासं कुर्युः ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (मरुतः) प्राण के समान सभासदो ! (अस्मात्) इस (तविषात्) अत्यन्त बलवान् से (ईषमाणः) ऐश्वर्य करता और (इन्द्रात्) परमैश्वर्यवान् सभा सेनापति से (भिया) सबके साथ (रेजमानः) कम्पता हुआ (अहम्) मैं यह निवेदन करता हूँ कि जो (युष्मभ्यम्) तुम्हारे लिये (हव्या) ग्रहण करने योग्य (निशितानि) शस्त्र-अस्त्र तीव्र (आसन्) हैं (तानि) उनको हम लोग (आरे) समीप (चकृम) करें और उनसे (नः) हम लोगों को तुम जैसे (मृळत) सुखी करो वैसे हम भी तुम लोगों को सुखी करें ॥ ४ ॥
भावार्थ
जब किसी राजपुरुष से अन्यायपूर्वक पीड़ा को प्राप्त होता हुआ प्रजाजन सभा के बीच अपने दुःख का निवेदन करे तब उसके मन के कांटों को उपाड़ देवें अर्थात् उसके मन की शुद्ध भावना करा देवें जिससे राजपुरुष न्याय में वर्त्ते और प्रजाजन भी प्रसन्न हों, जितने स्त्री पुरुष हों सब शस्त्र का अभ्यास करें ॥ ४ ॥
विषय
पुनः प्रभु के समीप
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = प्राणो! (अहम्) = मैं (अस्मात्) = इस (तविषात्) = बलवान् व सब गुणों में बढ़े हुए (इन्द्रात्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु से (ईषमाणः) = [पलायमान:-fly away] दूर होता हुआ (भिया रेजमानः) = भय से काँप उठा हूँ। प्रभु की गोद में रहते हुए मुझे किसी प्रकार का भय नहीं था, प्रभु से दूर हुआ और भयभीत हो उठा। २. अतः अब (युष्मभ्यम्) = तुम्हारे लिए (हव्या) = हव्य पदार्थ (निशितानि आसन्) = तीव्र=संस्कृत किये गये हैं। प्राणशक्ति के वर्धन के लिए मैंने हव्य पदार्थों के ही ग्रहण का निश्चय किया है। हम (तानि) = उन सात्त्विक पदार्थों को ही (आरे चकृम) = अपने समीप करते हैं उन्हीं का सेवन करते हैं। (नः मृळत) = तुम हमें सुखी करो । हव्य पदार्थों का सेवन करते हुए हम तुम्हारी साधना के द्वारा काम-क्रोध आदि व्यसनों को जीतकर फिर प्रभु के समीप हो जाएँ।
भावार्थ
भावार्थ- हम हव्य पदार्थों का ही सेवन करते हुए प्राणसाधना के द्वारा पुनः प्रभु के समीप प्राप्त हों ।
विषय
शस्त्र धारण करना आवश्यक, उसका उचित प्रयोजन ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) वीरो, विद्वान् पुरुषो ! ( अस्मात् ) इस ( इन्द्रात् ) ऐश्वर्यवान्, शत्रु हन्ता ( तविषात् ) बलवान् पुरुष से ( ईषमाणः ) प्रेरित या भयभीत होता हुआ और उसी से ( अहम् ) मैं प्रजाजन ( भिया ) भयभीत होकर ( रेजमानः ) कांपता रहता हूं। इसलिये ( युष्मभ्यम् ) तुम्हारे ( हव्या ) लेने योग्य जो (निशितानि) तेज़ धार वाले शस्त्र अस्त्र हैं उनको हम भी ( आरे चकृम ) अपने पास रखें और आप लोग भी ( नः ) हमें ( मृळत ) सदा सुखी रखो । न हो कि कभी प्रजा और राजा में संघर्ष हो और तुम हमें राजा की तरफ से सताने लग जावो ।
टिप्पणी
यावन्तः स्त्रीपुरुषाः भवेयुः तावन्तः सर्वे शस्त्राभ्यासं कुर्युः । इति महर्षि दयानन्दः । ‘जितने स्त्री पुरुष हों वे सब शस्त्राभ्यास करें ’ यह भावार्थ इस मन्त्र पर महर्षि ने लिखा है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । मरुतो देवता ॥ छन्द:— १, ५ निचृत् त्रिष्टुप । २ त्रिष्टुप । ४, ६ विराट् त्रिष्टुप । ३ भुरिक पङ्क्तिः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
एखाद्या राजपुरुषाने प्रजेवर अन्याय केल्यास त्या पीडाग्रस्त माणसाने सभेत आपले दुःख निवेदन करावे. तेव्हा त्याच्या मनातील शल्य काढून टाकावे. अर्थात त्याच्या मनाची भावना शुद्ध करावी. ज्यामुळे राजपुरुषाने न्यायाने वागावे व प्रजाही प्रसन्न व्हावी. जितके स्त्री-पुरुष असतील त्या सर्वांनी शस्त्रांचा अभ्यास करावा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Maruts, heroes of energy, power and speed, shining with strength and power and, at the same time, conscious and moved by the awe of this blazing lord Indra and his law, I say, these holy materials of yajna are dedicated to you, these weapons and armaments are tempered and sharpened for you. We offer these right here. Accept these, we pray, and make us happy and comfortable with peace and well-being.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The people should be dealt with justice.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Maruts-members of the Assembly! you are dear to me like my Prana or vital breath. I am frightened of a very wealthy person who is an honest officer of the State. I feel trembling, when desiring wealth through doubtful-means, so I make this request to you. You have strong and fierce arms of law and order, and we feel nearness with you in order to make us happy. You may also try in return to make us happy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the members of the Assembly or of the Council of Ministers to alleviate the sufferings of an oppressed person and victim of wrath of a government officer. He is supposed to put his case or his grievances before them, so that the officers of the State may always deal with justice in order to make him happy. It behaves all men and women of a State to practice the use of arms.
Foot Notes
(मरुतः ) प्राण इव प्रिया: सभासद: = The members of the Assembly or of the Council of Ministers. (ईषमाणः) ऐश्वयं कुर्वन् = Enjoying prosperity. (हम्या निशितानि) आदातुमर्हाणि तीव्राणि शस्त्रास्त्राणि = The requisite powerful and fierce arms.
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