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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 171 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 171/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    येन॒ माना॑सश्चि॒तय॑न्त उ॒स्रा व्यु॑ष्टिषु॒ शव॑सा॒ शश्व॑तीनाम्। स नो॑ म॒रुद्भि॑र्वृषभ॒ श्रवो॑ धा उ॒ग्र उ॒ग्रेभि॒: स्थवि॑रः सहो॒दाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । माना॑सः । चि॒तय॑न्ते । उ॒स्राः । विऽउ॑ष्टिषु । शव॑सा । शश्व॑तीनाम् । सः । नः॒ । म॒रुत्ऽभिः॑ । वृ॒ष॒भ॒ । श्रवः॑ । धाः॒ । उ॒ग्रः । उ॒ग्रेभिः॑ । स्थवि॑रः । स॒हः॒ऽदाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन मानासश्चितयन्त उस्रा व्युष्टिषु शवसा शश्वतीनाम्। स नो मरुद्भिर्वृषभ श्रवो धा उग्र उग्रेभि: स्थविरः सहोदाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन। मानासः। चितयन्ते। उस्राः। विऽउष्टिषु। शवसा। शश्वतीनाम्। सः। नः। मरुत्ऽभिः। वृषभ। श्रवः। धाः। उग्रः। उग्रेभिः। स्थविरः। सहःऽदाः ॥ १.१७१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 171; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    येन शवसा वर्त्तमाना शश्वतीनां व्युष्टिषूस्रा मानासो विद्वांसः प्रजाश्चितयन्ते। हे वृषभसभेशोग्रेभिर्मरुद्भिस्सहोग्रः स्थविरः सहोदाः संस्त्वं श्रवो धाः स नोऽस्माकं राजा भव ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (येन) (मानासः) विचारवन्तः (चितयन्ते) संज्ञापयन्ति (उस्राः) मूलराज्ये परम्परया निवसन्तः (व्युष्टिषु) विविधासु वसतिषु (शवसा) बलेन (शश्वतीनाम्) सनातनीनाम् (सः) (नः) अस्माकम् (मरुद्भिः) विद्वद्भिः सह (वृषभ) सुखानां वर्षक (श्रवः) अन्नादिकम् (धाः) दध्याः। अत्राडभावः। (उग्रः) तीव्रस्वभावः (उग्रेभिः) तेजस्विभिः (स्थविरः) कृतज्ञो वृद्धः (सहोदाः) बलप्रदः ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    यत्र सभायां मौलाः शास्त्रविदो धार्मिका सभासदः सत्यं न्यायं कुर्युर्विद्यावयोवृद्धः सभेशश्च स्यात्तत्राऽन्यायस्य प्रवेशो न भवति ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (येन) जिस (शवसा) बल से वर्त्तमान (शश्वतीनाम्) सनातन (व्युष्टिषु) नाना प्रकार की वस्तियों में (उस्राः) मूल राज्य में परम्परा से निवास करते हुए (मानासः) विचारवान् विद्वान् जन प्रजाजनों को (चितयन्ते) चैतन्य करते हैं। हे (वृषभ) सुखों की वर्षा करनेवाले सभापति ! (उग्रेभिः) तेजस्वी (मरुद्भिः) विद्वानों के साथ (उग्रः) तीव्रस्वभाव (स्थविरः) कृतज्ञ वृद्ध (सहोदाः) बल के देनेवाले होते हुए आप (श्रवः) अन्न आदि पदार्थ को (धाः) धारण कीजिये और (सः) सो आप (नः) हमारे राजा हूजिये ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    जहाँ सभा में मूल जड़ के अर्थात् निष्कलङ्क कुल परम्परा से उत्पन्न हुए और शास्त्रवेत्ता धार्मिक सभासद् सत्य न्याय करें और विद्या तथा अवस्था से वृद्ध सभापति भी हो वहाँ अन्याय का प्रवेश नहीं होता है ॥ ५ ॥

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    विषय

    शक्ति के साथ ज्ञान

    पदार्थ

    १. हे (वृषभ) = सब सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभो ! (येन) = जिन आपसे (मानासः) = [मान पूजायाम्] पूजा करनेवाले लोग (शश्वतीनां व्युष्टिषु) = सनातनकाल से चली आ रही उषाओं के निकलने पर (शवसा) = शक्ति के साथ (उस्त्रा:) = ज्ञान की रश्मियों को (चितयन्ते) = जाननेवाले होते हैं, (सः) = वे आप (नः) = हमारे लिए (मरुद्भिः) = प्राणों के द्वारा श्रवः धाः = ज्ञान का धारण कीजिए। प्राणसाधना के द्वारा चित्तवृत्ति को एकाग्र करके हम ज्ञान को बढ़ानेवाले हों । यह प्राणसाधना हमें ऊर्ध्वरेता बनाकर शक्तिसम्पन्न करती है और हमारी ज्ञानाग्नि को दीप्त करती है। २. हे (उग्र) = तेजस्विन् प्रभो ! (उग्रेभिः) = इन उग्र प्राणों के द्वारा आप हमें भी उत्कृष्ट बनाइए। आप (स्थविरः) = अत्यन्त पुराण पुरुष हैं (सनातनस्त्वं पुरुषो मतो मे) और हम पुत्रों के लिए (सहोदा:) = शत्रुओं का मर्षण करनेवाली शक्ति को देनेवाले हैं। प्राणसाधना के द्वारा ही यह शक्ति प्राप्त होती है। आप उन उग्र प्राणों की साधना के द्वारा मुझे भी उग्र बनाइए।

    भावार्थ

    भावार्थ - उषा होते ही हम प्रभु-पूजन में प्रवृत्त हों। प्रभु हमें शक्ति व ज्ञान प्राप्त कराएँ । प्राणसाधना के द्वारा प्रभु हमें वह शक्ति प्राप्त कराते हैं जो हमें उग्र व शत्रुओं का मर्षण करनेवाला बनाती है ।

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    विषय

    विद्वानों के ज्ञानविस्तार का कर्त्तव्य । प्रजा को राजा बलवान् बनावे ।

    भावार्थ

    हे ( वृषभ ) प्रजाओं पर सुखों की वर्षा करने हारे राजन् ! सभाध्यक्ष ! ( शश्वतीनां व्युष्टिषु उस्राः चितयन्त ) उषाओं के चमकने पर किरण जिस प्रकार सबको प्रबुद्ध करती हैं ( येन शवसा ) जिस बल पराक्रम से उसी प्रकार ( शश्वतीनां ) सनातन से चली आयी प्रजाओं की ( व्युष्टिषु ) वसतियों में ( मानासः ) विचारवान्, ज्ञानवान् और माननीय ( उग्राः ) उत्तम मार्ग में चलने हारे, या वहां के ही रहने वाले पुरुष ( चितयन्त ) प्रजा को शिक्षित और जागृत करें । हे राजन् ! वह तू ( नः ) हमें ( उग्रेभिः ) बलवान् तेजस्वी ( मरुद्भिः ) वीरों और विद्वानों और व्यापारियों से ( श्रवः ) ज्ञान, बल, कीर्त्ति, ऐश्वर्य ( धाः ) प्रदान कर । तू स्वयं भी ( उग्रः ) बलवान् तेजस्वी, ( स्थविरः ) वृद्ध और स्थिर दृढ़ और ( सहोदाः ) शत्रु पराजयकारी बल का देने वाला हो । ( २ ) वायुगण के पक्ष में—वायुगण प्रक्षेपकारी होने से ‘मान’ हैं । गति शील होने से ‘उस्र’ हैं । सूर्य वृषभ है । वह अन्न देता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः । मरुतो देवता ॥ छन्द:— १, ५ निचृत् त्रिष्टुप । २ त्रिष्टुप । ४, ६ विराट् त्रिष्टुप । ३ भुरिक पङ्क्तिः ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेथे सभेत मूळ अर्थात निष्कलंक कुल परंपरेने उत्पन्न झालेले शास्त्रवेत्ते धार्मिक सभासद सत्य न्याय करणारे असतील व विद्या आणि अवस्थेमुळे सभापतीही वृद्ध असेल तेथे अन्यायाचा प्रवेश होत नाही.

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    By the strength and courage by which the veterans of knowledge and enlightenment instruct and educate the ancient and constant citizens of the ancient and constant republics in their ancestral habitations, by the same strength and courage, O Indra, ruler of the land, generous and valorous, bright and blazing, old and venerable, giver of strength and constancy, give us food, energy, power, and honour with the help of the Maruts, mighty and formidable leaders and warriors of the land.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The clarity of path of justice is narrated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Men who are original and vigorous inhabitants of the land, living in different regions, they confer consciousness on the people of the State. Likewise, O showerer of happiness! you are fierce to the wicked, grateful to the aged and experienced, giver of strength and guarded by the fierce Maruts (brave persons ). Grant us abundant food and other necessary articles and be our ruler.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There can not be an iota of injustice where the members of the Assemblies are sons of the soil, knowers of the Shastras and righteous. They dispense true justice and their President of the Assembly is old in age and knowledge.

    Foot Notes

    (उस्रा:) मूलराज्ये परम्परया निवसन्तः = Living since a very long time in the State or original inhabitants. (श्रवः) अन्नादिकम् = Food and wealth and name and fame. (वयुष्टिषु) विविधासु वसतिषु = In different regions.

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