ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 171/ मन्त्र 6
ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः
देवता - मरुतः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वं पा॑हीन्द्र॒ सही॑यसो॒ नॄन्भवा॑ म॒रुद्भि॒रव॑यातहेळाः। सु॒प्र॒के॒तेभि॑: सास॒हिर्दधा॑नो वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । पा॒हि॒ । इ॒न्द्र॒ । सही॑यसः । नॄन् । भव॑ । म॒रुत्ऽभिः॑ । अव॑यातऽहेळाः । सु॒ऽप्र॒के॒तेभिः॑ । स॒स॒हिः । दधा॑नः । वि॒द्याम॑ । इ॒षम् । वृ॒जन॑म् । जी॒रऽदा॑नुम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं पाहीन्द्र सहीयसो नॄन्भवा मरुद्भिरवयातहेळाः। सुप्रकेतेभि: सासहिर्दधानो विद्यामेषं वृजनं जीरदानुम् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। पाहि। इन्द्र। सहीयसः। नॄन्। भव। मरुत्ऽभिः। अवयातऽहेळाः। सुऽप्रकेतेभिः। ससहिः। दधानः। विद्याम। इषम्। वृजनम्। जीरऽदानुम् ॥ १.१७१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 171; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 4; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे इन्द्र त्वं सुप्रकेतेभिर्मरुद्भिः सहीयसो नॄन् पाहि। अवयातहेळा भव यथेषं वृजनं जीरदानुं दधानः सन् सासहिर्भवसि तथा भूत्वैतद्वयं विद्याम ॥ ६ ॥
पदार्थः
(त्वम्) (पाहि) (इन्द्र) सभेश (सहीयसः) अतिशयेन बलयुक्तान् सोढॄन् (नॄन्) मनुष्यान् (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (मरुद्भिः) प्राण इव रक्षकैर्विद्वद्भिः (अवयातहेळाः) अवयातं दूरीभूतं हेळो यस्मात् सः (सुप्रकेतेभिः) शोभनः प्रकृष्टः केतो विज्ञानं येषान्ते (सासहिः) अतिशयेन सोढा (दधानः) धरन् (विद्याम) जानीयाम (इषम्) विद्यायोगजं बोधम् (वृजनम्) बलम् (जीरदानुम्) जीवात्मानम् ॥ ६ ॥
भावार्थः
ये मनुष्या क्रोधादिदोषरहिता विद्याविज्ञानधर्मयुक्ताः क्षमावन्तः सज्जनैस्सह अदण्ड्यान् रक्षन्ति दण्ड्यान् दण्डयन्ति च ते राजकर्मचारिणो भवितुमर्हन्ति ॥ ६ ॥अत्र विद्वत्कृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति एकसप्तत्युत्तरं शततमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) सभापति ! (त्वम्) आप (सुप्रकेतेभिः) सुन्दर उत्तम ज्ञानवान् (मरुद्भिः) प्राण के समान रक्षा करनेवाले विद्वानों के साथ (सहीयसः) अतीव बलयुक्त सहनेवाले (नॄन्) मनुष्यों की (पाहि) रक्षा कीजिये और (अवयातहेळाः) दूर हुआ अनादर अपकीर्त्तिभाव जिससे ऐसे (भव) हूजिये जैसे (इषम्) विद्या योग से उत्पन्न हुए बोध (वृजनम्) बल और (जीरदानुम्) जीवात्मा को (दधानः) धारण करते हुए (सासहिः) अतीव सहनशील होते हो वैसे हुए इसको हम लोग (विद्याम) जानें ॥ ६ ॥
भावार्थ
जो मनुष्य क्रोधादि दोषरहित विद्या विज्ञान धर्म्मयुक्त क्षमावान् जन सज्जनों के साथ जो दण्ड देने योग्य नहीं हैं उनकी रक्षा करते और दण्ड देने योग्यों को दण्ड देते हैं, वे राजकर्मचारी होनेके योग्य हैं ॥ ६ ॥इस सूक्त में विद्वानों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥यह एकसौ इकहत्तरवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
क्रोध से दूर [अवयातहेळा:]
पदार्थ
१. हे इन्द्र हमारे सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (सहीयसः) = कामक्रोधादि का अतिशयेन मर्षण करनेवाले (नॄन्) = मनुष्यों को (पाहि) = रक्षित कीजिए और (मरुद्भिः) = इन प्राणों के द्वारा (अवयातहेळा:) = हमसे दूर कर दिया है क्रोध व घृणा को जिसने ऐसे (भव) = होओ। प्राणसाधना के द्वारा आप हमें इस योग्य बनाइए कि हम क्रोध व घृणा से ऊपर उठ जाएँ । (सासहि:) = हमारे शत्रुओं का खूब ही मर्षण करनेवाले आप (सुप्रकेतेभिः) = उत्तम ज्ञानों के द्वारा (दधानः) = हमारा धारण कीजिए। इस ज्ञानाग्नि में हमारे सारे शत्रु भस्म हो जाएँ। हम (इषम्) = प्रेरणा को, (वृजनम्) = पाप के वर्जन को तथा (जीरदानुम्) = दीर्घ जीवन को विद्याम प्राप्त करें।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना के द्वारा हम प्रभु के प्रिय रक्षणीय बनें, ज्ञान प्राप्त करके क्रोध से ऊपर उठें।
विषय
प्रजा का पालन करे ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) राजन् ! ऐश्वर्यवन् ! ( त्वं ) तू ( सहीयसः ) बलवान् और सहनशील ( नॄन् ) मनुष्यों की ( पाहि ) रक्षा कर । उनको अपने अधीन राजपुरुष बना कर रख । तू ( मरुद्भिः ) राष्ट्र देह को प्राणों के समान प्रिय और शत्रु को मारने वाले वीर पुरुषों, विद्वानों और व्यापारी वैश्यों के सहयोग से ( अवयातहेडा: ) अपने क्रोध, और अनादर के कारणों को दूर करता (भव) रह और ( सुप्रकेतेभिः ) उत्तम शुभ, सुखजनक, ज्ञान वाले, ध्वजा चिन्हादि वाले वीरों और विद्वानों के साथ ( सासहिः ) शत्रु को पराजित करता हुआ और ( दधानः ) राष्ट्र का पालन करता ( भव ) रह । और हम प्रजाजन ( इषं ) उत्तम अन्नादि समृद्धि ( वृजनं ) शत्रु वर्जन करने योग्य बल और ( जीरदानुम् ) जीवन ( विद्याम ) प्राप्त करें । इत्येकादशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः । मरुतो देवता ॥ छन्द:— १, ५ निचृत् त्रिष्टुप । २ त्रिष्टुप । ४, ६ विराट् त्रिष्टुप । ३ भुरिक पङ्क्तिः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे क्रोध इत्यादी दोषांनी रहित विद्या विज्ञान धर्मयुक्त, क्षमाशील, सज्जनांना दंड देत नाहीत व दंड देण्यायोग्यास दंड देतात, ते राजकर्मचारी बनण्यास योग्य असतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of power, honour and glory, ruler of the world, patient, constant and victorious, protect and promote the men of strength, courage and endurance.$With the help of the Maruts, lustrous guardians and watchful protectors of the people, be free from anger and disdain of impatience and despair. Wielder of power and presiding power of the social order as you are, let us have knowledge and enlightenment, strength and courage of will and morals, and the light and vision of the spirit of life and joy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The selection of the State employees should be carefully made.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (President of the Assembly) ! You protect highly learned persons, who are preservers like the air. Such persons have the power of endurance. You ward off anger and insult, and face all pains and challenges of your opponents in the discharge of duties, and uphold truth. Support us, so that we may acquire true knowledge of the soul and strength and comprehend the nature of the soul.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only such persons deserve to be officers of the State who are free from anger and other evils. Such people should be endowed with wisdom, knowledge, forgiveness and Dharma (righteousness). They should also protect good and right type persons. They finish the wicked deservedly.
Foot Notes
(मरुद्भिः) प्राण इव रक्षकैविद्वदिः = Along with learned persons who are protectors like the Pranas. (इषम्) विद्यायोगजं बोधम् = Knowledge received from wisdom. (जीरदानुम्) जीवात्मानम् = Soul.
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