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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 189 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 189/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अगस्त्यः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अग्ने॒ त्वं पा॑रया॒ नव्यो॑ अ॒स्मान्त्स्व॒स्तिभि॒रति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑। पूश्च॑ पृ॒थ्वी ब॑हु॒ला न॑ उ॒र्वी भवा॑ तो॒काय॒ तन॑याय॒ शं योः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । त्वम् । पा॒र॒य॒ । नव्यः॑ । अ॒स्मान् । स्व॒स्तिऽभिः॑ । अति॑ । दुः॒ऽगाणि॑ । विश्वा॑ । पूः । च॒ । पृ॒थ्वी । ब॒हु॒ला । नः॒ । उ॒र्वी । भव॑ । तो॒काय॑ । तन॑याय । शम् । योः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने त्वं पारया नव्यो अस्मान्त्स्वस्तिभिरति दुर्गाणि विश्वा। पूश्च पृथ्वी बहुला न उर्वी भवा तोकाय तनयाय शं योः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। त्वम्। पारय। नव्यः। अस्मान्। स्वस्तिऽभिः। अति। दुःऽगाणि। विश्वा। पूः। च। पृथ्वी। बहुला। नः। उर्वी। भव। तोकाय। तनयाय। शम्। योः ॥ १.१८९.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 189; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अग्ने त्वं स्वस्तिभिरस्मान् विश्वानि दुर्गाणि पारय यथा नव्यो पूर्बहुला उर्वी पृथ्वी चाऽस्ति तथा नोऽस्माकं तोकाय तनयाय शं योर्भव ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (अग्ने) परमेश्वर (त्वम्) (पारय) दुःखाचारात् पृथक्कृत्वा श्रेष्ठाचारं नय। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः। (नव्यः) नव एव नव्यः (अस्मान्) (स्वस्तिभिः) सुखैः (अति) (दुर्गाणि) दुःखेन गन्तुं योग्यानि (विश्वा) सर्वाणि (पूः) पुररूपा (च) (पृथ्वी) भूमिः (बहुला) या बहून् पदार्थान् लाति सा (नः) अस्माकम् (उर्वी) विस्तीर्णा (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (तोकाय) अतिबालकाय (तनयाय) कुमाराय (शम्) सुखम् (योः) प्रापकः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा परमेश्वरः पुण्यात्मनो दुष्टाचारात् पृथग् रक्षति पृथिवीवत् पालयति तथा विद्वान् सुशिक्षया सुकर्मिणो दुष्टाचारात् पृथक् कृत्वा सुव्यवहारेण रक्षति ॥ २ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) परमेश्वर ! (त्वम्) आप (स्वस्तिभिः) सुखों से (अस्मान्) हम लोगों को (विश्वा) समस्त (अति दुर्गाणि) अत्यन्त दुर्ग के व्यवहारों को (पारय) पार कीजिये। जैसे (नव्यः) नवीन विद्वान् और (पूः) पुररूप (बहुला) बहुत पदार्थों को लेनेवाली (उर्वी) विस्तृत (पृथ्वी, च) भूमि भी है वैसे (नः) हमारे (तोकाय) अत्यन्त छोटे और (तनयाय) कुछ बड़े बालक के लिये (शं, योः) सुख को प्राप्त करानेवाले (भव) हूजिये ॥ २ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परमेश्वर पुण्यात्मा जनों को दुष्ट आचार से अलग रखता और पृथिवी के समान पालना करता है, वैसे विद्वान् जन सुन्दर शिक्षा से उत्तम कर्म करनेवालों को दुष्ट आचरण से अलग कर सुन्दर व्यवहार से रक्षा करता है ॥ २ ॥

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    विषय

    पृथिवी 'पूः' और बहुला 'उर्वी "

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) = आप (अस्मान्) = हमें (स्वस्तिभिः) = [सु अस्ति] उत्तम, अभिपूजित मार्गों के द्वारा (विश्वा) = सब (दुर्गाणि) पापों के (अतिपारया) = पार कीजिए। आप ही हमारे लिए (नव्यः) = स्तुति के योग्य हैं। हम आपका स्तवन करते हैं। आप हमें सब अशुभ वृत्तियों से दूर कीजिए । २. (च) = और आपकी कृपा से सब पापों से ऊपर उठने पर (पूः) = यह शरीररूप नगरी (पृथ्वी) = विस्तारवाली हो । इसकी सब शक्तियाँ विस्तृत हों-अङ्ग-प्रत्यङ्ग सबल व सशक्त हों। (नः) = हमारे लिए (उर्वी) = पृथिवी भी (बहुला) = बहुत पदार्थों को देनेवाली (भव) हो, पृथिवी हमारे लिए (उर्वरा) = हो । वस्तुतः विलासमय जीवन से ऊपर उठ जाने पर आध्यात्मिक व आधिभौतिक कष्ट दूर हो जाते हैं। अध्यात्म-कष्टों के दूर होने का संकेत 'पूश्च पृथ्वी' शब्दों से हुआ है और 'बहुला नः उर्वी' इन शब्दों से आधिदैविक कष्टों के दूर होने का । ३. हे प्रभो ! आप हमारे (तोकाय) = पुत्रों के लिए तथा (तनयाय) = पौत्रों के लिए (शंयोः) = रोगों के शमन करनेवाले व भयों का यावन (पार्थक्य) करनेवाले हों। हमारे जीवन की उत्तमता पर ही भावी सन्तति के उत्कृष्ट जीवन का सम्भव हुआ करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हे प्रभो! आप हमें पापों से पृथक् कीजिए जिससे हमारे शरीर सशक्त हों और पृथिवी हमारे लिए भरपूर अन्नों को देनेवाली हो । हमारे पुत्र-पौत्र भी नीरोग व निर्मल जीवनवाले हों

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    विषय

    विद्वान् का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् विद्वन् ! परमेश्वर ! तू ( नव्यः ) सदा नवीन, कभी पुराना न होने हारा, सदा स्तुतियोग्य है । तू (विश्वा) सब (दुर्गाणि) दुःखों से पार जाने योग्य संकटों को (स्वस्तिभिः) कल्याणकारी, सुखदायक मार्गों और उपायों से ( अस्मान् ) हमें ( अति पारय ) पार कर । तू ( बहुला ) बहुत से सुखों को देने वाली (पूः) नगरी के समान पालक, ( पृथ्वी न ) पृथ्वी के समान आश्रय और (उर्वी) विस्तृत (भव) हो । और हमारे (तोकाय) नन्हे २ बच्चों और (तनयाय) बड़े पुत्रों को भी (शं) सुख और शान्तिदायक (योः) सब कष्टों का निवारक हो। अथवा (शं योः) शान्ति सुख का प्राप्त कराने वाली हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ विराट् पङ्क्तिः॥ ७ पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा परमेश्वर पुण्यात्म्यांना दुष्ट आचरणापासून पृथक ठेवतो व पृथ्वीप्रमाणे पालन करतो तसा विद्वान चांगल्या शिक्षणाने उत्तम कर्म करणाऱ्यांना दुष्ट आचरणापासून पृथक ठेवून चांगल्या व्यवहाराद्वारे रक्षण करतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, light of life, lord of knowledge, ever young and new, lead us far across the challenging problems of the world with success and victories of prosperity. Let our lands and cities be wide and abundant as earth and be the harbinger of peace and joy for our children and grand children.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The learned persons guard against evils.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Adorable God ! convey us by the path leading to happiness and is beyond all the evils. May our city be spacious, and our land exhaustive. Be the bestower of happiness upon our offsprings, upon our sons and daughters and grandsons, too.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    NA

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As God keeps away meritorious persons from the unrighteous conduct and protects them like earth, likewise an enlightened person keeps aloof other men from all evils by giving them good education. And he protects them through good conduct.

    Foot Notes

    (पारय) दुःखाचारात् पृथक् कृत्वा श्रेष्ठाचारं नय | = Keep aloof from misery and lead towards noble conduct. (बहुला) बहून् पदार्थान् लाति सा = Bringer of many articles.

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