ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 189/ मन्त्र 4
पा॒हि नो॑ अग्ने पा॒युभि॒रज॑स्रैरु॒त प्रि॒ये सद॑न॒ आ शु॑शु॒क्वान्। मा ते॑ भ॒यं ज॑रि॒तारं॑ यविष्ठ नू॒नं वि॑द॒न्माप॒रं स॑हस्वः ॥
स्वर सहित पद पाठपा॒हि । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । पा॒युऽभिः । अज॑स्रैः । उ॒त । प्रि॒ये । सद॑ने । आ । शु॒शु॒क्वान् । मा । ते॒ । भ॒यम् । ज॒रि॒तार॑म् । य॒वि॒ष्ठ॒ । नू॒नम् । वि॒द॒त् । मा । अ॒प॒रम् । स॒ह॒स्वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पाहि नो अग्ने पायुभिरजस्रैरुत प्रिये सदन आ शुशुक्वान्। मा ते भयं जरितारं यविष्ठ नूनं विदन्मापरं सहस्वः ॥
स्वर रहित पद पाठपाहि। नः। अग्ने। पायुऽभिः। अजस्रैः। उत। प्रिये। सदने। आ। शुशुक्वान्। मा। ते। भयम्। जरितारम्। यविष्ठ। नूनम्। विदत्। मा। अपरम्। सहस्वः ॥ १.१८९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 189; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयमाह ।
अन्वयः
हे अग्ने शुशुक्वाँस्त्वमजस्रैः पायुभिः प्रिये सदन उत शरीरे बहिर्वा नोऽस्माना पाहि। हे यविष्ठ सहस्वस्ते जरितारं भयं मा विदन्नूनमपरं भयं माप्नुयात् ॥ ४ ॥
पदार्थः
(पाहि) (नः) अस्मान् (अग्ने) अग्निवद्विद्वन् (पायुभिः) रक्षणोपायैः (अजस्रैः) निरन्तरैः (उत) (प्रिये) कमनीये (सदने) स्थाने (आ) (शुशुक्वान्) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशितः (मा) (ते) तव (भयम्) (जरितारम्) (यविष्ठ) अतिशयेन युवन् (नूनम्) निश्चितम् (विदत्) विद्यात् प्राप्नुयात् (मा) (अपरम्) अन्यम् (सहस्वः) सोढुं शील ॥ ४ ॥
भावार्थः
त एव प्रशंसनीया जना ये सततं प्राणिनो रक्षन्ति कस्मादपि भयं नैर्बल्यञ्च न कुर्वन्ति ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान विद्वान् ! (शुशुक्वान्) विद्या और विनय से प्रकाश को प्राप्त (अजस्रैः) निरन्तर (पायुभिः) रक्षा के उपायों से (प्रिये) मनोहर (सदने) स्थान (उत) वा शरीर में वा बाहर (नः) हम लोगों को (आ, पाहि) अच्छे प्रकार पालिये जिससे हे (यविष्ठ) अत्यन्त युवावस्थावाले (सहस्वः) सहनशील विद्वन् ! (ते) आपकी (जरितारम्) स्तुति करनेवाले को (भयम्) भय (मा) मत (विदत्) प्राप्त होवे (नूनम्) निश्चय कर (अपरम्) और को भय (मा) मत प्राप्त होवे ॥ ४ ॥
भावार्थ
वे ही प्रशंसनीय जन हैं, जो निरन्तर प्राणियों की रक्षा करते हैं और किसीके लिये भय वा निर्बलता को नहीं प्रकाशित करते हैं ॥ ४ ॥
विषय
निर्भय जीवन
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (नः) = हमें (अजस्त्रैः) = अनवच्छिन्न, निरन्तर (पायुभिः) = रक्षणों से (पाहि) = रक्षित कीजिए (उत) = और (प्रिये) = नीरोगता के कारण कान्त (सदने) = मेरे शरीर गृह में आप (आशुशुक्वान्) = चारों ओर दीप्त होओ। प्रभुस्मरण से हमारा शरीर नीरोग हो तथा हम प्रभु के प्रकाश [ज्ञान] से दीप्त हों । २. हे (यविष्ठ) = [यु मिश्रणामिश्रणयोः] बुराइयों से पृथक् करनेवाले और शुभ से हमारा मेल करनेवाले प्रभो ! (ते) =आपके (जरितारम्) = स्तोता को (नूनम्) = निश्चय से आज [इस समय] (भयम्) = भय (मा विदत्) = प्राप्त न हो । तथा हे (सहस्व:) = सब शत्रुओं का मर्षण करनेवाले प्रभो ! (अपरम्) = आगे आनेवाले समय में भी (मा) = भय मत प्राप्त हो । आपसे रक्षित होने पर हमारा जीवन सुरक्षित हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु के स्तोता बनें। प्रभु से रक्षित स्तोता का जीवन निर्भय होता है ।
विषय
तेजस्वी राजा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्नि के समान प्रकाशक विद्वन् ! परमेश्वर ! राजन् ! तू (नः) हमें (अजस्त्रैः) निरन्तर, कभी नाश न होने वाले, स्थायी (पायुभिः) पालन करने के नाना उपायों से (पाहि) पालन कर (उत) और तू (शुशुक्वान्) अग्नि के समान कान्ति और शुद्ध तेज से चमकता हुआ हमारे (प्रिये सदने) प्रिय गृह में और देश में (आ) आ। हे ( यविष्ठ ) दुखों से छुड़ाने हारे ! हे बलवन् ! ( नूनं ) निश्चय से (जरितारं) स्तुतिशील विद्वान् पुरुष को ( ते भयं ) तेरा भय ( मा विदत् ) न प्रतीत हो और हे (सहस्वः) सहनशील ! बलवन् ! और ( अपरम् ) अन्य भी किसी प्रकार का उसको (भयं मा विदत्) भय न प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ विराट् पङ्क्तिः॥ ७ पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
तेच लोक प्रशंसनीय असतात जे प्राण्यांचे निरंतर रक्षण करतात, भय व निर्बलता प्रकट करीत नाहीत. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and knowledge, protect and promote us with inviolable safeguards and relentless modes of protection, shining in our dear home with the glow of health and blaze of power. Most youthful and powerful lord of endurance and challenges, may fear never touch your admirer and worshipper or any other, for sure.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a learned man are given.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man ! you are shining like the fire and bright with knowledge and humility. Protect us with your incessant protective powers in our loving home, in our body and outside. O young ( energetic) and enduring scholar ! let no fear overcome your admirer today, nor in future.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those are only admirable persons who protect people all the time and do not frighten and weaken them.
Foot Notes
( शुशुक्वान् ) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशितः । शुशुक्वान् is from शोचतिर्ज्वलति कर्मा (N. G. 1-16) = Shining with knowledge and humility (सहस्व:) सोढुं शील: = Men of enduring power. (अजस्रं:). निरन्तरैः = Incessant, in continuation.
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