ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 189/ मन्त्र 6
वि घ॒ त्वावाँ॑ ऋतजात यंसद्गृणा॒नो अ॑ग्ने त॒न्वे॒३॒॑ वरू॑थम्। विश्वा॑द्रिरि॒क्षोरु॒त वा॑ निनि॒त्सोर॑भि॒ह्रुता॒मसि॒ हि दे॑व वि॒ष्पट् ॥
स्वर सहित पद पाठवि । घ॒ । त्वावा॑न् । ऋ॒त॒ऽजा॒त॒ । यं॒स॒त् । गृ॒ण॒नः । अ॒ग्ने॒ । त॒न्वे॑ । वरू॑थम् । विश्वा॑त् । रि॒रि॒क्षोः । उ॒त । वा॒ । नि॒नि॒त्सोः । अ॒भि॒ऽह्रुता॑म् । असि॑ । हि । दे॒व॒ । वि॒ष्पट् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि घ त्वावाँ ऋतजात यंसद्गृणानो अग्ने तन्वे३ वरूथम्। विश्वाद्रिरिक्षोरुत वा निनित्सोरभिह्रुतामसि हि देव विष्पट् ॥
स्वर रहित पद पाठवि। घ। त्वावान्। ऋतऽजात। यंसत्। गृणनः। अग्ने। तन्वे। वरूथम्। विश्वात्। रिरिक्षोः। उत। वा। निनित्सोः। अभिऽह्रुताम्। असि। हि। देव। विष्पट् ॥ १.१८९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 189; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे ऋतजात देवाग्ने त्वावान् गृणानो विद्वान् तन्वे वरूथं घ वि यंसत् यो विष्पट् त्वं विश्वाद्रिरिक्षोरुत वा निनित्सोः पृथग्वि यंसत्तस्माद्धि त्वमभिह्रुतां शासिताऽसि ॥ ६ ॥
पदार्थः
(वि) विशेषेण (घ) एव (त्वावान्) त्वया सदृशः (ऋतजात) सत्याचारे प्राप्तप्रसिद्धे (यंसत्) यच्छेत् (गृणानः) स्तुवन् (अग्ने) विद्युदिव वर्त्तमान विद्वन् (तन्वे) शरीराय (वरूथम्) स्वीकर्त्तुमर्हम् (विश्वात्) समग्रात् (रिरिक्षोः) हिंसितुमिच्छोः (उत) अपि (वा) (निनित्सोः) निन्दितुमिच्छोः (अभिह्रुताम्) सर्वतः कुटिलाचरणानाम् (असि) (हि) (देव) जिगीषो (विष्पट्) यो विषो व्याप्नुवतः पटति प्राप्नोति सः ॥ ६ ॥
भावार्थः
ये गुणदोषवेत्तारः सत्याचरणाः सर्वेभ्यो हिंसकनिन्दककुटिलेभ्यो जनेभ्यः पृथक् वसन्ति ते सर्वं भद्रमाप्नुवन्ति ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (ऋतजात) सत्य आचार में प्रसिद्धि पाये हुए (देव) विजय चाहनेवाले ! (अग्ने) बिजुली के तुल्य चञ्चल तापयुक्त (त्वावान्) तुम्हारे सदृश (गृणानः) स्तुति करता हुआ विद्वान् (तन्वे) शरीर के लिये (वरूथम्) स्वीकार करने के योग्य (घ) ही पदार्थ को (वि, यंसत्) देवे। जो (विष्पट्) व्याप्तिमानों को प्राप्त होते आप (विश्वात्) समस्त (रिरिक्षोः) हिंसा करनी चाहते हुए (उत, वा) अथवा (निनित्सोः) निन्दा करना चाहते हुए से अलग देवें (हि) इसीसे आप (अभिह्रुताम्) सब ओर से कुटिल आचरण करनेवालों को शिक्षा देनेवाले (असि) होते हैं ॥ ६ ॥
भावार्थ
जो गुण दोषों के जाननेवाले सत्याचरणवान् जन समस्त हिंसक, निन्दक और कुटिल जनों से अलग रहते हैं, वे समस्त कल्याण को प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥
विषय
अपने को शत्रुओं से मुक्त करना
पदार्थ
१. हे (ऋतजात) = [ऋतं जातं यस्मात्] ऋत के उत्पत्तिस्थान प्रभो ! [ऋतं च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत]; अथवा ऋत के पालन से हृदय में प्रादुर्भूत होनेवाले [ऋतेन जात:] प्रभो ! (गृणान:) = स्तवन करता हुआ व्यक्ति (घ) = निश्चय से (त्वावान्) = आपवाला होकर आपको अपने हृदय में आसीन करके (विश्वाद् रिरिक्षो:) = सब हिंसा करने की इच्छावालों से (उत वा) = तथा (निनित्सोः) = निन्दा करने की इच्छावालों से अपने को (वियंसत्) = विमुक्त करता है। आप उसके (तन्वे) = शरीर के लिए (वरूथम्) = आच्छादक होते हो। आपको आवरण के रूप में प्राप्त करके यह अपना रक्षण कर पाता है। २. हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो! आप हि ही (अभिह्रुताम्) = कुटिलता करनेवाले शत्रुओं के (विष्पट् असि) = विशेषरूप से बाधन करनेवाले हैं। हमसे सब कुटिलताओं को आप ही दूर करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु का उपासक प्रभु से रक्षित हुआ हुआ सब नाशक शत्रुओं से अपने को रक्षित कर पाता है ।
विषय
तेजस्वी राजा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (ऋतजात) सत्यज्ञान, धनैश्वर्य और बल में विशेष रूप से प्रसिद्ध ज्ञानवन् ! ऐश्वर्यवन् ! हे अग्ने ! तेजस्विन् ! विद्वन् ! प्रभो ! (त्वावान्) तुझ सहायक को प्राप्त होकर तेरे समान बलवान् पुरुष (गृणानः) स्तुति या उपदेश करता हुआ (तन्वे) शरीर की रक्षा के लिये (वरूथं) वरण करने योग्य, आच्छादन करने योग्य कवच को (वि यंसत्) विशेष रूप से बांधता है और वह (विश्वात्) सब प्रकार के (रिरिक्षोः) हिंसाकारी शत्रु (उत वा) और (निनित्सोः) निन्दक पुरुष से (वि यंसत्) बचाता है । हे ( देव ) देव ! विद्वन् ! विजय शील ! तू (अभि ह्रुताम्) कुटिलाचारी लोगों का (विष्पट् असि) विविध उपायों से बाधक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ विराट् पङ्क्तिः॥ ७ पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे गुण-दोष जाणणारे, सत्याचरणी, संपूर्ण हिंसक, निंदक व कुटिल लोकांपासून पृथक राहतात त्यांचे संपूर्ण कल्याण होते. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord manifest in truth and Dharma, let your admirer and worshipper, sharing brilliance like yours, singing in praise and homage to you, give unto himself due protection for his body and mind. And then, O lord of light and power, you are the ultimate protector against all violent and hostile maligners since you break them down or teach them a lesson to correction.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Path to nobility is pointed out
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person you are shining like Agni (energy), excellent and renowned on account of truthful conduct. You are always desirous of conquering all evils. A scholar like you, praising God bestows happiness and health for our body. You are near to those who are virtuous and keep at distance from all those who are inclined to harm. Therefore, you keep the crooked persons in check.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons enjoy full happiness who know the merits and demerits of everything. They are of truthful conduct, keep themselves aloof from all violent people revilers and the crooked.
Foot Notes
(ऋतजात) सत्याचारे प्राप्त प्रसिद्ध = Renowned on account of truthful conduct. (विष्पट् ) यो विष: – व्याप्नुवतः पटति प्राप्नोति सः = He who approachest the virtuous. (रिरिक्षो:) हिसितुमिच्छोः = From a person who desires or is inclined to harm (अभिहृताम् ) सर्वतः कुटिलाचरणानाम् = From the all-round crooked.
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