ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 189/ मन्त्र 5
मा नो॑ अ॒ग्नेऽव॑ सृजो अ॒घाया॑वि॒ष्यवे॑ रि॒पवे॑ दु॒च्छुना॑यै। मा द॒त्वते॒ दश॑ते॒ मादते॑ नो॒ मा रीष॑ते सहसाव॒न्परा॑ दाः ॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । अव॑ । सृ॒जः॒ । अ॒घाय॑ । अ॒वि॒ष्यवे॑ । रि॒पवे॑ । दु॒च्छुना॑यै । मा । द॒त्वते॑ । दश॑ते । मा । अ॒दते॑ । नः॒ । मा । रीष॑ते । स॒ह॒सा॒ऽव॒न् । परा॑ । दाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो अग्नेऽव सृजो अघायाविष्यवे रिपवे दुच्छुनायै। मा दत्वते दशते मादते नो मा रीषते सहसावन्परा दाः ॥
स्वर रहित पद पाठमा। नः। अग्ने। अव। सृजः। अघाय। अविष्यवे। रिपवे। दुच्छुनायै। मा। दत्वते। दशते। मा। अदते। नः। मा। रीषते। सहसाऽवन्। परा। दाः ॥ १.१८९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 189; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शासकविषयमाह ।
अन्वयः
हे अग्ने त्वं नोऽघायाविष्यवे रिपवे दुच्छनायै च मावसृजः। हे सहसावन् दत्वते दशते मादते मा रिषते च नो मा परा दाः ॥ ५ ॥
पदार्थः
(मा) (नः) अस्मान् (अग्ने) विद्वन् (अव) (सृजः) संयोजयेः (अघाय) पापाय (अविष्यवे) धर्ममव्याप्नुवते (रिपवे) शत्रवे (दुच्छुनायै) दुष्टं शुनं गमनं यस्यास्तस्यै। अत्र शुन गतावित्यस्माद् घञर्थे क इति कः। (मा) (दत्वते) दन्तवते (दशते) दंशकाय (मा) (अदते) (नः) अस्मान् (मा) (रिषते) हिंसकाय। अत्राऽन्येषामपीत्याद्यचो दैर्घ्यम्। (सहसावन्) बहु सहो बलं सहनं वा विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (पराः) (दाः) दूरीकुर्याः ॥ ५ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्विद्वद्राजाऽध्यापकोपदेशकान् प्रत्येवं प्रार्थनीयमस्मान् दुर्व्यसनाय दुष्टसङ्गाय मा प्रेरयत किन्तु सदैव श्रेष्ठाचारधर्ममार्गसत्सङ्गेषु संयोजयतेति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिक्षा देनेवाले के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वान् ! आप (नः) हम लोगों को (अघाय) पापी जन के लिये (अविष्यवे) वा जो धर्म को नहीं व्याप्त उस (रिपवे) शत्रुजन अथवा (दुच्छुनायै) दुष्ट चाल जिसकी उनके लिये (मावसृजः) मत मिलाइये। हे (सहसावन्) बहुत बल वा बहुत सहनशीलतायुक्त विद्वान् (दत्वते) दातोंवाले और (दशते) दाढ़ों से विदीर्ण करनेवाले के (मा) मत तथा (अदते) विना दातोंवाले दुष्ट के लिये (मा) मत और (रिषते) हिंसा करनेवाले के लिये (नः) हम लोगों को (मा, परा, दाः) मत दूर कीजिये अर्थात् मत अलग कर उनको दीजिये ॥ ५ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को विद्वान्, राजा, अध्यापक और उपदेशकों के प्रति ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हम लोगों को दुष्ट स्वभाव और दुष्ट सङ्गवाले को मत पहुँचाओ किन्तु सदैव श्रेष्ठाचार धर्ममार्ग और सत्सङ्गों में संयुक्त करो ॥ ५ ॥
विषय
काम-क्रोध-लोभ का शिकार न होना
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = सब बुराइयों को भस्म करनेवाले प्रभो! आप (नः) = हमें (अघाय) = महापाप्मा 'काम' के लिए (मा अवसृजः) = मत छोड़ दीजिए। हमें उसकी दया पर मत छोड़िए। हम काम के शिकार न हो जाएँ। यह काम हमें विविध पापों में फँसाता है। यह तो है ही 'अघ' । २. (अविष्यवे) = [अविष्यतिरत्तिकर्मा] हमें खा जानेवाले क्रोध के लिए भी मत फेंक दीजिए। हम क्रोध के भी शिकार न हो जाएँ। ये ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध तो हमें भस्म ही कर देते हैं । ३. इस (दुच्छुनायै) = दुष्ट गतिवाले [शुन गतौ] (रिपवे) = लोभरूप शत्रु के लिए भी हमें मत छोड़ दीजिए | लोभ आने पर मनुष्य टेढ़े-मेढ़े मार्गों से धन कमाने लगता है। इन अशुभ गतियों में प्रेरित करनेवाले लोभ के भी हम शिकार न हो जाएँ। ४. (दत्वते) = दाँतोंवाले (दशते) = डसनेवाले क्रोधरूप शत्रु के लिए (न:) = हमें (मा परा दाः) = मत दे डालिए। क्रोध में दाँत कटकटाते हैं, अतः क्रोध को 'दत्वान्' कहा है। साथ ही (अ-दते) = बिना दाँतवाले इस रूप में सुकुमार तथा कोमलता से ही आक्रमण करनेवाले 'पुष्पधन्वा - कुसुमशर' कामदेव के लिए भी हमें मत दे डालिए। हे (सहसावन्) = शत्रुओं का मर्षण करने की शक्तिवाले प्रभो ! (रीषते) = हमारी हिंसा करनेवाले इस लोभ के लिए भी हमें मत दे डालिए । ५. यहाँ मन्त्र के पूर्वार्द्ध में काम को 'अघ' कहा है। यह पाप ही पाप है। उत्तरार्द्ध में इसे 'बिना दाँतोंवाला विनाशक' [अदते दशते] कहा है। यह काम 'पुष्पधन्वा' के रूप में चित्रित किया गया है। इसका धनुष व इसके बाण सब फूलों के बने हैं। इसके विपरीत क्रोध 'दत्वते दशते' दाँतोंवाला शत्रु है, इसमें उग्रता है। यह हमें खा ही जाता है [अविष्यवे] । लोभ के कारण सब अशुभ मार्गों का आक्रमण होता है, अतः यह 'दुच्छुनायै' शब्द से याद किया गया है। यह हमारे विनाश का कारण बनता है, अत: 'रीषते' इस रूप में इसका स्मरण हुआ है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्मरण करें और काम, क्रोध व लोभ का शिकार होने से बचें।
विषय
तेजस्वी राजा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्ने ज्ञानवन् ! अग्नि के समान तेजस्विन् ! शत्रु और दुष्ट पुरुषों को अग्नि के समान संताप देने हारे राजन् ! परमेश्वर ! और तू ( नः ) हमें ( अघाय ) पापाचारी हत्यारे ( अविष्यवे ) हिंसा करने की इच्छा करने वाले, ( रिपवे ) शत्रु और (दुच्छुनायै) दुःखदायी, सुखनाशक ( दत्वते ) दांत वाले, व्याघ्र आदि और (दशते) काटने वाले सर्प, वृश्चिक आदि ( अदते ) खाजाने वाले और ( रिषते ) हिंसा करने वाले, इनके लिये ( नः ) हमें ( मा अवसृज ) कभी न छोड़ और इनके सुख के लिये, हे (सहसावन्) बलवन् ! हमें ( मा परा दाः ) कभी मत त्याग कर । जैसे अग्नि के समीप रहते हुए, चौर, सर्प, व्याघ्र आदि से भी कोई भय नहीं रहता उसी प्रकार उत्तम नायक और विद्वान् वैद्य तथा बलशाली रक्षक के रहते हुए भी इन सब कष्टदायी पदार्थों से भय नहीं रहता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ विराट् पङ्क्तिः॥ ७ पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी विद्वान, राजा, अध्यापक व उपदेशक यांना अशी प्रार्थना केली पाहिजे की आम्हाला दुर्व्यसनी व दुष्ट माणसांच्या संगतीत पाठवू नका तर सदैव श्रेष्ठाचार, धर्ममार्ग, सत्संगात संयुक्त करा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of power and endurance, abandon us not, throw us not to the sinner, the irreligious, the enemy, the mischievous, the biter, the tearer, and the destroyer. Leave us not, put us not off from you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers and administrators.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O mighty scholar! shining with wisdom like the fire, you do not abandon us under the charge of a wicked, voracious, and Malvo lent foe. Neither abandon us to one who has fangs and who bites nor to a malignant, violent person. Please never ask us to do any sinful act, but inspire us to perform noble deeds.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Man should pray to the enlightened persons, rulers, and teachers in the following words, never make us inclined for any vice or dissociation with the wicked; but always unite us in the righteous conduct, path of Dharma (duty) and association with good men.
Foot Notes
(अविष्यवे) धर्मम् अव्याप्नुवते – Not pervading Dharma or righteousness-an unrighteous person. (दुचछुनायै) दुष्टं शुनं गमनं यस्यास्तस्यै । अत्र शुनगतौ इत्यस्माद् घनर्थे कः इति कः = For bad movement or sinful activities. (रीषते) हिन्सकाय = For a man of violent nature.
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