ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 189/ मन्त्र 3
अग्ने॒ त्वम॒स्मद्यु॑यो॒ध्यमी॑वा॒ अन॑ग्नित्रा अ॒भ्यम॑न्त कृ॒ष्टीः। पुन॑र॒स्मभ्यं॑ सुवि॒ताय॑ देव॒ क्षां विश्वे॑भिर॒मृते॑भिर्यजत्र ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । त्वम् । अ॒स्मत् । यु॒यो॒धि॒ । अमी॑वाः । अन॑ग्निऽत्राः । अ॒भि । अम॑न्त । कृ॒ष्टीः । पुनः॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । सु॒वि॒ताय॑ । दे॒व॒ । क्षाम् । विश्वे॑भिः । अ॒मृते॑भिः । य॒ज॒त्र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने त्वमस्मद्युयोध्यमीवा अनग्नित्रा अभ्यमन्त कृष्टीः। पुनरस्मभ्यं सुविताय देव क्षां विश्वेभिरमृतेभिर्यजत्र ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। त्वम्। अस्मत्। युयोधि। अमीवाः। अनग्निऽत्राः। अभि। अमन्त। कृष्टीः। पुनः। अस्मभ्यम्। सुविताय। देव। क्षाम्। विश्वेभिः। अमृतेभिः। यजत्र ॥ १.१८९.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 189; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरदृष्टान्तेन विद्वद्गुणानाह ।
अन्वयः
हे यजत्र देवाग्ने वैद्यस्त्वं येऽनग्नित्रा अमीवा रोगाः कृष्टीरभ्यमन्त तानस्मद्युयोधि पुनर्विश्वेभिरमृतेभिरस्मभ्यं सुविताय क्षां भूराज्य प्राप्रय ॥ ३ ॥
पदार्थः
(अग्ने) ईश्वर इव विद्वन् (त्वम्) (अस्मत्) (युयोधि) पृथक् कुरु (अमीवाः) रोगाः (अनग्नित्राः) अविद्यमानज्वरेण रक्षकाः (अभ्यमन्त) अभितो रुजन्ति (कृष्टीः) मनुष्यान् (पुनः) (अस्मभ्यम्) (सुविताय) ऐश्वर्यप्राप्तये (देव) कामयमान (क्षाम्) भूमिं भूमिराज्यमात्रं वा (विश्वेभिः) सर्वैः (अमृतेभिः) अमृतात्मकैरोषधैः (यजत्र) सङ्गच्छमान ॥ ३ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरो वेदद्वारा विद्यारोगाज्जनान् पृथक् करोति तथा सद्वैद्या मनुष्यान् रोगेभ्यो निवर्त्त्य अमृतात्मकैरौषधैर्वर्द्धयित्वैश्वर्यं प्रापयन्ति ॥ ३ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वर के दृष्टान्त से विद्वानों के गुणों को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (यजत्र) सङ्ग करते हुए (देव) कामना करनेवाले (अग्ने) ईश्वर के समान विद्वान् वैद्य जन ! (त्वम्) आप जो (अनग्नित्राः) ऐसे हैं कि यदि उनके साथ ज्वर न विद्यमान हो तो अविद्यमान ज्वर से शरीर की रक्षा करनेवाले हैं, वे (अमीवाः) रोग (कृष्टीः) मनुष्यों को (अभ्यमन्त) सब ओर से रुग्ण करते कष्ट देते हैं उनको (अस्मत्) हम लोगों से (युयोधि) अलग कर (पुनः) फिर (विश्वेभिः) समस्त (अमृतेभिः) अमृतरूप ओषधियों से (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (सुविताय) ऐश्वर्य प्राप्त होने के लिये (क्षाम्) भूमि के राज्य को प्राप्त कीजिये ॥ ३ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर वेदद्वारा अविद्यारूपी रोग से मनुष्यों को अलग करता है, वैसे अच्छे वैद्य मनुष्यों को रोगों से निवृत्त कर अमृतरूपी ओषधियों से बढ़ाकर ऐश्वर्य की प्राप्ति कराते हैं ॥ ३ ॥
विषय
पाप से रोग
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (अस्मत्) = हमसे (अमीवाः) = रोगों को (युयोधि) = पृथक् कर दीजिए । (अनग्नित्रा:) = अग्नि के द्वारा अपना त्राण न करनेवाले-प्रभु की उपासना व अग्निहोत्र न करनेवाले (कृष्टीः) = मनुष्य ही (अभ्यमन्त) = रोगों से आक्रान्त होते हैं। प्रभु की उपासना व अग्निहोत्र, अर्थात् 'ब्रह्मयज्ञ' और 'देवयज्ञ' नीरोगता देनेवाले हैं । २. (अस्मभ्यं पुनः) = हम जो उपासना व अग्निहोत्र करनेवाले हैं, उनके लिए तो आप हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो ! (सुविताय) = सुवित् के लिए हों । आपसे मार्गदर्शन प्राप्त करते हुए हम सदा दुरित से दूर हों और सुवित को प्राप्त हों। ३. हे (यजत्र) = यज्ञों के द्वारा त्राण करनेवाले प्रभो! आप (क्षाम्) = हमारे इस निवासस्थानभूत पृथिवीरूप शरीर को (विश्वेभिः अमृतेभिः) = सब अमृततत्त्वों से युक्त कीजिए। हमारे सब अङ्गप्रत्यङ्ग नीरोग हों ।
भावार्थ
भावार्थ - उपासना व यज्ञों को अपनाते हुए हम नीरोग हों।
विषय
तेजस्वी राजा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् विद्वन् ! हे परमेश्वर ! ( त्वम् ) तू उन ( अमीवाः ) रोगकारी, पीड़ादायक रोगों और दुष्ट पुरुषों को (अस्मत) हमसे ( युयोधि ) पृथक् कर । जो ( अनग्नित्राः ) विपत्तियों, ऊपर से अप्रकट ज्वर को रखते हुए भीतरी ज्वर से ( कृष्टिः ) मनुष्यों को (अभिअमन्त ) सब प्रकार से पीड़ित करते हैं । इस प्रकार वे दुष्ट पुरुष जो (अनग्नित्राः) अग्नि अर्थात् विद्वान् पुरुष और नायक द्वारा सुरक्षित न रह कर उच्छृंखलता से (कृष्टीः) कृषक प्रजाओं को लूटमार और अपने अनाचारों से सताते हैं। ( पुनः ) और हे (देव) सर्वप्रकाशक, सर्व सुख प्रद ! हे (यजत्र) दानशील ! हे सत्संग योग्य, सुसंगतिकारक उत्तम स्नेही ! तू (सुविताय) हमें उत्तम ऐश्वर्य और उत्तम गति प्राप्त करने के लिये (विश्वेभिः) समस्त (अमृतेभिः) अमृतस्वरूप, प्राणप्रद, जीवनदाता, औषधियों से (अस्मभ्यम्) हमारे (क्षाम्) निवास भूमि को हमारे उपयोग के लिये पूर्ण कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अगस्त्य ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ४, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ३, ५, ६ विराट् पङ्क्तिः॥ ७ पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा ईश्वर वेदाद्वारे अविद्यारूपी रोगांपासून माणसांना पृथक करतो तसे चांगले वैद्य मनुष्यांना रोगांपासून निवृत्त करून अमृतरूपी औषधी वाढवून ऐश्वर्याची प्राप्ती करवितात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and life, reduce and remove from us suffering and disease through yajna, since, O leading power of yajna fire, those who neglect the sacred fire suffer from ailments all round. And then, O lord of love and creative generosity, for our welfare, peace and prosperity, come with the sacred flames of holy fire and bless the earth with universal nectar sweets of good health and gifts of imperishable joy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a scholar.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God — like divine learned physician ! meeting people lovingly and desiring their welfare, you remove from us the diseases which make people ill. Without them, the people do not attain health. Help us in having good administration on earth by way of giving the nectar like nourishing medicines in order to acquire wealth and prosperity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
NA
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As God keeps people away from the disease of ignorance through the Vedas, in the same manner, good physicians treat and cure all diseases in men and make them grow more and more by nectar like medicines. So they become prosperous.
Foot Notes
(यजन) संगच्छमान = Meeting men lovingly. (देव ) कामयमान = Desiring the Welfare of all.
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