ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 13
अच्छा॑ वदा॒ तना॑ गि॒रा ज॒रायै॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॑म् । अ॒ग्निं मि॒त्रं न द॑र्श॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । व॒द॒ । तना॑ । गि॒रा । ज॒रायै॑ । ब्रह्म॑णः । पति॑म् । अ॒ग्निम् । मि॒त्रम् । न । द॒र्श॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा वदा तना गिरा जरायै ब्रह्मणस्पतिम् । अग्निं मित्रं न दर्शतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ । वद । तना । गिरा । जरायै । ब्रह्मणः । पतिम् । अग्निम् । मित्रम् । न । दर्शतम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 13
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(अच्छ) सम्यग्रीत्या। अत्र दीर्घः। (वद) उपदिश। अत्र द्वचोतस्तिङ् इति दीर्घः। (तना) गुणप्रकाशं विस्तारयन्त्या (गिरा) स्वकीयया वेदयुक्त्या वाण्या (जरायै) स्तुत्यै। जरास्तुतिजरतेः स्तुतिकर्मणः। निरु० १०।८। (ब्रह्मणः) वेदस्याऽध्यापनोपदेशेन (पतिम्) पालकम् (अग्निम्) ब्रह्मवर्चस्विनम् (मित्रम्) सुहृदम् (न) इव (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् ॥१३॥
अन्वयः
तदेतदुपदेशको विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे सर्वविद्याविद्विद्वँस्त्वंब्रह्मणस्पतिं दर्शतमग्निंमित्रं न जरायै तना गिरा विमानादियानविद्यामच्छावद ॥१३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो मनुष्या यथा प्रियः सखा प्रीतं तेजस्विनं वेदोपदेशकं सुहृदं सेवागुणस्तुतिभ्यां प्रीणाति तथा सर्वविद्याविस्तारिकया वेदवाण्या विमानादियानरचनविद्यां तद्गुणज्ञानया सम्यगुपदिशत ॥१३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर इस विमानादि विद्या का उपदेशक विद्वान् कैसा होवे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे सब विद्या के जाननेवाले विद्वान् ! तू (न) जैसे (ब्रह्मणः) वेद के पढ़ाने और उपदेश से (पतिम्) पालने हारे (दर्शतम्) देखने योग्य (अग्निम्) तेजस्वी (मित्रम्) जैसे मित्र को मित्र उपदेश करता है वैसे (जरायै) गुण ज्ञान के लिये (तना) गुणों के प्रकाश को बढ़ाने हारी (गिरा) अपनी वेदयुक्त वाणी से विमानादि यानविद्या का (अच्छा वद) अच्छे प्रकार उपदेश कर ॥१३॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वान् मनुष्यों ! तुम लोगों को चाहिये कि जैसे प्रिय मित्र अपने प्रिय तेजस्वी वेदोपदेशक मित्र को सेवा और गुणों की स्तुति से तृप्त करता है वैसे सब विद्याओं का विस्तार करनेवाली वेद वाणी से विमानादि यानों के रचने की विद्या का उसके गुण ज्ञान के लिये निरंतर उपदेश करो ॥१३॥
विषय
फिर इस विमानादि विद्या का उपदेशक विद्वान् कैसा होवे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सर्व विद्याविद् विद्वन् त्वं ब्रह्मणः पतिं दर्शतम् अग्निं मित्रं न जरायै तना गिरा विमानादियानविद्याम् अच्छ आ वद ॥१३॥
पदार्थ
हे (सर्व)=समस्त, (विद्याविद्)=विद्याओं के ज्ञाता, (विद्वन्)=विद्वान्, (त्वम्)=तुम, (ब्रह्मणः) वेदस्याऽध्यापनोपदेशेन=वेद के अध्यापन और उपदेश से, (पतिम्) पालकम्=पालक, (दर्शतम्) द्रष्टव्यम्=दिखाई पड़ते हो, (अग्निम्) ब्रह्मवर्चस्विनम्= वेद के अध्यापन की शक्ति या गुणवाले, (मित्रम्) सुहृदम्=मित्र के, (न) इव =समान, (जरायै) स्तुत्यै=स्तुति के लिये, (तना) गुणप्रकाशं विस्तारयन्त्या=गुणों का प्रकाश और विस्तार करनेवाले, (गिरा) स्वकीयया वेदयुक्त्या वाण्या=अपनी वेदयुक्त वाणी से, (विमानादियानविद्याम्)=विमान आदि यानों के बनाने और चलाने की विद्या को, (अच्छ) सम्यग्रीत्या=ठीक-ठीक रीति से, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (वद) उपदिश=उपदेश करो॥१३॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। हे विद्वान् मनुष्यों ! तुम लोगों को चाहिये कि जैसे प्रिय मित्र अपने प्रिय तेजस्वी वेदोपदेशक मित्र को सेवा और गुणों की स्तुति से तृप्त करता है वैसे सब विद्याओं का विस्तार करनेवाली वेद वाणी से विमानादि यानों के रचने की विद्या का उसके गुण ज्ञान के लिये निरंतर उपदेश करो ॥१३॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सर्व) समस्त (विद्याविद्) विद्याओं के ज्ञाता (विद्वन्) विद्वान्! (त्वम्) तुम (ब्रह्मणः) वेद के अध्यापन और उपदेश से (पतिम्) पालक (दर्शतम्) दिखाई पड़ते हो। (अग्निम्) वेद के अध्यापन की शक्ति या गुणवाले और (मित्रम्) मित्र के (न) समान (जरायै) स्तुति के लिये (तना) गुणों का प्रकाश और विस्तार करनेवाले हो। (गिरा) अपनी वेदयुक्त वाणी से (विमानादियानविद्याम्) विमान आदि यानों के बनाने और चलाने की विद्या को (अच्छ) ठीक-ठीक रीति से (आ) हर ओर से (वद) उपदेश करो॥१३॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अच्छ) सम्यग्रीत्या। अत्र दीर्घः। (वद) उपदिश। अत्र द्वचोतस्तिङ् इति दीर्घः। (तना) गुणप्रकाशं विस्तारयन्त्या (गिरा) स्वकीयया वेदयुक्त्या वाण्या (जरायै) स्तुत्यै। जरास्तुतिजरतेः स्तुतिकर्मणः। निरु० १०।८। (ब्रह्मणः) वेदस्याऽध्यापनोपदेशेन (पतिम्) पालकम् (अग्निम्) ब्रह्मवर्चस्विनम् (मित्रम्) सुहृदम् (न) इव (दर्शतम्) द्रष्टव्यम् ॥१३॥
विषयः- तदेतदुपदेशको विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे सर्वविद्याविद्विद्वँस्त्वंब्रह्मणस्पतिं दर्शतमग्निंमित्रं न जरायै तना गिरा विमानादियानविद्यामच्छावद ॥१३॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो मनुष्या यथा प्रियः सखा प्रीतं तेजस्विनं वेदोपदेशकं सुहृदं सेवागुणस्तुतिभ्यां प्रीणाति तथा सर्वविद्याविस्तारिकया वेदवाण्या विमानादियानरचनविद्यां तद्गुणज्ञानया सम्यगुपदिशत ॥१३॥
विषय
प्रभु का स्तवन
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार शरीर को पूर्ण स्वस्थ बनाकर (जरायै) - [जरा स्तुतिः, नि० १०/८] स्तुति के लिए (तना) - ज्ञान का विस्तार करनेवाली (गिरा) - वाणी के द्वारा (ब्रह्मणस्पतिम्) - सम्पूर्ण ज्ञानों के पति (अग्निम्) - उन्नति के प्रापक (मित्रं न) - मित्र के समान (दर्शतम्) - दर्शनीय उस प्रभु को (अच्छा) - लक्ष्य करके (वद) - मन्त्रात्मक वाणियों का उच्चारण कर ।
२. जीवन में प्रभु का स्तवन हमें मार्गभ्रष्ट होने से बचाता है । प्रभु - स्तवन से हमारे सामने एक लक्ष्य - दृष्टि उत्पन्न होती है । हमें इस प्रभु की भाँति ही 'ज्ञान का पति, आगे - ही - आगे बढ़नेवाला, सबके प्रति स्नेहवाला व दर्शनीयाकृति' बनना है ।
३. वेदवाणियों के द्वारा हम प्रभु का स्तवन करें । ये वेदवाणियाँ हमारे ज्ञानों का विस्तार करनेवाली हैं [तना] ।
भावार्थ
भावार्थ - स्वस्थ शरीर में हम वेदवाणियों से प्रभु का स्तवन करें और जीवनमार्ग का निश्चय करें ।
विषय
मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।
भावार्थ
हे विद्वन्! तू (ब्रह्मणः पतिम्) महान् ज्ञान वेद राशि को अध्ययन और प्रवचन द्वारा पालन करनेवाले (अग्निम्) ज्ञानवान् (मित्रम्) सबके स्नेही पुरुष को (मित्रम् न दर्शतम्) प्रिय मित्र के समान प्रेम से दर्शन करने योग्य जान कर (तना गिरा) विस्तृत व्याख्या करनेवाली वाणी से (जरायै) प्रत्येक पदार्थ के गुणों के वर्णन करने के लिए (अच्छा वद) आदर से प्रार्थना कर। अथवा—(मित्रम् न दर्शतम्) मित्र के समान देखने योग्य (अग्निं ब्रह्मणस्पतिम्) अग्रणी नायक, बड़े बल और राष्ट्र पालक राजा को (जरायै तना गिरा अच्छा वद) ज्ञानोपदेश करने के लिए विस्तृत वाणी से साक्षात् उपदेश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे विद्वान माणसांनो ! जसा प्रिय मित्र आपल्या प्रिय तेजस्वी वेदोपदेशक मित्रांची सेवा करून त्याची स्तुती करून त्याला तृप्त करतो तसे सर्व विद्यांचा विस्तार करणाऱ्या वेदवाणीने विमान इत्यादी याने निर्माण करण्याच्या विद्येचा तिच्या गुणांसह निरंतर उपदेश करा. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Speak well with expansive words in detail for full understanding of power and energy to the brilliant scholar of the Vedas like a very very dear friend worth visiting again and again.
Subject of the mantra
Then, how the teacher of this aeronautical science should be, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sarva)=all, (vidyāvid)=connoisseur of knowledge, (vidvan)=scholar! (tvam)=you, (brahmaṇaḥ)=from the teaching and preaching of the Vedas, (patim)=protector,(darśatam)=seem to be, (agnim) having the authority or virtue of teaching the Vedas and, (mitram) =of friend, (na)=like, (jarāyai)=for praise, (tanā)=you are the ones who propagate and spread the light of virtues, (girā)=with its vedic speech, (vimānādiyānavidyām)=aeronautics, (accha)=properly, (ā)=from all sides, (vada)=preach.
English Translation (K.K.V.)
O learned scholar of all knowledge! You appear to be a guardian by teaching and preaching the Vedas. You are the one, who has the capacity of teaching the Vedas and the one, who has the virtues and the one, who propagates the light and expands the virtues for praise like a friend. Preach the knowledge of making and running aircraft et cetera in a proper manner with your Veda-rich speech from all sides.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. O learned men! You people need that as a dear friend satisfies his dear friend, the preacher of the brilliant Vedas, with service and praise of virtues, in the same way, preach continuously speech of Veda, which expands all the knowledge, for the creation of aircraft etc. vehicles and its qualities.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should be the learned persons who teach all this is taught in the thirteenth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned man, well versed in various sciences, you should teach with your Vedic speech that spreads the light of the attributes, this science about the aero planes etc. like a person who protects all by teaching the Vedas, who is worth-seeing (charming in appearance) who is endowed with spiritual splendor and friendly to all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अच्छ) सम्यग्रीत्या = Well. (तना) गुणप्रकाशविस्तारिकया = Spreading the light of the attributes. ( ब्रह्मणस्पतिम्) वेदस्याध्यापनोपदेशेन पालकम् = Protector by teaching the Vedas.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. O learned men, as a dear friend pleases a loving friend who is a preacher of the Vedas and full of splendor by service and praise of his virtues in the same way, you should teach well the science of the manufacture of the aero planes and other vehicles with the Vedic speech for the knowledge of their properties.
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