ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 5
ऋषिः - कण्वो घौरः
देवता - मरूतः
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
मा वो॑ मृ॒गो न यव॑से जरि॒ता भू॒दजो॑ष्यः । प॒था य॒मस्य॑ गा॒दुप॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमा । वः॒ । मृ॒गः । न । यव॑से । ज॒रि॒ता । भू॒त् । अजो॑ष्यः । प॒था । य॒मस्य॑ । गा॒त् । उप॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा वो मृगो न यवसे जरिता भूदजोष्यः । पथा यमस्य गादुप ॥
स्वर रहित पद पाठमा । वः । मृगः । न । यवसे । जरिता । भूत् । अजोष्यः । पथा । यमस्य । गात् । उप॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(मा) निषेधार्थे (वः) एतेषां मरुताम् (मृगः) हरिणः (न) इव (यवसे) भक्षणीये घासे (जरिता) स्तोता जनः (भूत्) भवेत्। अत्र बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेपि# इत्यडभावः*। (अजोष्यः) असेवनीयः (पथा) श्वासप्रश्वासरूपेण मार्गेण (यमस्य) निग्रहीतुर्वायोः (गात्) गच्छेत्। अत्र +लडर्थे लुङडभावश्च। (उप) सामीप्ये ॥५॥ #[अ० ६।४।७५।] *[लिङ् र्थे लुङच।सं०।] +[लिङ् र्थे लुङ्। सं०]
अन्वयः
तत्सम्बंधेन जीवस्य किं भवतीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे राजप्रजाजना यूयं यवसे मृगो नेव वो जरिताऽजोष्यो मा भूत् यमस्य पथा च मोप गादेवं विधत्त ॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा हरिणा निरन्तरं घासं भक्षयित्वा सुखिनो भवन्ति तथा प्राणविद्याविन्मनुष्यो युक्त्याऽऽहारविहारं कृत्वा यमस्य मार्गं मृत्युं नोपगच्छेत् पूर्णमायुर्भुक्त्वा शरीरं सुखेन त्यजेत् ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
उन वायुओं के संबंध से जीव को क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे राजा और प्रजा के जनों ! आप लोग (न) जैसे (मृगः) हिरन (यवसे) खाने योग्य घास खाने के निमित्त प्रवृत्त होता है वैसे (वः) तुम्हारा (जरिता) विद्याओं का दाता (अजोष्यः) असेवनीय अर्थात् पृथक् (मा भूत्) न होवे तथा (यमस्य) निग्रह करनेवाले वायु के (पथा) मार्ग से (मोप गात्) कभी अल्पायु होकर मृत्यु को प्राप्त न होवे, वैसा काम किया करो ॥५॥
भावार्थ
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे हिरन युक्ति से निरन्तर घास खा-कर सुखी होते हैं वैसे प्राण वायु की विद्या को जाननेवाला मनुष्य युक्ति के साथ अहार-विहार कर वायु के ¤मार्ग से अर्थात् मृत्यु को प्राप्त नहीं होता और संपूर्ण अवस्था को भोग के सुख से शरीर को छोड़ता है ¶अर्थात् सदा विद्या पढ़ें पढ़ावें कभी विद्यार्थी और आचार्य वियुक्त न हों और प्रमाद करके अल्पायु में न मर जायें ॥५॥ ¤सं० भा० के अनुसार मार्ग को।सं० ¶इसमें आगे का भाग संस्कृत भाष्य में नहीं है। सं०
विषय
उन वायुओं के संबंध से जीव को क्या होता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे राजप्रजाजना यूयं यवसे मृगः न इव वः जरिता अजोष्यः मा भूत् यमस्य पथा च मा उप गात् एवं विधत्ते ॥५॥
पदार्थ
हे (राजप्रजाजना)= हे राज्य के प्रजाजनों! (यूयम्)=तुम सब, (यवसे) भक्षणीये घासे=खाने योग्य घास में, (मृगः) हरिणः=हिरन, (न) इव=जैसे, (वः) एतेषां मरुताम्=इन प्राण वायुओं को, (जरिता) स्तोता जनः=स्तुति करनेवाले लोग, (अजोष्यः) असेवनीयः=प्रयोग करने योग्य नहीं, (मा) निषेधार्थे=न, (भूत्)=होवें, (यमस्य) निग्रहीतुर्वायोः=वह वायु जो रोकी गई हो, (पथा) श्वासप्रश्वासरूपेण मार्गेण=श्वास प्रश्वासरूपी मार्ग में, (च)=भी, (उप) सामीप्ये=निकटता से, (मा) निषेधार्थे=न, (गात्) गच्छेत्=जाए, (एवम्)= इसी प्रकार से, (विधत्ते)=[श्वास प्रश्वास करने का कार्य] पूर्ण करो ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मंत्र में उपमालङ्कार है। जैसे हिरन युक्ति से निरन्तर घास खा-कर सुखी होते हैं वैसे प्राण वायु की विद्या को जाननेवाला मनुष्य युक्ति के साथ अहार-विहार कर वायु के ¤मार्ग से अर्थात् मृत्यु को प्राप्त नहीं होता और संपूर्ण अवस्था को भोग के सुख से शरीर को छोड़ता है अर्थात् सदा विद्या पढ़ें पढ़ावें कभी विद्यार्थी और आचार्य वियुक्त न हों और प्रमाद करके अल्पायु में न मर जायें ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (राजप्रजाजना) राज्य के प्रजाजनों! (यूयम्) तुम सब (यवसे) खाने योग्य घास में [हिरन जैसे खाता है], (मृगः) हिरन (न) जैसे (वः) इन प्राण वायुओं को (जरिता) स्तुति करनेवाले लोग (अजोष्यः) प्रयोग करने योग्य नहीं (भूत्) होवें। (यमस्य) वह वायु जो रोकी गई हो, (पथा) वह श्वास प्रश्वासरूपी मार्ग में (च) भी (उप) निकटता से (मा) न (गात्) जाए। (एवम्) इसी प्रकार से (विधत्त) [श्वास प्रश्वास को] विभाजित करो ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (मा) निषेधार्थे (वः) एतेषां मरुताम् (मृगः) हरिणः (न) इव (यवसे) भक्षणीये घासे (जरिता) स्तोता जनः (भूत्) भवेत्। अत्र बहुलं छन्दस्यमाङ्योगेपि# इत्यडभावः*। (अजोष्यः) असेवनीयः (पथा) श्वासप्रश्वासरूपेण मार्गेण (यमस्य) निग्रहीतुर्वायोः (गात्) गच्छेत्। अत्र +लडर्थे लुङडभावश्च। (उप) सामीप्ये ॥५॥ #[अ० ६।४।७५।] *[लिङ् र्थे लुङच।सं०।] +[लिङ् र्थे लुङ्। सं०]
विषयः- तत्सम्बंधेन जीवस्य किं भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे राजप्रजाजना यूयं यवसे मृगो नेव वो जरिताऽजोष्यो मा भूत् यमस्य पथा च मोपगादेवं विधत्ते ॥५॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा हरिणा निरन्तरं घासं भक्षयित्वा सुखिनो भवन्ति तथा प्राणविद्याविन्मनुष्यो युक्त्याऽऽहारविहारं कृत्वा यमस्य मार्गं मृत्युं नोपगच्छेत् पूर्णमायुर्भुक्त्वा शरीरं सुखेन त्यजेत् ॥५॥
विषय
कर्तव्य - परायणता
पदार्थ
१. हे प्राणो ! (वः जरिता) - आपका स्तवन करनेवाला, अर्थात् प्राणों की साधना करनेवाला (अजोष्यः) - अपने कर्मों को प्रीतिपूर्वक सेवन न करनेवाला (मा भूत्) - मत हो । प्राणसाधक पुरुष अपने कर्तव्य - कर्मों को इस प्रकार प्रीतिपूर्वक करे (न) - जैसे (मृगः) - एक हरिण (यवसे) - चरी खाने के लिए प्रीतिपूर्वक प्रवृत्त होता है । एवं, प्राणसाधना का यह बड़ा महत्त्वपूर्ण लाभ है कि मनुष्य कर्तव्य - मार्ग का आक्रमण अत्यन्त प्रीतिपूर्वक करता है ।
२. यह प्राणों का स्तोता (यमस्य पथा) - यम के मार्ग से (मा उपगात्) - न जाए, अर्थात् यह असमय में मृत्यु को प्राप्त न हो ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना के दो लाभ हैं - १. कर्तव्य कर्मों में प्रीतिपूर्वक लगे रहना, २. असमय में रोगों से मृत्यु का शिकार न हो जाना ।
विषय
मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।
भावार्थ
(यवसे) घास रहने पर (मृगः न) मृग, तृणचारी पशु जिस प्रकार सदा हृष्ट पुष्ट, और कार्य सेवा में लगने योग्य रहता है और घास आदि न मिलने पर दुर्बल और मरणासन्न तथा भार आदि उठाने के काम का भी नहीं रहता उसी प्रकार हे विद्वानो! वीरो एवं ज्ञानार्थी पुरुषो! (वः) आप लोगों का (जरिता) मार्गोपदेष्टा नायक भी (अजोष्यः) असेव्य अर्थात् सेवा और प्रीति करने और कर्तव्य पालन करने के अयोग्य (मा भूत्) न हो। वह सदा कर्त्तव्यपरायण बना रहे। तुम उसको सदा आहार आदि से सुखी बनाये रक्खो। और वह (यमस्य पथा) नियम, नियन्ता के मार्ग से ही (उपगात्) जावे। अथवा—(यमस्य पथा) वायु या मृत्यु के मार्ग से (मा उपगात्) मत जावे। वह मृत्यु को प्राप्त न हो। इति पञ्चदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे मृग युक्तीने निरंतर तृण खाऊन सुखी होतात तसे प्राणवायूची विद्या जाणणारा माणूस युक्तीने आहारविहार करून यमाचा मार्ग अर्थात मृत्यूला प्राप्त होत नाही व संपूर्ण अवस्था भोगून शरीर सोडून देतो. त्यासाठी सदैव विद्येचे अध्ययन-अध्यापन करावे. विद्यार्थी व आचार्य यांचा परस्पर वियोग होता कामा नये. प्रमाद करून अल्पायुषी होता कामा नये. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
As the deer takes delight in the grass, so should you take delight in learning. May your teacher never be unwelcome to you. May he have full life before he goes by the divine path. May he never go close to the path of the wind prematurely, early in life.
Subject of the mantra
What happens to the living being in relation to those winds, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (rājaprajājanā)=people of the state! (yūyam) =all of you, (yavase)=in edible grass, [hirana jaise khātā hai]= eats like a deer, (mṛgaḥ)=deer, (na)=like, (vaḥ)=to these vital airs, (jaritā)=people who praise, (ajoṣyaḥ)=not usable, (bhūt)=be, (yamasya)=the air that is stopped, (pathā)=that breath in the way of inhalation and exhalation, (ca)=also, (upa)=by closeness, (mā)=not, (gāt)=must go, (evam)=in this way, (vidhatta)=divide, [śvāsa praśvāsa ko]=to breathe.
English Translation (K.K.V.)
O people of the state! Like a deer in edible grass eats the grass, all of the people who praise these vital airs will not be able to be used. The air that has been stopped should not go closely, even in the way of breathing. In the same way divide that breath in the way of inhalation and exhalation.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as a deer becomes happy by eating grass continuously tactfully, similarly a man who knows the science of life and air does not attain death by eating food tactfully and leaves the body with the pleasure of enjoyment for the whole life, that is, always have study knowledge, teach, never get separated from the students and teachers and do not die in a young age due to negligence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What becomes of the Jiva or soul with their (Maruts) association is taught in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O officers and people of the State, as a deer is never indifferent to pasture, so you should conduct yourselves in such a way that your admirer may not deserve censure but, be praiseworthy and practicing Pranayama, may he not go to the Path of Yama (death) soon. ( He may not die pre-maturely).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or simile used in the Mantra. As the deers become happy after eating grass to their fill, in the same manner, the knower of the science of Prana taking proper food and leading a regular life, does not fall in the Jaws of death soon. He should leave body easily without any discomfort, having enjoyed ripe old age (of at least 100 years), ( यवसे) भक्षणीये ग्रासे = On eatable grass or pasture. (अजोष्य:) असेवनीयः = Deserving censure. जुष-प्रीतिसेवनयोः = To love and serve. ( यमस्य ) निग्रहीतुः वायोः = Of the air that controls or catches.
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