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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    वा॒श्रेव॑ वि॒द्युन्मि॑माति व॒त्सं न मा॒ता सि॑षक्ति । यदे॑षां वृ॒ष्टिरस॑र्जि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा॒श्राऽइ॑व । वि॒ऽद्युत् । मि॒मा॒ति॒ । व॒त्सम् । न । मा॒ता । सि॒ष॒क्ति॒ । य॒त् । ए॒षा॒म् । वृ॒ष्टिः । अस॑र्जि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वाश्रेव विद्युन्मिमाति वत्सं न माता सिषक्ति । यदेषां वृष्टिरसर्जि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वाश्राइव । विद्युत् । मिमाति । वत्सम् । न । माता । सिषक्ति । यत् । एषाम् । वृष्टिः । असर्जि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 8
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (वाश्रेव) यथा कामयमाना धेनुः (विद्युत्) स्तनयित्नुः (मिमाति) मिमीते जनयति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (वत्सम्) स्वापत्यम् (न) इव (माता) मान्यप्रदा जननी (सिषक्ति) समेति सेवते वा। सिषक्तु सचत इति सेवमानस्य। निरु० ३।२१। (यत्) या (एषाम्) मरुतां संबन्धेन (वृष्टिः) अन्तरिक्षाञ्जलस्याधःपतनम् (असर्जि) सृज्यते। अत्र लडर्थे लुङ् ॥८॥

    अन्वयः

    एते किंवत्किं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे मनुष्या यूयं यद्येषां विद्युद्वत्सं वाश्रेव मिहं‡ मिमाति कामयमाना माता पयसा पुत्रं सिषक्ति नेव यया वृष्टिरसर्जि सृज्यते तथैव परस्परं शुभगुणवर्षणेन सुखकारका भवत ॥८॥ ‡[ ]

    भावार्थः

    अत्रोपमालंकारौ। यथा स्वस्ववत्सान् सेवितुं कामयमाना धेनवो मातरः स्वपुत्रान् प्रत्युश्चैः शब्दानुच्चार्य धावन्ति तथैव विद्युन्महाशब्दं कुर्वन्ती मेघावयवान्सेवितुं धावति ॥८॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    ये मनुष्य किसके समान क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! आप लोग (यत्) जो (एषाम्) इन वायुओं के योग से उत्पन्न हुई (विद्युत्) बिजुली (वाश्रेव) जैसे गौ अपने (वत्सम्) बछड़े को इच्छा करती हुई सेवन करती है वैसे (मिहम्‡) वृष्टि को (मिमाति) उत्पन्न करती और इच्छा करती हुई (माता) मान्य देनेवाली माता पुत्र का दूध से (सिवक्ति न) जैसे सींचती है वैसे पदार्थों को सेवन करती है जो (वृष्टिः) वर्षा को (असर्जि) करती है वैसे शुभ गुण कर्मों से एक दूसरों के सुख करने हारे हूजिये ॥८॥ ‡मिहम् इत्यस्य पूर्व मन्त्रादनुवृत्तिरायाति। सं०

    भावार्थ

    इस मंत्र में दो उपमालङ्कार है। हे विद्वान् मनुष्यो ! तुम लोगों को उचित है कि जैसे अपने-२ बछड़ों को सेवन करने के लिये इच्छा करती हुई गौ और अपने छोटे बालक को सेवने हारी माता ऊंचे स्वर से शब्द करके उनकी ओर दौड़ती हैं वैसे ही बिजुली बड़े-२ शब्दों को करती हुई मेघ के अवयवों के सेवन करने के लिये दौड़ती है ॥८॥

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    विषय

    ये मनुष्य किसके समान क्या करें, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या यूयं यत् येषां विद्युत् वत्सं वा वाश्रेव मिहं मिमाति कामयमाना माता पयसा पुत्रं सिषक्ति न इव यया वृष्टिः असर्जि सृज्यते तथा एव परस्परं शुभगुणवर्षणेन सुखकारका भवत ॥८॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)=मनुष्यों! (यूयम्)=तुम सब, (यत्) या=जो, (एषाम्) मरुतां संबन्धेन=पवनों के योग द्वारा, (विद्युत्) स्तनयित्नुः=बिजली, (वत्सम्) स्वापत्यम्=अपने पुत्र को, (वा)=अथवा, (वाश्रेव) यथा कामयमाना धेनुः मिहं=जैसे इच्छा करती हुई गाय बछड़े को, (मिमाति)=शब्द करती है,  (कामयमाना)=इच्छा करती हुई,  (माता) मान्यप्रदा जननी=मान्यता देनेवाली माता, (पयसा)=दूध से, (पुत्रम्)=पुत्र को, (सिषक्ति) समेति सेवते वा=उपभोग कराती है, (न) इव=जैसे, (यया)=जिसके द्वारा, (वृष्टिः) अन्तरिक्षाञ्जलस्याधःपतनम्=अन्तरिक्ष का जल  नीचे गिराया जाता है, [और] (असर्जि) सृज्यते=[वर्षा का] निर्माण किया जाता है, (तथा)=वैसे, (एव)=ही, (परस्परम्)=परस्पर, (शुभगुणवर्षणेन)=शुभगुणों की वर्षा,  (सुखकारका)= सुख प्रदान करनेवाली,  (भवत)=होवे॥८॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

     इस मंत्र में दो उपमालङ्कार है। हे विद्वान् मनुष्यो ! तुम लोगों को उचित है कि जैसे अपने-अपने बछड़ों को सेवन करने के लिये इच्छा करती हुई गौ और अपने छोटे बालक को सेवने हारी माता ऊंचे स्वर से शब्द करके उनकी ओर दौड़ती हैं वैसे ही बिजुली बड़े-बड़े शब्दों को करती हुई मेघ के अवयवों के सेवन करने के लिये दौड़ती है ॥८॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्यों! (यूयम्) तुम सब (यत्) जो (एषाम्) पवनों के योग द्वारा (विद्युत्) बिजली [उत्पन्न होती है], (वा) अथवा (वाश्रेव) जैसे इच्छा करती हुई गाय (वत्सम्) अपने बछड़े को [देखते हुए] (मिमाति) शब्द करती है, [वैसे ही] (कामयमाना) इच्छा करती हुई  (माता) मान्यता देनेवाली माता [गाय] (पयसा) दूध का (पुत्रम्) पुत्र को (सिषक्ति) उपभोग कराती है। (न) जैसे (यया) जिसके द्वारा (वृष्टिः) अन्तरिक्ष का जल  नीचे गिराया जाता है [और] (असर्जि) [वर्षा का] निर्माण किया जाता है, (तथा) वैसे (एव) ही (परस्परम्) परस्पर (शुभगुणवर्षणेन) शुभगुणों की वर्षा  (सुखकारका) सुख प्रदान करनेवाली  (भवत) होवे॥८॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वाश्रेव) यथा कामयमाना धेनुः (विद्युत्) स्तनयित्नुः (मिमाति) मिमीते जनयति। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (वत्सम्) स्वापत्यम् (न) इव (माता) मान्यप्रदा जननी (सिषक्ति) समेति सेवते वा। सिषक्तु सचत इति सेवमानस्य। निरु० ३।२१। (यत्) या (एषाम्) मरुतां संबन्धेन (वृष्टिः) अन्तरिक्षाञ्जलस्याधःपतनम् (असर्जि) सृज्यते। अत्र लडर्थे लुङ् ॥८॥ 
    विषयः- एते किंवत्किं कुर्युरित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मनुष्या यूयं यद्येषां विद्युद्वत्सं वाश्रेव मिहं‡ मिमाति कामयमाना माता पयसा पुत्रं सिषक्ति नेव यया वृष्टिरसर्जि सृज्यते तथैव परस्परं शुभगुणवर्षणेन सुखकारका भवत ॥८॥ 

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालंकारौ। यथा स्वस्ववत्सान् सेवितुं कामयमाना धेनवो मातरः स्वपुत्रान् प्रत्युश्चैः शब्दानुच्चार्य धावन्ति तथैव विद्युन्महाशब्दं कुर्वन्ती मेघावयवान्सेवितुं धावति ॥८॥

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    विषय

    वत्सं न माता

    पदार्थ

    १. (यत्) - जब (एषाम्) - इन प्राणों की (वृष्टिः) - गतमन्त्र में वर्णित आनन्द की वर्षा (असर्जि) - उत्पन्न की जाती है अर्थात् प्राणनिरोध होने पर जब हृदय - देश में एक अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है तब (विद्युत्) - अन्तः स्थित प्रभु की विशिष्ट दीप्ति (वाश्रा इव) - शब्द करती हुई गौ के समान (मिमाति) - शब्द करती है, अर्थात् अन्तः स्थित प्रभु की प्रेरणा हमें सुनाई पड़ती है, 
    २. (न) - जैसे (माता वत्सम्) - गौ बछड़े को, उसी प्रकार माता स्तुता मया वरदा वेदमाता' - इस मन्त्र में वर्णित यह वेदरूप माता (वत्सम्) - अपने प्रिय इस प्राणसाधक को (सिषक्ति) - सेवन करती है - प्राप्त होती है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से [क] हृदय में आनन्द की वर्षा होती है, [ख] अन्तः स्थित प्रभु का प्रकाश व प्रेरणा प्राप्त होती है, [ग] वेदमाता इस प्राणसाधक का सेवन करती है, इसे प्राप्त होती है । 
     

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    विषय

    मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (यत्) जब (एषां) इन वायुओं के कारण (वृष्टिः) जलवृष्टि (असर्जि) होती है तब (वाश्रा इव वत्सम्) जिस प्रकार हंभारती हुई गौ अपने बछड़े की तरफ लपकती है और (माता वत्सं न) जिस प्रकार माता प्रेम से दूध झरते पयोधरों से बच्चे को (सिसक्ति) अपने अंग के संग लगा लेती है उसी प्रकार (विद्युत्) बिजली (मिमाति) शब्द करती है, (वत्सं) निवास करने वाले प्रजाजन को (सिषक्ति) प्राप्त होती और वर्षा बरसाती है। उसी प्रकार इन वीरों की जब शर वर्षा होती है तो गौ के समान (विद्युत्) विद्युत् अस्र तोप आदि गरजती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहे. हे विद्वान माणसांनो ! जशा आपल्या वासरांच्या मायेने त्यांच्याकडे धावत येणाऱ्या गाई आपल्या छोट्या वासरासाठी हंबरत येतात तशीच विद्युत, गर्जना करीत मेघाच्या अवयवांचा अंगीकार करण्यासाठी धावते. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as the mother cow hastens to the calf, overflowing with milk, just as the mother suckles her baby, so does the bright blazing lightning, roaring and raining powers of the winds, bless the living beings when the showers released by them fall upon the thirsty earth.

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    Subject of the mantra

    Like whom should these humans work, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=humans! (yūyam)=all of you, (yat)=who, (eṣām)=by the association of the winds, (vidyut) =electricity, [utpanna hotī hai]=is created, (vā)=in other words, (vāśreva)=like a wishing cow, (vatsam)=to its calf, [dekhate hue]=seeing, (mimāti)=utters words, [vaise hī]=in the same way, (kāmayamānā)=desiring, (mātā)=recognizing mother, [gāya]=cow, (payasā)=of milk, (putram)=to the son, (siṣakti) =gets enjoyment, (na)=like, (yayā)=by whom, (vṛṣṭiḥ)=space water is poured down, [aura]=and, (asarji)=is created, [varṣā kā]=of the rain, (tathā+eva)=in the same way, (parasparam)=mutual, (śubhaguṇavarṣaṇena)=rain of good qualities, (sukhakārakā)=providing delights, (bhavata)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! You all who create lightning by the association of the winds, or as a desiring cow utters words, while looking at her calf, in the same way, a recognizing mother while desiring makes her son consume its milk. Just as by which the water of the space is made to fall down and the rain is created, so should the rain of mutual good qualities give happiness.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are two similes as figurative in this mantra. O learned men! It is appropriate for you people that like a cow desiring to nurse her calves and a mother nursing her young child, runs towards them with a loud voice. In the same way, while making big words, lightning runs to use the components of the cloud.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should they (Martus) do and like what is taught in the eighth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As the lightning roars like a mother cow that bellows for her calf and hence the rain is set free by the Maruts (winds), in the same manner, you should uphold and maintain happiness by raining down noble virtues.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वाश्रा) कायमाना धेनुः = Desiring or loving cow. ( सिषक्ति ) समेति-सेवते वा सिषक्तु सचते इति सेवमानस्य (निरु० ३.२१) = Approaches.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the mother cows loving and desiring their calves, loudly bellow and run towards them, in the same way, the lightning goes to the clouds, making a great sound.

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