ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 7
स॒त्यं त्वे॒षा अम॑वन्तो॒ धन्व॑ञ्चि॒दा रु॒द्रिया॑सः । मिहं॑ कृण्वन्त्यवा॒ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्यम् । त्वे॒षाः । अम॑ऽवन्तः । धन्व॑म् । चि॒त् । आ । रु॒द्रिया॑सः । मिह॑म् । कृ॒ण्व॒न्ति॒ । अ॒वा॒ताम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्यं त्वेषा अमवन्तो धन्वञ्चिदा रुद्रियासः । मिहं कृण्वन्त्यवाताम् ॥
स्वर रहित पद पाठसत्यम् । त्वेषाः । अमवन्तः । धन्वम् । चित् । आ । रुद्रियासः । मिहम् । कृण्वन्ति । अवाताम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 7
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(सत्यम्) अविनाशि गमनागमनाख्यं कर्म (त्वेषाः) बाह्याम्यन्तरघर्षणेनोत्पन्नविद्युदग्निना प्रदीप्ताः। (अमवन्तः) अमानां रोगानां गमनागमनबलानां वा संबन्धो विद्यते एषान्ते। अत्र संबंधार्थे मतुम्। अम रोगे। अमगत्यादिषु चेत्यस्माद्हलश्च# इति करणाधिकरणयोर्घञ्। अमन्ति रोगं प्राप्नुवन्ति यद्वाऽमंति गच्छंत्यागच्छन्ति बलयन्ति यैस्तेऽमाः (धन्वन्) धन्वन्यन्तरिक्षे मरुस्थले वा। धन्वेत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। पदना० च। निघं०। ४।२। (चित्) उपमार्थे (आ) अभितः (रुद्रियासः) रुद्राणां जीवानामिमे जीवननिमित्ता रुद्रिया वायवः। तस्येदम् +इति शैषिको घः। आज्जसरेसुग् इत्यसुगागमः (मिहम्) मेहति सिंचति यया तां वृष्टिम् (कृण्वन्ति) कुर्वन्ति (अवाताम्) अविद्यमाना वातो यस्यास्ताम् ॥७॥ #[अ० ३।३।१२१।] +[अ० ४।३।१२०।]
अन्वयः
पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे मनुष्या यूयं धन्वन्नन्तरिक्षे त्वेषा अमवन्तो रुद्रियासो मरुतो वर्त्तन्तेऽवातां मिहं वृष्टिमाकृण्वंति तेषां मरुतां सत्यकर्मास्ति चिदिवानुतिष्ठत ॥७॥
भावार्थः
मनुष्यैर्यथा येन्तरिक्षस्थाःसत्यगुणस्वभावा वायवो वृष्टिहेतवः सन्ति त एव युक्त्या परिचरिता अनुकूला सन्तः सुखयन्ति। अयुक्त्या सेविताः प्रतिकूलाः सन्तश्च दुःखयन्ति तथा युक्त्या धर्माऽनुकूलानि कर्माणि सेव्यानि ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे (धन्वन्) अन्तरिक्ष में (त्वेषाः) बाहर भीतर घिसने से उत्पन्न हुई बिजुली में प्रदीप्त (अमवन्तः) जिन का रोगों और गमनागमन रूप वालों के साथ सम्बन्ध है (रुद्रियासः) प्राणियों के जीने के निमित्त वायु (अवाताम्) हिंसा रहित (मिहम्) सींचनेवाली वृष्टि को (आकृण्वन्ति) अच्छे प्रकार संपादन करते हैं और इन का (सत्यम्) सत्य कर्म है (चित्) वैसे ही सत्य कर्म का अनुष्ठान किया करो ॥७॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि जैसे अन्तरिक्ष में रहने तथा सत्यगुण और स्वभाववाले पवन वृष्टि के हेतु हैं वे ही युक्ति से सेवन किये हुए अनुकूल होकर सुख देते और युक्ति रहित सेवन किये प्रतिकूल होकर दुःखदायक होते हैं वैसे युक्ति से धर्मानुकूल कर्मों का सेवन करें ॥७॥
विषय
फिर वे कैसे हों, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या यूयं धन्वन् अन्तरिक्षे त्वेषा अमवन्तः रुद्रियासः मरुतः वर्त्तन्ते अवातां मिहं वृष्टिम् आकृण्वंति तेषां मरुतां सत्यकर्म अस्ति चित् इव अनुतिष्ठत ॥७॥
पदार्थ
हे (मनुष्या)=मनुष्यों! (यूयम्)=तुम सब, (धन्वन्) धन्वन्यन्तरिक्षे मरुस्थले वा=अन्तरिक्ष या मरुस्थल में, (त्वेषाः) बाह्याम्यन्तरघर्षणेनोत्पन्नविद्युदग्निना प्रदीप्ताः=बाह्य और आन्तरिक घर्षण से उत्पन्न विद्युत् की ऊर्जा से प्रदीप्त, (अमवन्तः) अमानां रोगानां गमनागमनबलानां वा संबन्धो विद्यते एषान्ते=जिन का रोगों और गमनागमन रूप वालों के साथ सम्बन्ध है, (रुद्रियासः) रुद्राणां जीवानामिमे जीवननिमित्ता रुद्रिया वायवः=वे प्राणियों के जीवन के निमित्त वायु, (मरुतः)=वायु, (वर्त्तन्ते)=हैं, (अवाताम्) अविद्यमाना वातो यस्यास्ताम्=जिनमें वायु अविद्यमान हैं, उनमें (मिहम्) मेहति सिंचति यया तां वृष्टिम्=बरसा करती है, (आ) अभितः=हर ओर से, (कृण्वन्ति) कुर्वन्ति=करती हैं, (तेषाम्)=उन, (मरुताम्)=पवनों का, (सत्यकर्म)=[यह] सत्यकर्म, (अस्ति)=है, (चित्) इव=ऐसे ही, (अनुतिष्ठत)=[तुम] निष्पादित करो ॥७॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों को चाहिये कि जैसे अन्तरिक्ष में रहने तथा सत्यगुण और स्वभाववाले पवन वृष्टि के हेतु हैं वे ही युक्ति से सेवन किये हुए अनुकूल होकर सुख देते और युक्ति रहित सेवन किये प्रतिकूल होकर दुःखदायक होते हैं वैसे युक्ति से धर्मानुकूल कर्मों का सेवन करें ॥७॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्या) मनुष्यों! (यूयम्) तुम सब (धन्वन्) अन्तरिक्ष या मरुस्थल में (त्वेषाः) बाह्य और आन्तरिक घर्षण से उत्पन्न विद्युत् की ऊर्जा से प्रदीप्त, (अमवन्तः) जिनका रोगों और गमनागमन रूप वालों के साथ सम्बन्ध है, (रुद्रियासः) वे प्राणियों के जीवन के निमित्त वायु (मरुतः) वायु (वर्त्तन्ते) हैं। (अवाताम्) जिनमें वायु अविद्यमान हैं, उनमें(आ) हर ओर से (मिहम्) वर्षा (कृण्वन्ति) करती हैं। (तेषाम्) उन (मरुताम्) पवनों का (सत्यकर्म) [यह] सत्यकर्म (अस्ति) है, (चित्) ऐसे ही (अनुतिष्ठत) [तुम सत्यकर्मों को] निष्पादित करो ॥७॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सत्यम्) अविनाशि गमनागमनाख्यं कर्म (त्वेषाः) बाह्याम्यन्तरघर्षणेनोत्पन्नविद्युदग्निना प्रदीप्ताः। (अमवन्तः) अमानां रोगानां गमनागमनबलानां वा संबन्धो विद्यते एषान्ते। अत्र संबंधार्थे मतुम्। अम रोगे। अमगत्यादिषु चेत्यस्माद्हलश्च# इति करणाधिकरणयोर्घञ्। अमन्ति रोगं प्राप्नुवन्ति यद्वाऽमंति गच्छंत्यागच्छन्ति बलयन्ति यैस्तेऽमाः (धन्वन्) धन्वन्यन्तरिक्षे मरुस्थले वा। धन्वेत्यन्तरिक्षनामसु पठितम्। निघं० १।३। पदना० च। निघं०। ४।२। (चित्) उपमार्थे (आ) अभितः (रुद्रियासः) रुद्राणां जीवानामिमे जीवननिमित्ता रुद्रिया वायवः। तस्येदम् +इति शैषिको घः। आज्जसरेसुग् इत्यसुगागमः (मिहम्) मेहति सिंचति यया तां वृष्टिम् (कृण्वन्ति) कुर्वन्ति (अवाताम्) अविद्यमाना वातो यस्यास्ताम् ॥७॥ #[अ० ३।३।१२१।] +[अ० ४।३।१२०।]
विषयः- पुनस्ते कीदृशा भवेयुरित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे मनुष्या यूयं धन्वन्नन्तरिक्षे त्वेषा अमवन्तो रुद्रियासो मरुतो वर्त्तन्तेऽवातां मिहं वृष्टिमाकृण्वंति तेषां मरुतां सत्यकर्मास्ति चिदिवानुतिष्ठत ॥७॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्यथा येन्तरिक्षस्थाःसत्यगुणस्वभावा वायवो वृष्टिहेतवः सन्ति त एव युक्त्या परिचरिता अनुकूला सन्तः सुखयन्ति। अयुक्त्या सेविताः प्रतिकूलाः सन्तश्च दुःखयन्ति तथा युक्त्या धर्माऽनुकूलानि कर्माणि सेव्यानि ॥७॥
विषय
अवाता वृष्टि
पदार्थ
१. प्राण (सत्यम्) - सचमुच (त्वेषाः) - दीप्तिवाले बनते हैं । प्राणसाधना से बुद्धि तीव्र होकर हमें ज्ञान से दीप्त बनाती है ।
२. ये प्राण (अमवन्तः) - बलवाले हैं । प्राणसाधना से वीर्य की ऊर्ध्वगति होकर शरीर में शक्ति स्थिर रहती है ।
३. (धन्वन् चित्) - [प्रणवो धनुः] प्रणवरूप धनुष के होने पर ये प्राण (रुद्रियासः) - वासनाओं को रुलानेवाले हैं, अर्थात् प्राणसाधना होने पर प्रभु की ओर झुकाव होता ही है, उस प्रभु का नाम 'ओम्' हमारा धनुष बनता है और इस धनुष से हम कामादि वासनाओं का विनाश करनेवाले बनते हैं ।
४. ये प्राण "प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः" - इन शब्दों के अनुसार गतिरोध होने पर (अवाताम्) - बिना वायुवाली (मिहं कृण्वन्ति) - वर्षा करते हैं । प्राणनिरोध होने पर अन्तः करण में एक अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है । यही 'अवाता वृष्टि' है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणसाधना से 'ज्ञानदीप्त, बल, आनन्द की वृष्टि' प्राप्त होती है । ओम् को धनुष बनाकर हम काम - क्रोधादि शत्रुओं का नाश कर पाते हैं ।
विषय
मरुद्-गणों, वीरों, विद्वानों वैश्यों और प्राणों का वर्णन ।
भावार्थ
(त्वेषाः) विद्युत् की दीप्ति से युक्त, (अमवन्तः) बलवान् तीव्र गति वाले (रुद्रियासः) जीवों के सुखप्रद, जीवनाधार होकर जिस प्रकार वायुगण (धन्वन् चित्) अन्तरिक्ष या मरु भूमि में भी (अवाताम् ) वायु से रहित अविचल, मूसलाधार (मिहम्) वृष्टि (कृण्वन्ति) करते हैं उसी प्रकार (सत्यम्) सचमुच ये (त्वेषाः) अति तेजस्वी, प्रतापी, (अभवन्तः) बलवान्, ज्ञानी, (रुद्रियासः) शत्रुओं को रुलाने वाले वीर सेनापति के सैनिक गण (धन्वन् चित्) धनुष के बल पर ही (अवाताम्) वायु को भी बीच में से अवकाश न देने वाली अथवा वायु से भी बढ़ कर (मिहं) शर वर्षा को (कृण्वन्ति) करें। इसी प्रकार (रुद्रियासः) जीव के ये प्राण भी बलवान् दीप्तियुक्त रहकर हृदय देश में विना वायु के आनन्द-रस की वर्षा करते हैं। और तेजस्वी ज्ञानी पुरुष ज्ञानवर्षा करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१– १५ कण्वो घौर ऋषिः । मरुतो देवताः ।। छन्द:—१, ८, ११, १३, १४, १५, ४ गायत्री २, ६, ७, ९, १० निचृद्गायत्री । ३ पादनिचृद्गायत्री । ५ १२ पिपीलिकामध्या निचृत् । १४ यवमध्या विराड् गायत्री । पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जसे अंतरिक्षात राहणारे सत्यगुण (अविनाशी गमनागमन) स्वभावाचे वायू वृष्टीचे हेतू आहेत. युक्तीने स्वीकारल्यास तेच अनुकूल बनून सुख देतात व युक्तिरहित अंगीकार केल्यास प्रतिकूल बनून दुःखदायक ठरतात. तसे युक्तीने माणसांनी धर्मानुकूल कर्मांचे सेवन करावे. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The bright and blazing lightning winds, strong and impetuous in the sky, sustained benefactors of living life, cause ceaseless showers of rain on the thirsty earth. And that is truly the divine work of nature (which the human beings should emulate).
Subject of the mantra
Then, how they should be, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyā)=humans! (yūyam)=all of you, (dhanvan)=in space or desert, (tveṣāḥ)=Illuminated by the energy of electricity produced by external and internal friction, (amavantaḥ) Those who are associated with diseases and transitory forms, (rudriyāsaḥ)=air for life, (marutaḥ)=airs, (varttante)=are, (avātām)=in which air is absent, (ā)=from all sides, (miham)=rain, (kṛṇvanti)=make, (teṣām)=those, (marutām)=of airs, (satyakarma)=trutful deed, [yaha]=this, (asti)=is, (cit) =in the same way, (anutiṣṭhata)=execute, [tuma satyakarmoṃ ko] =you to truthful deeds.
English Translation (K.K.V.)
O humans! All of you, illuminated by the energy of electricity arising from external and internal friction in the space or desert. Those who are associated with diseases and those with moving forms, are the airs for the life of the living beings. In which air is absent, it rains from all sides. This is the truthful deed of those airs, similarly you should perform the truthful deeds.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Human beings should be like the air that resides in the space and has good qualities and nature is the cause of rain. They are favourable when used wisely and give happiness and when used without tact they are unfavourable and cause sorrow. In the same way, perform righteous deeds.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should truly behave like the winds in the firmament that are powerful and kindled with electricity caused by internal and external rubbing, giving life to the soul and causing no withered day or rains over even the desert.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( त्वेषाः ) बाह्याभ्यन्तरघर्षणेनोत्पन्ना विद्युदग्निना प्रदीप्ताः । = Kindled by electricity and caused by external and internal rubbing. ( अमवन्तः ) अमानां रोगाणां गमनागमनबलानां वा सम्वन्धो विद्यते येषां ते । अत्र सम्बन्धार्थे मतुप् । अमरोगे । अम गत्यादिषु च इत्यस्माद् हलादेश्च इति करणाधिकरणयोः घञ् अमन्ति रोगं प्राप्नुवन्ति यद् वा अमन्ति गच्छन्त्यागच्छन्ति बलयन्ति यैः ते । = Causing disease when taken in impurely. ( धन्वन् ) धन्वनि-अन्तरिक्षे मरुस्थले वा धन्वेत्यन्तरिक्षनामसु पठितम् ( निघ० १.३ ) पद नामसु च ( निघ० ४.२ ) | = In the middle regions or desert ( रुद्रियास: ) रुद्राणां जीवानाम् इमे जीवननिमित्तारुद्रिया वायवः = Airs beneficials for the souls. (मिहम् ) मेहति सिंचति यथा तां वृष्टिम् = Rain.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should perform all righteous deeds with proper use of winds that are in the firmament, causing rains and possessing some true characteristics. When suitably used, they give happiness, but when used improperly, they become adverse and cause misery, therefore men should perform all righteous acts methodically.
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