ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 45/ मन्त्र 10
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निर्देवाः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
अ॒र्वाञ्चं॒ दैव्यं॒ जन॒मग्ने॒ यक्ष्व॒ सहू॑तिभिः । अ॒यं सोमः॑ सुदानव॒स्तं पा॑त ति॒रोअ॑ह्न्यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्वाञ्च॑म् । दैव्य॑म् । जन॑म् । अग्ने॑ । यक्ष्व॑ । सहू॑तिऽभिः । अ॒यम् । सोमः॑ । सु॒ऽदा॒न॒वः॒ । तम् । पा॒त॒ । ति॒रःऽअ॑ह्न्यम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्वाञ्चं दैव्यं जनमग्ने यक्ष्व सहूतिभिः । अयं सोमः सुदानवस्तं पात तिरोअह्न्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठअर्वाञ्चम् । दैव्यम् । जनम् । अग्ने । यक्ष्व । सहूतिभिः । अयम् । सोमः । सुदानवः । तम् । पात । तिरःअह्न्यम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 45; मन्त्र » 10
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(अर्वाश्चम्) योऽर्वतो वेगादिगुणानश्वानंचति प्राप्नोति तम् (दैव्यम्) दिव्यगुणेष भवम् (जनम्) पुरुषार्थेषु प्रादुर्भूतम् (अग्ने) विद्वन् (यक्ष्व) संगच्छस्व (सहूतिभिः) समाना हूतयः। आह्वानानि च सहूतयस्ताभिः (अयम्) प्रत्यक्षः (सोमः) विद्यैश्वर्ययुक्तः (सुदानवः) शोभनानि दानानि येषां विदुषां तत्सम्बुद्धौ (तम्) (पात) रक्षत (तिरोअह्न्यम्) अहनि भवमह्न्यम्। तिरस्कृतमाच्छादितमह्न्यम् येन तम्। अत्र प्रकृत्यान्तः पादमव्यपरे। इति प्रकृतिभावः ॥१०॥
अन्वयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
पदार्थः
हे सुदानवो विद्वांसो ! यूयं सहूतिभिस्तमर्वाञ्चं दैव्यं तिरोअह्न्यं जनं पात यथायं सोमः सत्कार्य्यस्ति तथा त्वमप्येतान्यक्ष्व सत्कुरु ॥१०॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वदा सज्जनानाहूय सत्कृत्य सर्वेषां पदार्थानां विज्ञानं शोधनं तेभ्य उपकारग्रहणं च कार्य्यमुत्तरोत्तरमेतद्विज्ञायैतद्विद्याप्रचारश्च कार्य्यः ॥१०॥ अस्मिन्सूक्ते वसुरुद्रादित्यानां प्रमाणादिचोक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्। इति ४५ सूक्तम् वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर भी उसी विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (सुदानवः) उत्तम दान शील विद्वान् लोगो ! आप (सहूतिभिः) तुल्यआह्वान युक्त क्रियाओं से (अर्वाञ्चम्) वेगादि गुण वाले घोड़ों को प्राप्त करने वा कराने (दैव्यम्) दिव्य गुणों में प्रवृत्त (तिरोअह्न्यम्) चोर आदि का तिरस्कार करनेहारे दिन में प्रसिद्ध (जनम्) पुरुषार्थ में प्रकट हुए मनुष्य की (पात) रक्षा कीजिये और जैसे (अयम्) यह (सोमः) पदार्थों के समूह सबके सत्कारार्थ है तथा (तम्) उसको तू भी (यक्ष्व) सत्कार में संयुक्त कर ॥१०॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि सर्वदा सज्जनों को बुला सत्कार कर सब पदार्थों को विज्ञान शोधन और उनसे उपकार ले और उत्तरोत्तर इसको जानकर इस विद्या का प्रचार किया करें ॥१०॥ इस सूक्त में वसु, रुद्र और आदित्यों की गति तथा प्रमाण आदि कहा है इससे इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥४५॥ यह ४५ सूक्त और ३२ का वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
देव - सङ्ग
पदार्थ
१. हे (अग्ने) - परमात्मन् ! आप कृपा करके (अर्वाञ्चम्) - [अर्वाग् अञ्चति] अन्तर्मुख यात्रावाले, बाह्य विषयों की और न जानेवाले (दैव्यं जनम्) - देववृत्ति के लोगो को (सहूतिभिः) - समान पुकारों से (यक्ष्व) - संगत कीजिए, अर्थात् आपकी कृपा से हमारे साथ अन्तर्मुख वृत्तिवाले देव लोगों का सम्पर्क हो और उन सब देववृत्ति के लोगों की एक ही पुकार व आराधना हो कि
२. हे (सुदानवः) - उत्तम दानशील पुरुषो ! उत्तमता से वासनाओं को विनष्ट करनेवाले [दा लवणे] पुरुषो ! इस प्रकार जीवन का सुन्दर शोधन [दैप् शोधने] करनेवालो ! (अयं सोमः) - यह सोम है - प्रभु की व्यवस्था के द्वारा तुम्हारे शरीरों में रसादि के क्रम से इसका उत्पादन हुआ है । (तम्) - उस सोम को (पात) - शरीर में ही इस प्रकार सुरक्षित करो कि (तिरः) - शरीर में ही अन्तर्हित हो जाए । (अह्न्यम्) - [अह व्याप्तौ] रुधिर में ही इस प्रकार व्याप्त हो जाए जैसेकि दही में घृत अथवा तिलों में तेल व्याप्त होता है ।
३. वस्तुतः वासना की उष्णता ही सोम को रुधिर से पृथक् करती है । उसके अभाव में सोम शरीर में सुरक्षित रहेगा ही । इस वासना - विनाश के लिए आवश्यक है कि हमें सदा उत्तम पुरुषों का सङ्ग प्राप्त होता रहे, जिनसे हमें सदा 'सोमपान' की प्रेरणा प्राप्त होती रहे । यह सोमपान ही हमें उस 'सोम' प्रभु का दर्शन कराएगा ।
भावार्थ
भावार्थ - हमें सदा देवपुरुषों का सम्पर्क प्राप्त हो और हम सत्प्रेरणा को प्राप्त होते हुए वासनाओं से दूर रहकर सोमपान - क्षम बनें ।
विशेष / सूचना
विशेष—इस सूक्त का आरम्भ इस प्रकार हुआ है कि हमें 'वसु, रुद्र व आदित्यों' का सम्पर्क प्राप्त हो [१] । देवों के सम्पर्क में आकर हम भी देव बनें [२] । हम 'प्रियमेध, अत्रि, विरूप व अङ्गिरस्' हों [३] । हम यज्ञ करें, प्रभु हमारे यज्ञों के रक्षक हों [४] । वेदज्ञान के अनुसार हम अनुष्ठान करें और प्रभु से 'अन्न, धन, यश व रक्षण' प्राप्त करें [५] । प्रभु ही हमें सब हव्य पदार्थों के देनेवाले हैं [६] । ज्ञान - यज्ञों के द्वारा हम उस प्रभु का उपासन करें [७] । सुतसोम आचार्यों का सम्पर्क हमें प्राप्त हो [८] । हम प्रातः उठे और यज्ञों में प्रवृत्त हो जाएँ [९] । देवपुरुषों के सम्पर्क, सत्प्रेरणा को प्राप्त होते हुए सोमरक्षण के लिए यत्नशील हों [१०] । प्रातः प्रबुद्ध होकर प्राणसाधना के लिए सन्नद्ध हों -
विषय
प्रमुख विद्वान् और अग्रणी नायक सेनापति के कर्तव्य । (
भावार्थ
हे (सुदानवः) उत्तम ऐश्वर्यों के देनेहारे, दानशील पुरुषो! एवं विद्वान्, ज्ञान के दाता पुरुषो! (अयम्) यह (सोमः) ज्ञान का पिपासु, दीक्षा को प्राप्त शिष्य है। (तिरः अह्नयम्) एक दिन के उपवास व्रत कर चुकने के अनन्तर प्राप्त हुए (तम्) उसको (पात) तुम पालन करो, अपने भीतर ले लो। हे (अग्ने) विद्वन्! तू (अर्वाञ्चम्) अपने अभिमुख आये हुए (दैव्यं) विद्वानों के हितकारी (जनम्) जनको (हूतिभिः) समानरूप से आदरपूर्वक सम्बोधन वचनों द्वारा (यक्ष्व) अपने साथ मिला लो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ १—१० अग्निर्देवा देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिगुष्णिक् । ५ उष्णिक् । २, ३, ७, ८ अनुष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप् । ६, ९,१० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ।
विषय
फिर भी उसी विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सुदानवः विद्वांसः ! यूयं सहूतिभिः तम् अर्वाञ्चं दैव्यं तिरः अह्न्यं जनं पात यथा अयं सोमः सत्कारी अस्ति तथा त्वम् अपि एतान् यक्ष्व सत्कुरु ॥१०॥
पदार्थ
हे (सुदानवः) शोभनानि दानानि येषां विदुषां तत्सम्बुद्धौ= उत्तम दान शील, (विद्वांसः)= विद्वान् लोगों ! (यूयम्)=तुम सब, (सहूतिभिः) समाना हूतयः। आह्वानानि च सहूतयस्ताभिः= समान आह्वान युक्त क्रियाओं से, (तम्)=उसको, (अर्वाञ्चम्) योऽर्वतो वेगादिगुणानश्वानंचति प्राप्नोति तम् दैव्यम्= जो वेगादि गुण वाले घोड़ों को प्राप्त करता है, उस देव को, (तिरोअह्न्यम्) अहनि भवमह्न्यम्। तिरस्कृतमाच्छादितमह्न्यम् येन तम्= दिन में होनेवाले कार्यों का तिरस्कार कर जिसने आच्छादित कर दिया है, उस, (जनम्) पुरुषार्थेषु प्रादुर्भूतम्= पुरुषार्थ में प्रकट हुए मनुष्य की, (पात) रक्षत= रक्षा कीजिये, (यथा)=जैसे, (अयम्) प्रत्यक्षः= यह प्रत्यक्ष, (सोमः) विद्यैश्वर्ययुक्तः= विद्या और ऐश्वर्य युक्त, (सत्कारी)=सत्कारी, (अस्ति)=है। (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=तुम, (अपि)=भी, (एतान्)=इनके, (यक्ष्व) संगच्छस्व=साथ मिलकर चलो, (सत्कुरु)=इनका सत्कार करो ॥१०॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा पदार्थों का विश्ष ज्ञान, शोधन और उनसे उपकार लेने के कार्य के बाद बार-बार इसको जानकर, इस विद्या का प्रचार करना चाहिए ॥१०॥
विशेष
सूक्त के महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में वसु, रुद्र और आदित्यों की गति तथा प्रमाण आदि कहा है, इससे इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥१०॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सुदानवः) उत्तम दानशील [और] (विद्वांसः) विद्वान् लोगों ! (यूयम्) तुम सब (सहूतिभिः) समान आह्वान युक्त क्रियाओं से, (तम्) उसको (अर्वाञ्चम्) जो वेगादि गुण वाले घोड़ों को प्राप्त करता है, उस देव को (तिरोअह्न्यम्) दिन में होनेवाले कार्यों का जिसने तिरस्कार कर दिन को आच्छादित कर दिया है, उस (जनम्) पुरुषार्थ में प्रकट हुए मनुष्य की (पात) रक्षा कीजिये। (यथा) जैसे (अयम्) यह प्रत्यक्ष (सोमः) विद्या और ऐश्वर्य युक्त (सत्कारी) सत्कारी (अस्ति) है। (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (अपि) भी (एतान्) इनके (यक्ष्व) साथ मिलकर चलो [और] (सत्कुरु) इनका सत्कार करो ॥१०॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (अर्वाश्चम्) योऽर्वतो वेगादिगुणानश्वानंचति प्राप्नोति तम् (दैव्यम्) दिव्यगुणेष भवम् (जनम्) पुरुषार्थेषु प्रादुर्भूतम् (अग्ने) विद्वन् (यक्ष्व) संगच्छस्व (सहूतिभिः) समाना हूतयः। आह्वानानि च सहूतयस्ताभिः (अयम्) प्रत्यक्षः (सोमः) विद्यैश्वर्ययुक्तः (सुदानवः) शोभनानि दानानि येषां विदुषां तत्सम्बुद्धौ (तम्) (पात) रक्षत (तिरोअह्न्यम्) अहनि भवमह्न्यम्। तिरस्कृतमाच्छादितमह्न्यम् येन तम्। अत्र प्रकृत्यान्तः पादमव्यपरे। इति प्रकृतिभावः ॥१०॥ विषयः- पुनस्तमेव विषयमाह। अन्वयः- हे सुदानवो विद्वांसो ! यूयं सहूतिभिस्तमर्वाञ्चं दैव्यं तिरोअह्न्यं जनं पात यथायं सोमः सत्कार्य्यस्ति तथा त्वमप्येतान्यक्ष्व सत्कुरु ॥१०॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सर्वदा सज्जनानाहूय सत्कृत्य सर्वेषां पदार्थानां विज्ञानं शोधनं तेभ्य उपकारग्रहणं च कार्य्यमुत्तरोत्तरमेतद्विज्ञायैतद्विद्याप्रचारश्च कार्य्यः ॥१०॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिन्सूक्ते वसुरुद्रादित्यानां प्रमाणादिचोक्तमत एतत्सूक्तार्थस्य पूर्वसूक्तोक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम्।
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी नेहमी सज्जनांना आमंत्रित करून सत्कार करावा. सर्व पदार्थांचे विज्ञानाने संशोधन करावे व त्यांचा उपयोग करून घ्यावा. उत्तरोत्तर हे जाणून या विद्येचा प्रचार करावा. ॥ १० ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, fiery genius of yajna, welcome the lovers of divinity come up for the yajaka and conduct the yajna with joint invocations and libations into the holy fire. Generous creators of wealth and honour, this is the soma of delight and beauty earlier distilled in the day. Protect it, promote it and enjoy it.
Subject of the mantra
Still the same subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sudānavaḥ)=best philanthropist, [aura]=and, (vidvāṃsaḥ) =scholars, (yūyam)=all of you, (sahūtibhiḥ) =with similar invocative actions, (tam)=to that, (arvāñcam)=which is obtained by the speedily horses of etc. quality, to the deity, (tiroahnyam)=who has covered the day by disdaining the activities of the day, (janam)of man manifested in the efforts, (pāta) =protect, (yathā) =as, (ayam) =this evident, (somaḥ)=full of wisdom and glory, (satkārī)=hospitable, (asti) =is, (tathā) =in the same way, (tvam) =you, (api) =also, (etān)=of thses, (yakṣva)=walk together, [aura]=and, (satkuru)= respect them.
English Translation (K.K.V.)
O best charitable and learned people! All of you protect the man who has appeared with efforts, by all similar invocative actions, the one who gets the horses of speed etc. qualities, the deity who has covered the day by disdaining the work done during the day. In the same way, you also walk together with them and respect them.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
After the work of special knowledge of the substances by humans, purification and taking benefit from them, this knowledge should be propagated again and again after knowing it. In this hymn, by the speed and evidence of Vasu, Rudra and Adityas etc. have been said, from this the interpretation of this hymn should be understood to be consistent with the interpretation of the previous hymn.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O bounteous learned persons, with conjoint invocations or invitations, protect that man who has speedy horses, is possessed of divine virtues, is industrious in discharging his duties faithfully. You should honor such persons like a man endowed with the wealth of knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( सोमः ) विद्यैश्वर्ययुक्तः = Endowed with the great wealth of knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always invite good people, honor them, acquire from them the knowledge of all things, purify and derive proper benefit from them and spread that knowledge.
Translator's Notes
( सोमः) षु-प्रसवैश्वर्ययोः अत्र ऐश्वर्यार्थ: This hymn is connected with the previous hymn as there is mention of the attainments of the Vasus, Rudras and Adityas in it as in that. Here ends the commentary on the forty-fifth hymn and thirty-second Verga of the first Mandala of the Rigveda Sanhita.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Rakesh Poddar
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal