Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 45 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 45/ मन्त्र 7
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निर्देवाः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    नि त्वा॒ होता॑रमृ॒त्विजं॑ दधि॒रे व॑सु॒वित्त॑मम् । श्रुत्क॑र्णं स॒प्रथ॑स्तमं॒ विप्रा॑ अग्ने॒ दिवि॑ष्टिषु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । त्वा॒ । होता॑रम् । ऋ॒त्विज॑म् । द॒धि॒रे । व॒सु॒वित्ऽत॑मम् । श्रुत्ऽक॑र्णम् । स॒प्रथः॑ऽतमम् । विप्राः॑ । अ॒ग्ने॒ । दिवि॑ष्टिषु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि त्वा होतारमृत्विजं दधिरे वसुवित्तमम् । श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं विप्रा अग्ने दिविष्टिषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि । त्वा । होतारम् । ऋत्विजम् । दधिरे । वसुवित्तमम् । श्रुत्कर्णम् । सप्रथःतमम् । विप्राः । अग्ने । दिविष्टिषु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 45; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (नि) निश्चयार्थे (त्वा) त्वाम् (होतारम्) ग्रहीतारम् (ऋत्विजम्) ऋतून् यजति संगच्छते यस्तम् (दधिरे) दधीरन्। अत्र लिङर्थे लिट्। (वसुवित्तमम्) यो वसूनि विदंति स वसुवित् सोऽतिशयितस्तम् (श्रुत्कर्णम्) यः सकलाविद्याः शृणोति तम् (सप्रथस्तमं) यः प्रथेन विद्याविस्तरेण सह वर्त्तते सोऽतिशयितस्तम् (विप्राः) मेधाविनः (अग्ने) बहुश्रुत सज्जन (दिविष्टिषु) दिवो दिव्या इष्टयो येषु पठनपाठनाख्येषु यज्ञेषु तेषु ॥७॥

    अन्वयः

    पुनस्तं कथंभूतं विदित्वा धरेयुरित्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे अग्ने मेधाविनो विप्रा विद्वांसो दिविष्टिष्वग्निमिव होतारमृत्विजं श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं वसुवित्तमं त्वा निदधिरे तांस्त्वमपि निधेहि ॥७॥

    भावार्थः

    ये मनुष्या विद्याप्रचाराद्युत्तमकार्य्यसिद्धये प्रयतन्ते चक्रवर्त्तिराज्यश्रीर्विद्याधनं साद्धुं च शक्नुवन्ति ते शोकं नोपलभन्ते ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उस को किस प्रकार जानकर धारण करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) बहुश्रुत सत्पुरुष ! जो (विप्राः) मेधावी विद्वान् लोग (दिविष्टिषु) पवित्र पठन पाठनरूप क्रियाओं में अग्नि के तुल्य जिस (होतारम्) ग्रहण कारक (ऋत्विजम्) ऋतुओं को संगत करने (श्रुत्कर्णम्) सब विद्याओं को सुनने (सप्रथस्तमम्) अत्यन्त विस्तार के साथ वर्त्तने (वसुवित्तमम्) पदार्थों को ठीक-२ जाननेवाले (त्वा) तुझको (निदधिरे) धारण करते हैं उनको तू भी धारण कर ॥७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य उत्तम कार्य सिद्धि के लिये प्रयत्न करते और चक्रवर्त्ती राज्य श्री और विद्याधन की सिद्धि करने को समर्थ हो सकते हैं वे शोक को प्राप्त नहीं होते ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ज्ञानयज्ञ द्वारा उपासना

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - अग्रणी प्रभो ! (विप्राः) - विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले ज्ञानी लोग (दिविष्टषु) - ज्ञानयज्ञों में (त्वा) - आपको (निदधिरे) - निश्चय से धारण करते हैं । प्रभु का उपासन विप्रलोग करते हैं यह उपासन ज्ञानयज्ञों में चलता है । (दिव्) - प्रकाश, (इष्टि) - यज्ञ । इस प्रकार ज्ञानयज्ञों में प्रभु का उपासन चलता है । 
    २. उस प्रभु को जोकि [क] (होतारम्) - सब उत्तम पदार्थों के देनेवाले हैं, सृष्टियज्ञ के होता हैं । [ख] (ऋत्विजम्) - ऋतु - ऋतु में, प्रत्येक समय उपासना के योग्य हैं । [ग] (वसुवित्तमम्) - सब उत्तम वसुओं के प्राप्त करानेवालों में सर्वाधिक हैं । वस्तुतः वे प्रभु ही निवास के लिए आवश्यक सब धनों को देते हैं । [घ] (श्रुत्कर्णम्) - हमारी प्रार्थनाओं को सुननेवाले हैं और हमारे कष्टों व पापों को विकीर्ण करनेवाले हैं । [ङ] (सप्रथस्ततम्) - अधिक - से - अधिक विस्तारवाले हैं अथवा अत्यन्त विस्तृत यशवाले हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञानी पुरुष ज्ञानयज्ञों में उस प्रभु का उपासन करते हैं जो 'होता, ऋत्विज्, वसुवित्तम, श्रुत्कर्ण व सप्रथस्तम' हैं । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रमुख विद्वान् और अग्रणी नायक सेनापति के कर्तव्य । (

    भावार्थ

    हे (अग्ने) प्रतापिन्! ज्ञानवन्! प्रभो! (दिविष्टिषु) यज्ञों में जिस प्रकार अग्नि का आधान करते हैं उसी प्रकार (होतारम्) उत्तम ज्ञानों, ऐश्वर्यों और सुखों के देने वाले (ऋत्विजम्) प्रति ऋतु में यज्ञ करने वाले, एवं राजसभा के सदस्यों को एकत्र करने वाले (वसुवित्तमम्) सब से अधिक ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले, (श्रुत्कर्णंम्) समस्त विद्याओं और प्रजा के कष्टों को श्रवण करनेवाले, (सप्रथस्तमम्) अति विस्तृत ज्ञान और विद्या से युक्त (त्वा) तुझ विद्वान् और शक्तिमान् को (दिविष्टिषु) सभी उत्तम ज्ञानों और कामनाओं को प्राप्त करने के लिये (नि दधिरे) कोष के समान सुरक्षित रूप से रखते और स्थापित करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ १—१० अग्निर्देवा देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिगुष्णिक् । ५ उष्णिक् । २, ३, ७, ८ अनुष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप् । ६, ९,१० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर उस विद्वान् को किस प्रकार जानकर धारण करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने मेधाविनः विप्रा विद्वांसः दिविष्टिषु अग्निम् इव होतारम् ऋत्विजम् श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं वसुवित्तमं त्वा नि दधिरे तान् त्वम् अपि नि धेहि ॥७॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) बहुश्रुत सज्जन= बहुश्रुत सज्जन, (विप्राः) मेधाविनः= मेधावी, (दिविष्टिषु) दिवो दिव्या इष्टयो येषु पठनपाठनाख्येषु यज्ञेषु तेषु= दिव्य यज्ञों में और पठन-पाठन नाम के कार्यों में, (अग्निम्)= अग्नि के, (इव)= तुल्य, (होतारम्) ग्रहीतारम्= ग्रहण करनेवाला, (ऋत्विजम्) ऋतून् यजति संगच्छते यस्तम्= ऋतुओं में यज्ञ और संगतिकरण करनेवाला, (श्रुत्कर्णम्) यः सकलाविद्याः शृणोति तम्= सब विद्याओं को सुननेवाला, (सप्रथस्तमं) यः प्रथेन विद्याविस्तरेण सह वर्त्तते सोऽतिशयितस्तम्= विद्या के अत्यन्त विस्तार के साथ व्यवहार करनेवाले, (वसुवित्तमम्) यो वसूनि विदंति स वसुवित् सोऽतिशयितस्तम्= पदार्थों को अत्यन्त विस्तार के साथ ठीक- ठीक जाननेवाले, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (नि) निश्चयार्थे= निश्चय से ही, (दधिरे) दधीरन्=धारण करते हैं, (तान्)=उनको, (त्वम्) =तुम, (अपि)=भी, (नि) निश्चयार्थे= निश्चय से, (धेहि)=धारण करो ॥७॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो मनुष्य उत्तम कार्य सिद्धि के लिये प्रयत्न करते हैं और चक्रवर्त्ती राज्य, श्री और विद्याधन की सिद्धि कर सकते हैं, वे शोक को प्राप्त नहीं करते हैं ॥७॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- श्री-भाग्य, समृद्धि, सफलता, संपन्नता को श्री कहते हैं।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) बहुश्रुत सज्जन पुरुष! [तुम] (विप्राः) मेधावी [और] (दिविष्टिषु) दिव्य यज्ञों में और पठन-पाठन नाम के कार्यों में, (अग्निम्) अग्नि के (इव) समान [और] (होतारम्) ग्रहण करनेवाले, (ऋत्विजम्) ऋतुओं में यज्ञ और संगतिकरण करनेवाले, (श्रुत्कर्णम्) सब विद्याओं को सुननेवाले, (सप्रथस्तमं) विद्या के अत्यन्त विस्तार के साथ व्यवहार करनेवाले, (वसुवित्तमम्) पदार्थों को अत्यन्त विस्तार के साथ ठीक- ठीक जाननेवाले हो। [हम] (त्वा) तुमको अर्थात् तुम्हारी विद्या आदि गुणों को (नि) निश्चित रूप से (दधिरे) धारण करते हैं। (तान्) उनको (त्वम्) तुम (अपि) भी (नि) निश्चित रूप से (धेहि) धारण करो ॥७॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (नि) निश्चयार्थे (त्वा) त्वाम् (होतारम्) ग्रहीतारम् (ऋत्विजम्) ऋतून् यजति संगच्छते यस्तम् (दधिरे) दधीरन्। अत्र लिङर्थे लिट्। (वसुवित्तमम्) यो वसूनि विदंति स वसुवित् सोऽतिशयितस्तम् (श्रुत्कर्णम्) यः सकलाविद्याः शृणोति तम् (सप्रथस्तमं) यः प्रथेन विद्याविस्तरेण सह वर्त्तते सोऽतिशयितस्तम् (विप्राः) मेधाविनः (अग्ने) बहुश्रुत सज्जन (दिविष्टिषु) दिवो दिव्या इष्टयो येषु पठनपाठनाख्येषु यज्ञेषु तेषु ॥७॥ विषयः - पुनस्तं कथंभूतं विदित्वा धरेयुरित्युपदिश्यते। अन्वयः - हे अग्ने मेधाविनो विप्रा विद्वांसो दिविष्टिष्वग्निमिव होतारमृत्विजं श्रुत्कर्णं सप्रथस्तमं वसुवित्तमं त्वा निदधिरे तांस्त्वमपि निधेहि ॥७॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये मनुष्या विद्याप्रचाराद्युत्तमकार्य्यसिद्धये प्रयतन्ते चक्रवर्त्तिराज्यश्रीर्विद्याधनं साद्धुं च शक्नुवन्ति ते शोकं नोपलभन्ते ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे उत्तम कार्यसिद्धीसाठी प्रयत्न करतात व चक्रवर्ती राज्य श्री व विद्याधनाची सिद्धी करण्यास समर्थ बनू शकतात ती शोक करीत नाहीत. ॥ ७ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, power of light and knowledge, men of genius invoke, install and kindle you in the holiest acts of yajna as the yajaka and high-priest, richest in gifts of prosperity, easy listener ever in readiness and widest in fame and possibility.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then how to remember that scholar knowingly, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=well taught, acquainted and listened Vedas and scriptures, [tuma]=you, (viprāḥ) =intelligent, [aura]=and, (diviṣṭiṣu)=In divine yajnas and in works called reading-writings, (agnim)=of fire, (iva) =like, [aura]=and, (hotāram)=receivers, (ṛtvijam)=those who perform yajnas and companionships in the seasons, (śrutkarṇam)=the hearer of all learning,, (saprathastamaṃ) = practicing knowledge in exensively, (vasuvittamam)=you are the ones who know things very well in detail, [hama]=we, (tvā)=to you i.e. your knowledge etc. vitrues, (ni)=certainly, (dadhire) =possess, (tān) unako (tvam) =you, (api) =also, (ni)=certainly, (dhehi) =possess.

    English Translation (K.K.V.)

    O well taught, acquainted and listened Vedas and scriptures! You are like fire and receptive in meritorious and divine yajnas and in works called reading and learning, you are the one who performs yajnas and has companionships in the seasons, the one who listens to all the knowledge, the one who deals with the utmost expansion of the knowledge, the one who treats the substances with the utmost detail and knows them well. We definitely possess you, that is, your knowledge etc. virtues. You should definitely possess them too.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Those people who strive for the accomplishment of good work and can achieve the kingdom of Chakravartti, Shri (wealth) and he treasure of knowledge, they do not attain sorrow.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    śrī- Fortune, prosperity, success and thriving is called śrī .

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned person, as wise men place you like fire in all Yajnas (like the reading and teaching) who are taker of good qualities, making proper use of all seasons and ministrant priest, endowed with and donor of all kinds of wealth, the quick-hearing, the far renowned as a great scholar, you should also support them well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( दिविष्टिषु ) दिवा दिव्या इष्टयो येषु पठनपाठनाख्येषु यज्ञेषु तेषु = The Yajnas in the form of reading and teaching which accomplish divine desires. ( सप्रथस्तमम् ) यः प्रथेन विद्या विस्तरेण सह वर्तते सोऽतिशयितः = Endowed with vast knowledge. (प्रभ-विस्तारे)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who always endeavor for the propagation of knowledge and accomplishment of good deeds, can attain the prosperity of vast and good Government and wealth of wisdom, do not grieve.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top