ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 45/ मन्त्र 5
घृता॑हवन सन्त्ये॒मा उ॒ षु श्रु॑धी॒ गिरः॑ । याभिः॒ कण्व॑स्य सू॒नवो॒ हव॒न्तेऽव॑से त्वा ॥
स्वर सहित पद पाठघृत॑ऽआहवन । स॒न्त्य॒ । इ॒माः । ऊँ॒ इति॑ । सु । श्रु॒धि॒ । गिरः॑ । याभिः॑ । कण्व॑स्य । सू॒नवः॑ । हव॑न्ते । अव॑से । त्वा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
घृताहवन सन्त्येमा उ षु श्रुधी गिरः । याभिः कण्वस्य सूनवो हवन्तेऽवसे त्वा ॥
स्वर रहित पद पाठघृतआहवन । सन्त्य । इमाः । ऊँ इति । सु । श्रुधि । गिरः । याभिः । कण्वस्य । सूनवः । हवन्ते । अवसे । त्वा॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 45; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(घृताहवन) घृतग्राहिन् (सन्त्य) सनन्ति संभजंति सुखानि याभिः क्रियाभिस्तासु साधो (इमाः) वक्ष्यमाणाः प्रत्यक्षाः (उ) वितर्के (सु) शोभार्थे। अत्र #सूञ इति मूर्धन्यादेशः। (श्रुधि) शृणु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (गिरः) वाणीः (याभिः) वेदवाग्भिः (कण्वस्य) मेधाविनः (सूनवः) पुत्रा विद्यार्थिनः (हवन्ते) गृह्णन्ति (अवसे) रक्षणाद्याय (त्वा) त्वाम् ॥५॥ #[अ० ८।३।१०७]
अन्वयः
पुनः स केन ज्ञातुं शक्नुयादित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे सन्त्य घृताहवन विद्वन् ! यथा कण्वस्य सूनवोऽवसे याभिर्वेदवाणीभिर्यं त्वा हवन्ते स त्वमुताभिस्तेषामिमा गिरः सुश्रुधि सुष्ठु शृणु ॥५॥
भावार्थः
ये मनुष्या इह संसारे विदुष्या मातुर्विदुषः पितुरनूचानस्याचार्य्यस्य च सकाशाच्छिक्षाविद्ये गृहीत्वा परमार्थव्यवहारौ साधित्वा विज्ञानशिल्पयोः सिद्धिं कर्त्तुं प्रवर्त्तन्ते ते सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति नेतरे ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह किससे जानने को समर्थ होवे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (सन्त्य) सुखों की क्रियाओं में कुशल (घृताहवन) घी को अच्छे प्रकार ग्रहण करनेवाले विद्वान् मनुष्य ! जैसे (कण्वस्य) मेधावी विद्वान् के (सूनवः) पुत्र विद्यार्थी (अवसे) रक्षा आदि के लिये (याभिः) जिन वेदवाणियों से जिस (त्वा) तुझको (हवन्ते) ग्रहण करते हैं सो आप (उ) भी उन से उनकी (इमा) इन प्रत्यक्ष कारक (गिरः) वाणियों को (सुश्रुधि) अच्छे प्रकार सुन और ग्रहण कर ॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य इस संसार में विद्वान् माता विद्वान् पिता और सब उत्तर देनेवाले आचार्य्य आदि से शिक्षा वा विद्या को ग्रहण कर परमार्थ और व्यवहार को सिद्ध कर विज्ञान और शिल्प को करने में प्रवृत्त होते हैं वे सब सुखों को प्राप्त होते हैं, आलसी कभी नहीं होते ॥५॥
विषय
रक्षा - कीर्ति - अन्न व धन
पदार्थ
१. 'घृत' शब्द 'मन की निर्मलता व ज्ञान की दीप्ति' का वाचक है [घृ क्षरणदीप्तयोः] । वे प्रभु इस घृत से ही 'आहूयमान' होते हैं - पुकारे जाते हैं । प्रभु को पुकारने का अधिकार उसी व्यक्ति को होता है जो इस घृत का सम्पादन करता है । हे (घृताहवन) - घृत से आहूयमान प्रभो ! (सन्त्य) - [सन संभक्तौ] उत्तमोत्तम पदार्थों को देनेवालों में सर्वश्रेष्ठ प्रभो ! (इमाः गिरः) - इन प्रार्थनावाणियों को (उ) - निश्चय से (सु) - अच्छी प्रकार (श्रुधि) - सुनिए, (याभिः) - जिन वाणियों से (कण्वस्य) - मेधावी के (सूनवः) - पुत्र, अर्थात् अत्यन्त मेधावी 'प्रस्कण्व' लोग (त्वा) - आपको (अवसे) - रक्षा [protection], कीर्ति [fame], अन्न [food], व धन [riches] के लिए (हवन्ते) - पुकारते हैं ।
२. सम्पूर्ण अन्न व धन तथा रक्षण व यश प्रभु से ही प्राप्त होता है । प्रभु ने ज्ञान की वाणियों के द्वारा इनके साधन के लिए उपदेश दिया है । समझदार लोग अपने मनों को निर्मल करके इन ज्ञानीजनों की वाणियों से उन साधनों को जानकर क्रियान्वित करते हैं और वे प्रभु उन कर्मों के अनुसार हमें उन्नति के लिए आवश्यक उत्तमोत्तम पदार्थों को प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम जब वेदवाणियों में प्रतिपादित ज्ञान का अनुष्ठान करते हैं तब प्रभु हमें 'अन्न, धन, यश व रक्षण' प्राप्त कराते हैं ।
विषय
प्रमुख विद्वान् और अग्रणी नायक सेनापति के कर्तव्य । (
भावार्थ
(घृताहवन) घृतकी आहुति लेकर अग्नि जिस प्रकार चमकता है उसी प्रकार ज्ञान और तेज की आहुति से देदीप्यमान हे विद्वन्! हे (सन्त्य) सुख प्राप्ति के कार्यों और साधनों में कुशल, उत्तम ऐश्वर्यप्रद! विद्वन्! प्रभो! (याभिः) जिन वेदवाणियों से (कण्वस्य) मेधावी विद्वान् पुरुषों के (सूनवः) पुत्र और शिष्यगण (अवसे) रक्षा और ज्ञान के प्राप्त करने के लिये (त्वा हवन्ते) तेरी स्तुति करते हैं। तू (इमाः) इन (गिरः) वेदवाणियों का (श्रुधि) श्रवण कर और अन्यों को श्रवण करा, उपदेश कर। इत्येकोनत्रिंशद् वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ १—१० अग्निर्देवा देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिगुष्णिक् । ५ उष्णिक् । २, ३, ७, ८ अनुष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप् । ६, ९,१० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ।
विषय
फिर वह विद्वान् किससे जानने को समर्थ होवे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे सन्त्य घृताहवन विद्वन् ! यथा कण्वस्य सूनवः अवसे याभिः वेदवाणीभिः यम् त्वा हवन्ते स त्वम् उ ताभिः तेषाम् इमाः गिरः सुश्रुधि सुष्ठु शृणु ॥५॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (सन्त्य) सनन्ति संभजंति सुखानि याभिः क्रियाभिस्तासु साधो= सुख प्राप्त करने की क्रियाओं में कुशल, (घृताहवन) घृतग्राहिन्= घी को अच्छे प्रकार ग्रहण करनेवाले, (विद्वन्)= विद्वान् ! (यथा) =जैसे, (कण्वस्य) मेधाविनः=बुद्धिमान्, (सूनवः) पुत्रा विद्यार्थिनः= पुत्र या विद्यार्थी, (अवसे) रक्षणाद्याय= रक्षा आदि के लिये, (वेदवाणीभिः)= वेदवाणी से, (यम्)=जिस, (त्वा)=तुझको, (हवन्ते) गृह्णन्ति=ग्रहण करते हैं, (स)=वह, (त्वम्)=तुम, (उ) वितर्के=अथवा, (ताभिः)=उनसे, (तेषाम्)=उनके, (इमाः) वक्ष्यमाणाः प्रत्यक्षाः=कही गयी प्रत्यक्ष, (गिरः) वाणीः= वाणी को, (सु) सुष्ठु =अच्छे प्रकार से, (श्रुधि) शृणु=सुनो ॥५॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
जो मनुष्य इस संसार में विदुषी माता, विद्वान् पिता और अच्छा व्यवहार वाले आचार्य से समीपता से शिक्षा और विद्या को ग्रहण करके परमार्थ व्यवहारों को सिद्ध करके, विशेष ज्ञान और शिल्प को सिद्ध करने में प्रवृत्त होते हैं, वे सब सुखों को प्राप्त करते हैं, अन्य नहीं ॥५॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (सन्त्य) सुख प्राप्त करने की क्रियाओं में कुशल, (घृताहवन) घी को अच्छे प्रकार ग्रहण करनेवाले (विद्वन्) विद्वान् ! (यथा) जैसे (कण्वस्य) बुद्धिमान (सूनवः) पुत्र या विद्यार्थी (अवसे) रक्षा आदि के लिये (वेदवाणीभिः) वेदवाणी से, (यम्) जिस (त्वा) तुझको (हवन्ते) ग्रहण करते हैं, (स) वह (त्वम्) तुम (उ) अथवा (ताभिः) उनके [द्वारा कही गई] (तेषाम्) उनकी (इमाः) प्रत्यक्ष (गिरः) वाणी को (सु) अच्छे प्रकार से (श्रुधि) सुनो ॥५॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (घृताहवन) घृतग्राहिन् (सन्त्य) सनन्ति संभजंति सुखानि याभिः क्रियाभिस्तासु साधो (इमाः) वक्ष्यमाणाः प्रत्यक्षाः (उ) वितर्के (सु) शोभार्थे। अत्र #सूञ इति मूर्धन्यादेशः। (श्रुधि) शृणु। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (गिरः) वाणीः (याभिः) वेदवाग्भिः (कण्वस्य) मेधाविनः (सूनवः) पुत्रा विद्यार्थिनः (हवन्ते) गृह्णन्ति (अवसे) रक्षणाद्याय (त्वा) त्वाम् ॥५॥ #[अ० ८।३।१०७] विषयः - पुनः स केन ज्ञातुं शक्नुयादित्युपदिश्यते। अन्वयः - हे सन्त्य घृताहवन विद्वन् ! यथा कण्वस्य सूनवोऽवसे याभिर्वेदवाणीभिर्यं त्वा हवन्ते स त्वमुताभिस्तेषामिमा गिरः सुश्रुधि सुष्ठु शृणु ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- ये मनुष्या इह संसारे विदुष्या मातुर्विदुषः पितुरनूचानस्याचार्य्यस्य च सकाशाच्छिक्षाविद्ये गृहीत्वा परमार्थव्यवहारौ साधित्वा विज्ञानशिल्पयोः सिद्धिं कर्त्तुं प्रवर्त्तन्ते ते सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति नेतरे ॥५॥
मराठी (1)
भावार्थ
या जगात जी माणसे विद्वान माता, पिता व सर्व उत्तरे देण्यास सक्षम असणारे आचार्य इत्यादींकडून शिक्षण, विद्या ग्रहण करून परमार्थ व व्यवहार सिद्ध करून विज्ञान व शिल्प करण्यास प्रवृत्त होतात ते सर्व सुख प्राप्त करतात, आळशी कधी होत नाहीत. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light and knowledge, generous, receiving libations of ghee and waters, listen well to these voices of prayer with which the disciples of the distinguished genius of science invoke and serve you for the sake of protection.
Subject of the mantra
Then from whom that scholar should be able to know, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (santya)=skillful in the pursuit of pleasure, (ghṛtāhavana)=good receiver of ghee, (vidvan) =scholar, (yathā)=like, (kaṇvasya)=intelligent, (sūnavaḥ) son or student, (avase) =for protection etc., (vedavāṇībhiḥ) =by the speech of Vedas, (yam) =which, (tvā) =to you, (havante) =accept, (sa) =that, (tvam)=you, (tābhiḥ)=by them, [dvārā kahī gī]=said, (teṣām)=their, (imāḥ)=stated direct, (giraḥ) =to speech, (su) =well, (śrudhi) =listen.
English Translation (K.K.V.)
O scholar man who is skilled in the activities of attaining happiness, who accepts ghee well! Just as a wise son or a student accepts you with the speech of Vedas for protection et cetera, listen well the direct speech spoken by them.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
In this world, those people who, by being close to learned mother, learned father and well-behaved teachers, receive education and knowledge, perfect virtuous behaviour, and become engaged in perfecting special knowledge and crafts, they attain all the happiness, others can never do same.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person, doer of good deeds that lead to happiness, performer of homa (sacrifice) with clarified butter and its user, as the sons or students invoke you for protection, with Vedic words, you should also listen to their requests attentively.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( सन्त्य ) सनन्ति संभजन्ति सुखानि याभिः क्रियाभिः तासु साधो = Experts in deeds that lead to happiness. ( कण्वस्य ) मेधाविन: ( निघ० ३.१५ ) = Of a highly intelligent person. ( सूनवः) पुत्राः, विद्यार्थिनः = Sons or students.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Only those persons can enjoy all happiness, who receive education and knowledge from a learned mother, a learned father and a preceptor, who is knower of the Vedas. They can accomplish both secular and spiritual dealings along with science (Metaphysical and physical) and industry. None else can do so.
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