ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 45/ मन्त्र 6
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निर्देवाः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
त्वां चि॑त्रश्रवस्तम॒ हव॑न्ते वि॒क्षु ज॒न्तवः॑ । शो॒चिष्के॑शं पुरुप्रि॒याग्ने॑ ह॒व्याय॒ वोळ्ह॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । चि॒त्र॒श्र॒वः॒ऽत॒म॒ । हव॑न्ते । वि॒क्षु । ज॒न्तवः॑ । शो॒चिःऽके॑शम् । पु॒रु॒ऽप्रि॒य॒ । अग्ने॑ । ह॒व्याय॑ । वोळ्ह॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां चित्रश्रवस्तम हवन्ते विक्षु जन्तवः । शोचिष्केशं पुरुप्रियाग्ने हव्याय वोळ्हवे ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । चित्रश्रवःतम । हवन्ते । विक्षु । जन्तवः । शोचिःकेशम् । पुरुप्रिय । अग्ने । हव्याय । वोळ्हवे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 45; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 32; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तं कीदृशं गृह्णीयुरित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे चित्रश्रवसस्तम पुरुप्रियाग्ने विद्युदिव विद्वन् ! ये जन्तवो विक्षु वोढवे हव्याय यं शोचिष्केशं त्वां हवन्ते स त्वं तान् विद्यासुशिक्षाप्रदानेन विदुषः सुशीलान् सद्यः संपादय ॥६॥
पदार्थः
(त्वाम्) (चित्रश्रवस्तम्) चित्राण्यद्भुतानि श्रवांस्यतिशयितान्यन्नादीनि यस्य तत्सम्बुद्धौ (हवन्ते) स्पर्द्धन्ते (विक्षु) प्रजासु (जन्तवः) मनुष्याः। जन्तव इति मनुष्यना०। निघं० २।३। (शोचिष्केशम्) शोचिषः शुद्धाचाराः केशाः प्रकाशका यस्य तम् (पुरुप्रिय) यः पुरून् बहून् प्रीणाति तत्सम्बुद्धौ (अग्ने) विद्वन् (हव्याय) होतुमर्हाय यज्ञाय (वोढवे) विद्याप्रापणाय ॥६॥
भावार्थः
मनुष्यैरनेकगुणाग्निवद्वर्त्तमानं विद्वांसं प्राप्य विद्याः सततं ग्राह्याः ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसको किस प्रकार ग्रहण करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (चित्रश्रवस्तम) अत्यन्त अद्भुत अन्न वा श्रवणों से व्युत्पन्न (पुरुप्रिय) बहुतों को तृप्त करनेवाले (अग्ने) बिजुली के तुल्य विद्याओं में व्यापक विद्वान् ! जो (जन्तवः) प्राणी लोग (विक्षु) प्रजाओं में (वोढवे) विद्या प्राप्ति कराने हारे (हव्याय) ग्रहण करने योग्य पठन पाठनरूप यज्ञ के लिये जिस (शोचिष्केशम्) जिसके पवित्र आचरण हैं उस (त्वाम्) आपको (हवन्ते) ग्रहण करते हैं, वह आप उनको विद्या और शिक्षा देकर विद्वान् और शील युक्त शीघ्र कीजिये ॥६॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित हैं कि अनेक गुणयुक्त अग्नि के समान विद्वान् को प्राप्त होके विद्याओं का ग्रहण करें ॥६॥
विषय
चित्रश्रवस्तम अग्नि
पदार्थ
१. 'श्रवस्' शब्द के यश [Glory] , धन [Wealth] , स्तोत्र [A hymn] व प्रशस्त कर्म [Praise and worthy action] ये अर्थ हैं । हे (चित्रश्रवस्तम) - अद्भुत व अतिशयित [अत्यन्त] यश, धन, स्तोत्र व प्रशस्त कर्मोंवाले प्रभो ! (पुरुप्रिय) - पालक - पूरक व प्रीणयिता प्रभो ! (अग्ने) - सब अग्रगतियों के साधक प्रभो ! (विक्षु त्वाम्) - सब प्राणियों में निवास करनेवाले आपको, जो आप (शोचिष्केशम्) - देदीप्यमान ज्ञानरश्मियोंवाले हैं, उन आपको (जन्तवः) - संसार में जन्म लेनेवाले लोग (हव्याय वोळ्हवे) - हव्य - उत्तम पदार्थों को प्राप्त कराने के लिए (हवन्ते) - पुकारते हैं ।
२. प्रभु सचमुच अद्भुत यशवाले हैं, उनकी महिमा का पूर्ण गायन किसी के लिए भी सम्भव नहीं । वे अनन्त धनवाले हैं, सब धनों को प्राप्त करानेवाले वे ही हैं । वेदवाणियों में उनके अद्भुत स्तोत्रों का प्रतिपादन हुआ है, उनकी कृतियाँ सचमुच अत्यन्त प्रशस्त हैं । देदीप्यमान ज्ञानरश्मियोंवाले वे प्रभु "शोचिष्केश" हैं ।
३. वे प्रभु हमें शरीर देते हैं । इस शरीर में वे प्रभु भी अनुप्रविष्ट हो रहे हैं । सब प्रजाओं में उनका निवास है 'तत्सृष्ट्वा तदेवानु प्राविशन्' ।
४. ये प्रभु ही जीवों को सब हव्य पदार्थ प्राप्त कराते हैं । इन पदार्थों को प्राप्त कराके वे हमारा 'पालन, पूरण व प्रीणन' कर रहे हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - हम उस चित्रश्रवस्तम, शोचिष्केश, पुरुप्रिय - अग्नि' का आराधन करें । वे ही हमें सब हव्यपदार्थ प्राप्त कराते हैं ।
विषय
प्रमुख विद्वान् और अग्रणी नायक सेनापति के कर्तव्य । (
भावार्थ
हे (चित्रश्रवस्तम) अद्भुत ज्ञान, अन्न और ऐश्वर्यों के धारण करने वाले! सबसे उत्तम ज्ञानी, फलप्रद, ऐश्वर्यवन् स्वामिन्! हे (पुरुप्रिय) सब जनों को भरपूर तृप्त करनेहारे! सबके प्रिय! राजन्! विद्वन्! प्रभो! अग्ने! (हव्याय वोढवे) हवि पदार्थ को समस्त वायु, जल आदि पदार्थों तक प्राप्त कराने के लिये जैसे प्रज्वलित अग्नि को प्राप्त करते हैं और रथादि को उठाले चलने के लिये जैसे अश्व को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार (हव्याय वोढवे) ग्रहण करने योग्य, उत्तम ज्ञानों और ऐश्वयों के प्राप्त करने के लिये (शोचिष्केशम्) अति दीप्तियुक्त केशों के समान किरण समूहों से युक्त, तेजस्वी, सूर्य के समान प्रतापी (त्वाम्) तुझको (विक्षु) प्रजा जनों में (जन्तवः) सभी प्राणी (हवन्ते) तुझे ही प्राप्त करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ १—१० अग्निर्देवा देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिगुष्णिक् । ५ उष्णिक् । २, ३, ७, ८ अनुष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप् । ६, ९,१० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ।
विषय
फिर उस विद्वान् को किस प्रकार ग्रहण करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे चित्रश्रवसस्तम पुरुप्रिय अग्ने विद्युदिव विद्वन् ! ये जन्तवः विक्षु वोढवे हव्याय यं शोचिष्केशं त्वां हवन्ते स त्वं तान् विद्या सुशिक्षा प्रदानेन विदुषः सुशीलान् सद्यः संपादय ॥६॥
पदार्थ
हे (चित्रश्रवस्तम्) चित्राण्यद्भुतानि श्रवांस्यतिशयितान्यन्नादीनि यस्य तत्सम्बुद्धौ= अद्भुत यश, धन और अन्नवाले, (पुरुप्रिय) यः पुरून् बहून् प्रीणाति तत्सम्बुद्धौ= बहुतों को तृप्त करनेवाले, (अग्ने) विद्वन्= विद्वान्, (विद्युदिव)= विद्युत् के समान, (विद्वन्)= विद्वान्, (ये)=जो, (जन्तवः) मनुष्याः=मनुष्य, (विक्षु) प्रजा= प्रजा, (वोढवे) विद्याप्रापणाय=विद्या की प्राप्ति के लिये, (हव्याय) होतुमर्हाय यज्ञाय= यज्ञ के योग्य उत्तम पदार्थों के लिये, (यम्)=जिस, (शोचिष्केशम्) शोचिषः शुद्धाचाराः केशाः प्रकाशका यस्य तम्= शुद्ध आचरणवाले विद्वान्, (त्वाम्)=तुमसे, (हवन्ते) स्पर्द्धन्ते= स्पर्द्धा करते हैं, (सः)=वह, (त्वम्)=तुम, (तान्)=उनको, (विद्या)= विद्या, (सुशिक्षा)= सुशिक्षा, (प्रदानेन)= प्रदान करके, (विदुषः)=विद्वान्, (सुशीलान्)= सुशील, (सद्यः)=आज ही, (संपादय)=बनाओ ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा अनेक गुणयुक्त अग्नि के समान वर्तमान विद्वान् को प्राप्त करके विद्याओं को निरन्तर ग्रहण करना चाहिए ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (चित्रश्रवस्तम्) अद्भुत यश, धन और अन्नवाले, [और] (पुरुप्रिय) बहुतों को तृप्त करनेवाले (अग्ने) विद्वान्! (विद्युदिव) विद्युत् के समान (विद्वन्) विद्वान्, (ये) जो (जन्तवः) मनुष्य, (विक्षु) प्रजा [और] (वोढवे) विद्या की प्राप्ति के लिये [और] (हव्याय) यज्ञ के योग्य उत्तम पदार्थों के लिये, (यम्) जिस (शोचिष्केशम्) शुद्ध आचरणवाले विद्वान्, (त्वाम्) तुमसे (हवन्ते) स्पर्द्धा करते हैं। (सः) वह (त्वम्) तुम, (तान्) उनको (विद्या) विद्या [और] (सुशिक्षा) सुशिक्षा (प्रदानेन) प्रदान करके, (विदुषः) विद्वान् [और] (सुशीलान्) सुशील (सद्यः) आज ही (संपादय) बनाओ ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (त्वाम्) (चित्रश्रवस्तम्) चित्राण्यद्भुतानि श्रवांस्यतिशयितान्यन्नादीनि यस्य तत्सम्बुद्धौ (हवन्ते) स्पर्द्धन्ते (विक्षु) प्रजासु (जन्तवः) मनुष्याः। जन्तव इति मनुष्यना०। निघं० २।३। (शोचिष्केशम्) शोचिषः शुद्धाचाराः केशाः प्रकाशका यस्य तम् (पुरुप्रिय) यः पुरून् बहून् प्रीणाति तत्सम्बुद्धौ (अग्ने) विद्वन् (हव्याय) होतुमर्हाय यज्ञाय (वोढवे) विद्याप्रापणाय ॥६॥ विषयः - पुनस्तं कीदृशं गृह्णीयुरित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे चित्रश्रवसस्तम पुरुप्रियाग्ने विद्युदिव विद्वन् ! ये जन्तवो विक्षु वोढवे हव्याय यं शोचिष्केशं त्वां हवन्ते स त्वं तान् विद्यासुशिक्षाप्रदानेन विदुषः सुशीलान् सद्यः संपादय ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरनेकगुणाग्निवद्वर्त्तमानं विद्वांसं प्राप्य विद्याः सततं ग्राह्याः ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी अनेक गुणांनी युक्त अग्नीप्रमाणे विद्वान बनून विद्या ग्रहण करावी. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lordly power of light and knowledge, most wondrous in fame and prosperity, flaming with flashes of lightning, widely loved and pursued, earnest men among people invoke, study and serve you for generous gifts of knowledge and power.
Subject of the mantra
Then how to accept that scholar, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (citraśravastam)= having amazing fame, wealth and food; [aura]=and, (purupriya)=making satisfied many, (agne)=scholar, (vidyudiva) =like electricity, (vidvan) =scholar, (ye) =which, (jantavaḥ) =human, (vikṣa) =people, [aura]=and, (voḍhave) =for achievement of vidya, [aura]=and, (havyāya) =for best substances to be used for yajna, (yam) =which, (śociṣkeśam)=scholar of pure conduct, (tvām) =from you, (havante) =have rivalery, (saḥ)=that, (tvam) =you, (tān) =to them, (vidyā) =vidyā, [aura]=and (suśikṣā) =education, (pradānena) =provide, (viduṣaḥ) =scholar, [aura]=and, (suśīlān)=courteous, (sadyaḥ) =todat itself, (saṃpādaya) =make.
English Translation (K.K.V.)
O one who has wonderful fame, wealth and food, and a scholar who satisfies many! Scholars like electricity, who compete with you for the attainment of human beings, people and knowledge and for the best things worthy of yajna, the scholar of pure conduct. You, by imparting knowledge and good education to him, make him learned and well-mannered today itself.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Humans should continuously acquire the knowledge by attaining the available knowledge like fire having many qualities.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person shining like lightning, loved by many and having food and fame most wondrous, when men call on you from all sides for performing the Yajna and for the attainment of knowledge, you should also make them learned and cultured (good-natured) by giving them wisdom aua good education.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(चित्रश्रवस्तमम् ) चित्राणि-अद्भुतानि श्रणांसि-अतिशयितानि अनादीनि यस्य तत्सम्बुद्धौ (आदिपदेन यशोज्ञानादि ग्रहणम् ) = Having wonderful food and fame etc. (शोचिष्केशम्) शोचिष:-शुद्धाचारा: केशा: प्रकाशका यस्य तत्सम्बुद्धौ ( गोढवे) विद्याप्रापणाय = For the attainment and conveying of knowledge. ठाह-प्रापणे
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should acquire the knowledge of various sciences by sitting at the feet of a learned person who is like the fire endowed with many attributes.
Translator's Notes
शोचिष्केशम् has been interpreted by Rishi Dayananda as शोचिष: शुद्धाचाराः केशाः प्रकाशका यस्य शुचिरं पूतीभावे केशा रश्मयः काशनाद्वा प्रकाशनाद् वा इति यास्काचार्या निरुक्ते १२.२५ Rishi Dayananda's interpretation is therefore based upon the authority of the Nirukta and is not arbitrary.
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