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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 91/ मन्त्र 18
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - सोमः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    सं ते॒ पयां॑सि॒ समु॑ यन्तु॒ वाजा॒: सं वृष्ण्या॑न्यभिमाति॒षाह॑:। आ॒प्याय॑मानो अ॒मृता॑य सोम दि॒वि श्रवां॑स्युत्त॒मानि॑ धिष्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ते॒ । पयां॑सि । सम् । ऊँ॒ इति॑ । य॒न्तु॒ । वाजाः॑ । सम् । वृष्ण्या॑नि । अ॒भि॒मा॒ति॒ऽसहः॑ । आ॒ऽप्याय॑मानः । अ॒मृता॑य । सो॒म॒ । दि॒वि । श्रवां॑सि । उ॒त्ऽत॒मानि॑ । धि॒ष्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सं ते पयांसि समु यन्तु वाजा: सं वृष्ण्यान्यभिमातिषाह:। आप्यायमानो अमृताय सोम दिवि श्रवांस्युत्तमानि धिष्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। ते। पयांसि। सम्। ऊँ इति। यन्तु। वाजाः। सम्। वृष्ण्यानि। अभिमातिऽसहः। आऽप्यायमानः। अमृताय। सोम। दिवि। श्रवांसि। उत्ऽतमानि। धिष्व ॥ १.९१.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 91; मन्त्र » 18
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे सोम ते तव यानि वृष्ण्यानि पयांस्यस्मान् संयन्तु अभिमातिषाहो वाजाः संयन्तु तैर्दिव्यमृतायाप्यायमानस्त्वमुत्तमानि श्रवांसि संधिष्व ॥ १८ ॥

    पदार्थः

    (सम्) (ते) तव सृष्टौ (पयांसि) जलान्यन्नानि वा (सम्) (उ) वितर्के (यन्तु) प्राप्नुवन्तु (वाजाः) संग्रामाः (सम्) (वृष्ण्यानि) वीर्य्यप्रापकानि (अभिमातिषाहः) अभिमातीन् शत्रून् सहन्ते यैस्ते (आप्यायमानः) पुष्टः पुष्टिकारकः (अमृताय) मोक्षाय (सोम) ऐश्वर्य्यस्य प्रापक (दिवि) विद्याप्रकाशे (श्रवांसि) श्रवणान्यन्नानि वा (उत्तमानि) श्रेष्ठतमानि (धिष्व) धर। अत्र सुधितवसुधितनेमधित०। अ० ७। ४। ४५। अस्मिन् सूत्रेऽयं निपातितः ॥ १८ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्विद्यापुरुषार्थाभ्यां विद्वत्सङ्गादोषधिसेवनपथ्याभ्यां च यानि प्रशस्तानि कर्माणि प्रशस्ता गुणाः श्रेष्ठानि वस्तूनि च प्राप्नुवन्ति तानि धृत्वा रक्षित्वा धर्मार्थकामान् संसाध्य मुक्तिसिद्धिः कार्य्या ॥ १८ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

    पदार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्य्य को पहुँचानेवाले विद्वान् ! (ते) आपके जो (वृष्ण्यानि) पराक्रमवाले (पयांसि) जल वा अन्न हम लोगों को (संयन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त हों और (अभिमातिषाहः) जिनसे शत्रुओं को सहें वे (वाजाः) संग्राम (सम्) प्राप्त हों उनसे (दिवि) विद्याप्रकाश में (अमृताय) मोक्ष के लिये (आप्यायमानः) दृढ़ बलवाले आप वा उत्तम रसके लिये दृढ़ बलकारक ओषधिगण (उत्तमानि) अत्यन्त श्रेष्ठ (श्रवांसि) वचनों वा अन्नों को (संधिष्व) धारण कीजिये वा करता है ॥ १८ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि विद्या और पुरुषार्थ से विद्वानों के सङ्ग, ओषधियों के सेवन और प्रयोजन से जो-जो प्रशंसित कर्म, प्रशंसित गुण और श्रेष्ठ पदार्थ प्राप्त होते हैं, उनका धारण और उनकी रक्षा तथा धर्म, कामों को सिद्धकर मोक्ष की सिद्धि करें ॥ १८ ॥

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    विषय

    दुग्ध, अन्न व ज्ञान

    पदार्थ

    १. हे (अभिमातिषाहः) = अभिमान आदि शत्रुओं को कुचलनेवाले प्रभो ! (ते) = आपके (पयांसि) = आप्यायन के, वर्धन के कारणभूत दुग्ध (संयन्तु) = हमें प्राप्त हों । (उ) = और (वाजाः) = शक्ति देनेवाले अन्न [foods in general] (संयन्तु) = प्राप्त हों । इन दुग्धों व अन्नों के प्रयोग से (वृष्ण्यानि) = वीर्यशक्तियाँ हमें (सं) [यन्तु] = प्राप्त हों । यहाँ यह बात स्पष्ट है कि शक्ति की प्राप्ति दुग्ध व अन्न से होती है । मांस - मांस को ही बढ़ाता है; वह शक्ति नहीं देता 'मांस मांसेन वर्धते' । २. हे (सोम) = शान्त प्रभो ! आप (अमृताय) = अमृतत्व की प्राप्ति के लिए (आप्यायमानः) = हमारा वर्धन करते हुए (दिवि) = हमारे मस्तिष्करूप द्युलोक में (उत्तमानि श्रवांसि) = उत्तम ज्ञानों को (धिष्व) = धारण कीजिए, स्थापित कीजिए । 'अध्यात्मविद्या विद्यानाम्' - इस गीता - वाक्य के अनुसार आत्मज्ञान ही उत्कृष्ट ज्ञान है । उपनिषदों में इसे 'पराविद्या' शब्द से स्मरण किया गया है । यजुर्वेद में यही विद्या है । प्रकृति - विद्या को वहाँ 'अ - [परा] - विद्या' नाम से स्मरण किया गया है । 'किसने कितने युद्ध किये, कितने व्यक्ति मरे' आदि ऐतिहासिक ज्ञान तो ज्ञान ही नहीं है । वह सूचनामात्र [mere information] ही है । उसका अमृतत्व से कोई सम्बन्ध नहीं है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम प्रभु से प्राप्त कराये गये दुग्धों व अन्नों का प्रयोग करते हुए बुद्धि को सात्विक बनाएँ और ज्ञानवर्धन करते हुए आत्मदर्शन द्वारा अमृतत्व का लाभ करें ।

    विशेष / सूचना

    सूचना = [क] यहाँ 'अभिमातिषाहः' शब्द का प्रयोग यह सुव्यक्त कर रहा है कि सात्त्विक दुग्ध व अन्न का सेवन हमें निरहंकार बनाता है । शक्ति के साथ अहंकारशून्यता हमारा आभूषण बन जाती है, [ख] दुग्ध व अन्न के प्रयोग से ही पराविद्या में रुचि होती है । राजस् भोजन हमें इससे पराङ्मुख करते हैं ।

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    विषय

    पक्षान्तर में उत्पादक परमेश्वर और विद्वान् का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( सोम ) राजन् ( अभिमातिषाहः ) चारों ओर से आक्रमण करने और प्रजा को पीड़न करने वाले, सब ओर से शस्त्रास्त्रों को फेंकने वाले, शत्रुओं को पराजित करने वाले ( ते ) तुझे ( पयांसि ) पुष्टिकारक जल और अन्न रस ( सं यन्तु) अच्छे प्रकार प्राप्त हों । ( वाजाः सं यन्तु ) वेगवान् अश्व गण, संग्रामकारी योद्धा तथा सेना-बल ( संयन्तु ) एक साथ मिल कर चलें । ( वृष्ण्यानि सं यन्तु ) समस्त प्रकार के प्रजा पर सुखों और शत्रुओं पर शस्त्रों को वर्षाने वाले, बलवान् पुरुषों के दल बल एक साथ, अच्छी प्रकार प्राप्त हो । तू ( अमृताय ) प्रजा और राष्ट्र के दीर्घ जीवन और स्थिरता के लिये ( आष्यायमानः ) खूब सब प्रकार से हृष्ट पुष्ट और वृद्धि को प्राप्त होता हुआ ( घिष्व ) विद्या प्रकाश के बल पर, सूर्यवत् ज्ञानवान् पुरुषों का आश्रय लेकर ( उत्तमानि श्रवांसि ) उत्तम, सर्वश्रेष्ठ श्रवण करने योग्य ज्ञानोपदेश अन्नादि ऐश्वर्य तथा श्रवण करने योग्य यश, ख्याति को ( धिष्व ) धारण कर । हे छात्र ! तुझे उत्तम, जल, अन्न, बल, वीर्य अच्छी प्रकार प्राप्त हो । अमृतमय मोक्ष ज्ञान लिये ( दिवि ) ज्ञानवान् गुरु के आश्रय होकर उत्तम श्रवण योग्य ज्ञानों को धारण कर । परमेश्वर के पुष्टिकारक अन्न, जल, बल, वीर्य, सभी हमें प्राप्त हों । वह सदा भरपूर है । वह अमृत आनन्द के प्रदान के लिये तेजोमय नाना बलों और ज्ञानों को रखता हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४ स्वराट्पङ्क्तिः ॥ - २ पङ्क्तिः । १८, २० भुरिक्पङ्क्तिः । २२ विराट्पंक्तिः । ५ पादनिचृद्गायत्री । ६, ८, ९, ११ निचृद्गायत्री । ७ वर्धमाना गायत्री । १०, १२ गायत्री। १३, १४ विराङ्गायत्री । १५, १६ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १७ परोष्णिक् । १९, २१, २३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी विद्या व पुरुषार्थाने विद्वानांची संगती, औषधांचे सेवन व प्रयोजन यांनी जे जे प्रशंसित कर्म गुण व श्रेष्ठ पदार्थ प्राप्त होतात, त्यांचे धारण व रक्षण करावे. धर्म, अर्थ, काम सिद्ध करून मोक्षाची सिद्धी करावी. ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Soma, lord of light, health and energy of life, may all the waters, foods and vitalities of existence, antidotes to the negativities of existence come to you in abundance, and may all those abundant and powerful drinks, foods and energies of yours come to us and augment our vitality to fight out the negative and cancerous forces of life. Lord of life, thus strengthened by nature in the regions of light and blessing us for health and immortality, bear for us the best of foods and energies of life for growth and for victory in the battles of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should be (Soma) do is taught further in the 18th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O God ! Thou art the punisher of all haughty persons. May we attain all powers and knowledge of all kinds which showers happiness on all. Thou who art perfect, grant to the immortal soul good reputation in the light and delight of spiritual knowledge. (2) It is also applicable to highly learned persons who should try to attain emancipation while doing good to others.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सोम) ऐश्वर्यप्रापक = Conveyor of wealth. (दिवि) विद्याप्रकाशे = In the light of knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should attain and preserve all noble virtues and good articles with knowledge and labour by the association of learned men, observance of the rules of health and taking of proper medicines. They should thus accomplish Dharma (Righteousness ) Artha (wealth) Kama (noble desire) and at the end attain emancipation by the Grace of God.

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