ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 91/ मन्त्र 21
अषा॑ळ्हं यु॒त्सु पृत॑नासु॒ पप्रिं॑ स्व॒र्षाम॒प्सां वृ॒जन॑स्य गो॒पाम्। भ॒रे॒षु॒जां सु॑क्षि॒तिं सु॒श्रव॑सं॒ जय॑न्तं॒ त्वामनु॑ मदेम सोम ॥
स्वर सहित पद पाठअषा॑ह्ळम् । यु॒त्ऽसु । पृत॑नासु । पप्रि॑म् । स्वः॒ऽसाम् । अ॒प्साम् । वृ॒जन॑स्य । गो॒पाम् । भ॒रे॒षु॒ऽजाम् । सु॒ऽक्षि॒तिम् । सु॒ऽश्रव॑सम् । जय॑न्तम् । त्वाम् । अनु॑ । म॒दे॒म॒ । सो॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अषाळ्हं युत्सु पृतनासु पप्रिं स्वर्षामप्सां वृजनस्य गोपाम्। भरेषुजां सुक्षितिं सुश्रवसं जयन्तं त्वामनु मदेम सोम ॥
स्वर रहित पद पाठअषाह्ळम्। युत्ऽसु। पृतनासु। पप्रिम्। स्वःऽसाम्। अप्साम्। वृजनस्य। गोपाम्। भरेषुऽजाम्। सुऽक्षितिम्। सुऽश्रवसम्। जयन्तम्। त्वाम्। अनु। मदेम। सोम ॥ १.९१.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 91; मन्त्र » 21
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे सोम यथौषधिगणो युत्स्वषाढं पृतनासु पप्रिं वृजनस्य गोपां भरेषुजां सुक्षितिं स्वर्षामप्सां सुश्रवसं जयन्तं त्वामरोगं कृत्वाऽऽनन्दयति तथैतं प्राप्य वयमनुमदेम ॥ २१ ॥
पदार्थः
(अषाढम्) शत्रुभिरसह्यमतिरस्करणीयम् (युत्सु) संग्रामेषु। अत्र संपदादिलक्षणः क्विप्। (पृतनासु) सेनासु (पप्रिम्) पालनशीलम् (स्वर्षाम्) यः स्वः सुखं सनोति तम्। सनोतेरनः। अ० ८। ३। १०८। अनेन षत्वम्। (अप्साम्) योऽपो जलानि सनुते तम् (वृजनस्य) बलस्य पराक्रमस्य। वृजनमिति बलना०। निघं० २। ९। (गोपाम्) रक्षकम् (भरेषुजाम्) बिभर्ति राज्यं यैस्ते भराः। भराश्च त इषवस्तान् भरेषून् जनयति तम्। अत्रापि विट् अनुनासिकस्यात्वं च। (सुक्षितिम्) शोभनाः क्षितयो राज्ये यस्य यस्माद्वा तम्। (सुश्रवसम्) शोभनानि श्रवांसि यशांसि श्रवणानि वा यस्य यस्माद्वा तम् (जयन्तम्) विजयहेतुम् (त्वाम्) (अनु) आनुकूल्ये (मदेम) आनन्दिता भवेम। अत्र विकरणव्यत्ययेन श्यनः स्थाने शप्। (सोम) सेनाद्यध्यक्ष ॥ २१ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। नहि मनुष्याणां सर्वगुणसम्पन्नेन सेनाध्यक्षेण सर्वगुणकारकाभ्यां सोमाद्योषधिगणविज्ञानसेवनाभ्यां च विना कदाचिदुत्तमराज्यमारोग्यं च भवितुं शक्यम्। तस्मादेतदाश्रयः सर्वैः सर्वदा कर्त्तव्यः ॥ २१ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
हे (सोम) सेना आदि कार्यों के अधिपति ! जैसे सोमलतादि ओषधिगण (युत्सु) संग्रामों में (अषाढम्) शत्रुओं से तिरस्कार को न प्राप्त होने योग्य (पृतनासु) सेनाओं में (पप्रिम्) सब प्रकार की रक्षा करनेवाले (वृजनस्य) पराक्रम के (गोपाम्) रक्षक (भरेषुजाम्) राज्यसामग्री के साधक बाणों को बनानेवाले (सुक्षितिम्) जिसके राज्य में उत्तम-उत्तम भूमि हैं (स्वर्षाम्) सबके सुखदाता (अप्साम्) जलों को देनेवाले (सुश्रवसम्) जिसके उत्तम यश वा वचन सुने जाते हैं (जयन्तम्) विजय के करनेवाले (त्वाम्) आपको रोगरहित करके आनन्दित करता है, वैसे उसको प्राप्त होकर हम लोग (अनुमदेम) अनुमोद को प्राप्त होवें ॥ २१ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को सब गुणों से युक्त सेनाध्यक्ष और समस्त गुण करनेवाले सोमलता आदि ओषधियों के विज्ञान और सेवन के विना कभी उत्तम राज्य और आरोग्यपन प्राप्त नहीं हो सकता, इससे उक्त प्रबन्धों का आश्रय सबको करना चाहिये ॥ २१ ॥
विषय
अपराजितता
पदार्थ
१. (सोम) = हे शान्त प्रभो ! (जयन्तम्) = विजय करते हुए (त्वां अनु) = आपके पीछे हम भी (मदेम) = आनन्द प्राप्त करें । आप (युत्सु अषाळ्हम्) = युद्धों में पराभूत न होनेवाले हैं । जब हम काम - क्रोधादि के साथ संग्राम में चलते हैं तब हृदय में आसीन आप ही इन वासनाओं को पराभूत करनेवाले होते हैं । (पृतनासु) = इन संग्रामों में (पप्रिम्) = पूरण करनेवाले आप ही हैं । आपके बिना हमारी शक्ति अति न्यून होती है । आप ही उसका पूरण करके हमारी विजय के साधक होते हैं । (स्वर्षाम्) = आप प्रकाश व सुख प्राप्त करानेवाले हैं, (अप्साम्) = रेतःशक्ति को देनेवाले हैं [आपः - रेतः] । इस शक्ति के कारण ही (वृजनस्य) = बल के (गोपाम्) = रक्षक हैं । शत्रुओं का वर्जन करनेवाला होने से 'वृजन' बल है । (भरेषुजाम्) = [भर - यज्ञ] यज्ञों में प्रकट होनेवाले हैं = 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः' । (सुक्षितिम्) = उत्तम निवासस्थानभूत हैं । प्रभु में निवास करनेवाले किसी भी प्रकार से अस्वस्थ नहीं होते । (सुश्रवसम्) = प्रभु उत्तम यश के कारणभूत हैं । प्रभु में निवास करनेवाले लोग सदा यशस्वी होते हैं २. इस प्रकार प्रभु से अपना सम्बन्ध जोड़नेवाले व्यक्ति युद्धों में अपराजित, विजयी, सुख व प्रकाश को प्राप्त, शक्तिशाली व बल = सम्पन्न होते हैं । ये यज्ञों के द्वारा प्रभुपूजन करते हुए प्रभु में निवास करते हैं और यशस्वी जीवनवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = प्रभु में निवास करनेवाला कभी पराजित नहीं होता ।
विषय
पक्षान्तर में उत्पादक परमेश्वर और विद्वान् का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( सोम ) राजन् ! सेनापते ! ( युत्सु ) युद्धों में ( अषाळहम् ) शत्रु से कभी पराजित न होने वाले, ( पृतनासु पप्रिं ) संग्रामों में या सेनाओं के बल पर राष्ट्र का पालन करने वाले, ( स्वर्षाम् = स्वः-साम् ) सुखों के देने वाले तथा शत्रुओं को उपताप, पीड़ा देने वाले, ( वृजनस्य ) शत्रु के वर्जने में समर्थ बल को ( गोपाम् ) रक्षक, ( भरेषुजाम् ) राज्य के भरण पोषण करने और शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले, धनाढ्य वैश्यों और बलशाली क्षत्रिय लोगों के उत्पादक अथवा संग्रामों में प्रसिद्ध, कुशल योद्धा, ( सुक्षितिम् ) उत्तम निवासस्थान और उत्तम भूमि के स्वामी, ( सुश्रवसम् ) उत्तम यशों, ज्ञानों और ऐश्वर्यों से युक्त ( जयन्तम् त्वाम् ) विजय करते तेरे विजय के साथ २ ही हम भी ( अनुमदेम ) खूब प्रसन्न हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४ स्वराट्पङ्क्तिः ॥ - २ पङ्क्तिः । १८, २० भुरिक्पङ्क्तिः । २२ विराट्पंक्तिः । ५ पादनिचृद्गायत्री । ६, ८, ९, ११ निचृद्गायत्री । ७ वर्धमाना गायत्री । १०, १२ गायत्री। १३, १४ विराङ्गायत्री । १५, १६ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १७ परोष्णिक् । १९, २१, २३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांना सर्व गुणांनी युक्त सेनाध्यक्ष व संपूर्ण गुणयुक्त सोमलता इत्यादी औषधांचे विज्ञान व सेवन याशिवाय कधी उत्तम राज्य व आरोग्य प्राप्त होऊ शकत नाही. त्यामुळे वरील व्यवस्थेचा आश्रय सर्वांनी घेतला पाहिजे. ॥ २१ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Soma, lord of joy, ecstasy and generosity in abundance, informidable in battles, protective and promotive in contests, abundant in the shower of waters, preserver of strength, hero of abundance in means of defence, lord of land and shelter, commanding fame and honour, and always victorious, we praise and celebrate you and enjoy life with you.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is soma is taught further in the 21st Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Commander-in Chief of the army etc. as Soma and other medicinal herbs make thee invincible in battle, triumphant in hosts, bestower of happiness, user of water in proper manner, preserver of strength, producer of powerful and protective arrow and other weapons, having good men in his kingdom or sway, renowned, victorious, diseaseless and delightened, so we may take them in properly and enjoy happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(स्वर्षाम्) यः स्वं सुखं सनोति तम् । सनोतेरनः (अ० ८.३.१०८) अनेन षत्वम् । = Giver of happiness. (सुक्षितिम्) शोभनाः क्षितयो राज्ये यस्य यस्माद् वा तम् = In whose kingdom or sway there are good persons. (सोम) सेनाद्यध्यक्ष = Commander of the army etc.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is not possible for people to have good kingdom and health without a commander of the army endowed with all noble virtues and the knowledge and proper use of the Soma and other medicinal plants. Therefore, all should resort to them.
Translator's Notes
षणु-दाने क्षितयः इति मनुष्यनाम (निघ० २.३) रेतः सोमः (कौषीतकी ब्रा० १३.७ ) रेतो वै सोमः (शतपथ० १.९.२.९॥ २५.१.९ ।। ३.८.५.१ ) = So a virile commander of the army is also called Soma.
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