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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 91/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - सोमः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    या ते॒ धामा॑नि दि॒वि या पृ॑थि॒व्यां या पर्व॑ते॒ष्वोष॑धीष्व॒प्सु। तेभि॑र्नो॒ विश्वै॑: सु॒मना॒ अहे॑ळ॒न्राज॑न्त्सोम॒ प्रति॑ ह॒व्या गृ॑भाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । ते॒ । धामा॑नि । दि॒वि । या । पृ॒थि॒व्याम् । या । पर्व॑तेषु । ओष॑धीषु । अ॒प्ऽसु । तेभिः॑ । नः॒ । विश्वैः॑ । सु॒ऽमनाः॑ । अहे॑ळन् । राज॑न् । सो॒म॒ । प्रति॑ । ह॒व्या । गृ॒भा॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या ते धामानि दिवि या पृथिव्यां या पर्वतेष्वोषधीष्वप्सु। तेभिर्नो विश्वै: सुमना अहेळन्राजन्त्सोम प्रति हव्या गृभाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या। ते। धामानि। दिवि। या। पृथिव्याम्। या। पर्वतेषु। ओषधीषु। अप्ऽसु। तेभिः। नः। विश्वैः। सुऽमनाः। अहेळन्। राजन्। सोम। प्रति। हव्या। गृभाय ॥ १.९१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 91; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तयोः कीदृशानि कर्माणि सन्तीत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे सोम राजन् ते तव या यानि धामानि दिवि या यानि पृथिव्यां या यानि पर्वतेष्वोषधीष्वप्सु सन्ति। तेभिर्विश्वैः सर्वैरहेडन् सुमनास्त्वं हव्यानि नः प्रति गृभाय ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (या) यानि (ते) तव (धामानि) नामजन्मस्थानानि (दिवि) प्रकाशमये सूर्य्यादौ दिव्यव्यवहारे वा (या) यानि (पृथिव्याम्) (या) यानि (पर्वतेषु) (ओषधीषु) (अप्सु) (तेभिः) तैः (नः) अस्मान् (विश्वैः) सर्वैः (सुमनाः) शोभनविज्ञानः (अहेडन्) अनादरमकुर्वन् (राजन्) सर्वाधिपते (सोम) सर्वोत्पादक (प्रति) (हव्या) हव्यानि दातुमादातुं योग्यानि (गृभाय) गृहाण ग्राहय वा। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। ग्रह धातोर्हस्य भत्वं श्नः स्थाने शायजादेशश्च ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    यथा जगदीश्वरः स्वसृष्टौ वेदद्वारा सृष्टिक्रमान् दर्शयित्वा सर्वा विद्याः प्रकाशयति तथैव विद्वांसोऽधीतैः साङ्गोपाङ्गैर्वेदैर्हस्तक्रियया च कलाकौशलानि दर्शयित्वा सर्वान् सकला विद्या ग्राहयेयुः ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उन दोनों के कैसे काम हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (सोम) सबको उत्पन्न करनेवाले (राजन्) राजा ! (ते) आपके (या) जो (धामानि) नाम, जन्म और स्थान (दिवि) प्रकाशमय सूर्य्य आदि पदार्थ वा दिव्य व्यवहार में वा (या) जो (पृथिव्याम्) पृथिवी में वा (या) जो (पर्वतेषु) पर्वतों वा (ओषधीषु) ओषधियों वा (अप्सु) जलों में है (तेभिः) उन (विश्वैः) सबसे (अहेडन्) अनादर न करते हुए (सुमनाः) उत्तम ज्ञानवाले आप (हव्याः) देने-लेने योग्य कामों को (नः) हमको (प्रति+गृभाय) प्रत्यक्ष ग्रहण कराइये ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जैसे जगदीश्वर अपनी रची सृष्टि में वेद के द्वारा इस सृष्टि के कामों को दिखाकर सब विद्याओं का प्रकाश करता है, वैसे ही विद्वान् पढ़े हुए अङ्ग और उपाङ्ग सहित वेदों से हस्तक्रिया के साथ कलाओं की चतुराई को दिखाकर सबको समस्त विद्या का ग्रहण करावें ॥ ४ ॥

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    विषय

    शक्ति के स्त्रोत 'ओषधियाँ व जल'

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र का प्रभुभक्त प्रार्थना करता है कि हे (राजन्) = देदीप्यमान, सम्पूर्ण संसार का शासन करनेवाले (सोम) = अत्यन्त शान्त प्रभो ! (या) = जो (ते) = तेरे (धामानि) = तेज (दिवि) = द्युलोक में अथवा दीप्त सूर्य में (या) = जो तेज (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी में हैं, (या) = जो (पर्वतेषु) = पर्वतों में हैं, (ओषधीषु) = नाना प्रकार की ओषधियों में व (अप्सु) = जलों में हैं, (तेभिः विश्वैः) = उन सब तेजों से उपलक्षित [युक्त] (सुमनाः) = हमारे प्रति उत्तम मनवाले होते हुए, (अहेळन्) = हमारे प्रति किसी प्रकार का क्रोध न करते हुए (नः) = हमें (हव्या) = हव्य पदार्थों को (प्रतिगृभाय) = प्रतिदिन ग्रहण कराइए । २. प्रभु ने द्युलोक में सूर्य व पृथिवीलोक में अग्नि को स्थापित करके पर्वतों में विविध ओषधियों को जन्म दिया है और जलप्रवाह की व्यवस्था की है । सूर्य उन ओषधियों में प्राणदायी तत्त्व का स्थापन करता है और पृथिवी की अग्नि उन ओषधियों का ठीक से पाचन करती है । इन औषधियों व जलों के प्रयोग से हमें सब तेजस्विताएँ प्राप्त होती है, परन्तु ये प्राप्त हमें तभी होती हैं जब हम प्रभुकृपा के भाजन बने रहते हैं । उसकी कृपा का भाजन बनने का उपाय यही है कि हम 'राजन् व सोम' इन सम्बोधनों से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को बड़ा व्यवस्थित = regulated व सौम्य - शान्त बनाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ = अपने जीवनों को व्यवस्थित व शान्त बनाते हुए हम ओषधि व जलादि हव्य [पवित्र] पदार्थों का प्रयोग करते हुए अपने जीवन को तेजस्विता से दीप्त बनाएँ ।

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    विषय

    श्रेष्ठ राजा वरुण का वर्णन, उसके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( राजन ) राजन् ! सबके अधिपते ! और सर्वत्र प्रकाशमान ! हे (सोम) सब जगत् के उत्पादक परमेश्वर ! (ते) तेरे ( या ) जो ( धामानि ) जगत् को धारण करने वाले महान् बल, सामर्थ्य, ( दिवि ) सूर्य में, ( या ) जो धारण पोषण सामर्थ्य ( पृथिव्याम् ) पृथिवी में और ( या पर्वतेषु ) जो पर्वतों में, ( या ओषधीषु ) जो ओषधियों में और ( या अप्सु ) जो जलों में हैं, ( तेभिः ) उन ( विश्वैः ) सब सामर्थ्य से हम पर अनुग्रह करता हुआ ( हव्या ) देने और ग्रहण करने योग्य समस्त पदार्थों का ( प्रति गृभाय) प्रत्येक प्राणी को प्रदान कर और अपने वश कर । (२) राजा के पक्ष में—( दिवि ) ज्ञानसम्बन्धी कार्यों व्यवहार या विद्वत् सभा में ( पृथिव्यां ) पृथिवी निवासी प्रजा में ( पर्वतेषु ) पर्वतों और मेघों के समान अचल और शस्त्रवर्षी नायकों में और ताप, दाह युक्त प्रतापी सेनाओं में जो तेरे ( धामनि ) तेज, पराक्रम हैं उन सबसे हम प्रजाओं का तिरस्कार न करता हुआ ( हव्या ) ग्राह्य और दान योग्य ऐश्वर्यों को ले और दान कर । अथवा अन्तरिक्ष पृथिवी, पर्वत आदि स्थानों में सब उत्तम पदार्थ तेरे हैं, प्रजा को वञ्चित न करता हुआ योग्य रीति से राजस्व, और प्रजा-स्व का विभाग कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४ स्वराट्पङ्क्तिः ॥ - २ पङ्क्तिः । १८, २० भुरिक्पङ्क्तिः । २२ विराट्पंक्तिः । ५ पादनिचृद्गायत्री । ६, ८, ९, ११ निचृद्गायत्री । ७ वर्धमाना गायत्री । १०, १२ गायत्री। १३, १४ विराङ्गायत्री । १५, १६ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १७ परोष्णिक् । १९, २१, २३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे जगदीश्वर स्वनिर्मित सृष्टीत वेदाद्वारे सृष्टिक्रम दर्शवून विद्या प्रकाशित करतो तसेच विद्वानांनी अंग व उपांगासह वेदातील हस्तक्रियेसह कलाकौशल्य दाखवून सर्वांना संपूर्ण विद्या ग्रहण करण्यास लावावी. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Soma, ruling lord of vitality, life and joy, whatever and wherever your homes in the regions of light, wherever on earth, wherever on the mountains, wherever in the herbs and waters, with all of them, lord good at heart and well-disposed, bless us with the holy materials for yajna and, in return, accept our homage of yajnic oblations.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O God Creator and Lord of the world. endowed with all the glories that are displayed by Thee in heaven, on earth, in the mountains, in the plants, in the waters, do Thou being well-disposesed or kind towards us and devoid of wrath, accept our oblations and pure minds with all of them (Thy glories) and enable us to attain them.(2)The mantra is also applicable to highly learned persons who manifest their glory every where and make proper use of all things, being kind to all and devoid of anger.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (धामानि) नामजन्मस्थानानि = Name, birth or orgin and place. तेजांसि ( Splendours or glories). (सोम) सर्वोत्पाद = Creator of all. (हव्या) हव्यानि दातुम् आदातुं योग्यानि = Objects worthy of giving and taking.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As God illuminates all sciences through the Vedas by exhibiting order in his creation, in the same manner, it is the duty of great scholars to impart knowledge to all that they have received through the Vedas with all their branches and auxiliaries and their practical application.

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