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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 100/ मन्त्र 2
    ऋषिः - दुवस्युर्वान्दनः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    भरा॑य॒ सु भ॑रत भा॒गमृ॒त्वियं॒ प्र वा॒यवे॑ शुचि॒पे क्र॒न्ददि॑ष्टये । गौ॒रस्य॒ यः पय॑सः पी॒तिमा॑न॒श आ स॒र्वता॑ति॒मदि॑तिं वृणीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भरा॑य । सु । भ॒र॒त॒ । भा॒गम् । ऋ॒त्विय॑म् । प्र । वा॒यवे॑ । शु॒चि॒ऽपे । क्र॒न्दत्ऽइ॑ष्टये । गौ॒रस्य॑ । यः । पय॑सः । पी॒तिम् । आ॒न॒शे । आ । स॒र्वऽता॑तिम् । अदि॑तिम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भराय सु भरत भागमृत्वियं प्र वायवे शुचिपे क्रन्ददिष्टये । गौरस्य यः पयसः पीतिमानश आ सर्वतातिमदितिं वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भराय । सु । भरत । भागम् । ऋत्वियम् । प्र । वायवे । शुचिऽपे । क्रन्दत्ऽइष्टये । गौरस्य । यः । पयसः । पीतिम् । आनशे । आ । सर्वऽतातिम् । अदितिम् । वृणीमहे ॥ १०.१००.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 100; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (भराय) पोषक (शुचिपे) पवित्र या तेजस्वी ज्ञानरस पिलानेवाले (क्रन्ददिष्टये) स्तुति करनेवाले का अध्यात्मयज्ञ जिसके लिये है, उस (वायवे) वायुसमान जीवनप्रद-या ज्ञानस्वरूप परमात्मा के लिये (ऋत्वियम्) ऋतुप्राप्त समयानुकूल (भागम्) भजन-स्तुतिवचन (सुभरत) सुसम्पादन करो (यः) जो (गौरस्य) स्तुतिवाणी में रमनेवाले के (पयसः) उपासनारस का (पीतिम्-आनशे) पान प्राप्त करता है-स्वीकार करता है, उस (सर्वतातिम्) जगद्विस्तारक (अदितिम्) अनश्वर परमात्मा को (आ वृणीमहे) भलीभाँति वरते हैं-अपनाते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा पोषणकर्त्ता ज्ञानरस का पिलानेवाला जीवनप्रद है, जो उपासक स्तुति में रत है, यथासमय उपासना करता है, उसके उपासनारस को स्वीकार करता है, उस जगद्विस्तारक अविनाशी का मानना उसकी स्तुति करना अवश्य चाहिए ॥२॥

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    विषय

    'भर वायु शुचिपा - क्रन्ददिष्टि'

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में प्रार्थना थी कि वह सविता देवों के द्वारा हमारे ज्ञान का रक्षण करे। उन देवों से प्रार्थना करते हैं कि हे देवो! आप (भराय) = अपना ठीक से पोषण करनेवाले, (वायवे) = गतिशील के लिए, (शुचिपे) = शुद्ध सोम का पान करनेवाले के लिए, वीर्य को अपने अन्दर ही सुरक्षित करनेवाले के लिए, (क्रन्दद् इष्टये) = यज्ञादि उत्तम कर्मों की प्रार्थना करनेवाले के लिए (ऋत्वियं भागम्) = उस-उस ऋतु व समय के अनुकूल भजनीय अंश का (सु प्रभरत) = अच्छी प्रकार खूब ही भरण कीजिए। मातृ-देवता से हमारे जीवन के प्रारम्भ में उत्तम चरित्र का भरण किया जाए। अब पितृदेव शिष्टाचार का हमारे में भरण करें और तब आचार्य अधिक से अधिक ज्ञान का हमें भक्षण कराएँ। इस प्रकार चरित्र आचार व ज्ञान को प्राप्त करके हम अपने जीवनों को सुन्दर बना पाएँ । [२] उस मेरे लिए ये देव ऋत्विय भाग का भरण करनेवाले हों (यः) = जो मैं (गौरस्य पयसः) = शुद्ध दूध के (पीतिम्) = पान को आनशे-अपने जीवन में व्याप्त करता हूँ। अर्थात् जो मैं शुद्ध दूध का पीनेवाला बनता हूँ। दूध आदि सात्त्विक पदार्थों का सेवन जीवन में उन्नति के लिए आवश्यक है। इस दूध का सेवन करते हुए हम (सर्वतातिम्) = सब उत्तमताओं का विस्तार करनेवाली (अदितिम्) = स्वास्थ्य की देवता का (आवृणीमहे) = सर्वथा वरण करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-देवता हमें ऋत्वियभाग तभी प्राप्त करा पाते हैं जब कि हम 'भर, वायु, शुचिपा व क्रन्ददिष्टि' हों तथा शुद्ध दूध आदि सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करें।

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    विषय

    विद्वानों से उत्तम ऐश्वर्य और उत्तम राजा की याचना।

    भावार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! आप लोग (भराय) सब के पालन पोषण करने वाले, (वायवे) वायु के समान बलवान्, सबके प्राणवत् प्रिय, (शुचि-पे) शुद्ध अन्न जल का उपभोग करने वाले, (क्रन्दत्-इष्टये) इष्टि, अभिलषित का उपदेश करने वाले के लिये (ऋत्वियम्) ऋतुओं के योग्य (भागं) सेवनीय अंश को (सु भरत) उत्तम रीति से प्राप्त कराओ। (यः) जो स्वयं (गौरस्य) शुद्ध पवित्र, गौ के तुल्य भूमि में दिये (पयसः) पुष्टिप्रद दूध के समान अंश को (पीतिम्) पान को (आनशे) पुत्रवत् प्राप्त करता है उस (अदितिम्) अदीन सूर्यवत् तेजस्वी (सर्व-तातिं) सर्वमंगलकारी शुभ राजा वा प्रभु को हम (आ वृणीमहे) आदर पूर्वक वरण करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्दुवस्युर्वान्दनः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः–१–३ जगती। ४, ५, ७, ११ निचृज्जगती। ६, ८, १० विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती। १२ विराट् त्रिष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (भराय) पोषकाय (शुचिपे) शुचिं पवित्रं तेजस्विनं वा ज्ञानरसं पाययति यतस्तस्मै (क्रन्ददिष्टये) क्रन्दतः स्तोतुः-इष्टिरध्यात्मयज्ञो यस्मै तस्मै (वायवे) वायुवज्जीवनप्रदाय ज्ञानस्वरूपाय वा परमात्मने (ऋत्वियं भागम्) ऋतुप्राप्तं “समयानुकूलं भजनं स्तुतिवचनम् (सु भरत) सुसम्पादयत (यः) यः खलु (गौरस्य पयसः) स्तुतिवाचिरममाणस्य” गौरः-गवि वाचि रमते सः [ऋ० ४।५८।२ दयानन्दः] ‘औकारादेशश्छान्दसः’ उपासनारसस्य “रसो वै पयः” [श० ४।४।४।८] (पीतिम्-आनशे) पानं प्राप्नोति स्वीकरोति यस्तं (सर्वतातिम्-अदितिम्-आ वृणीमहे) सर्वजगद्विस्तारकमनश्वरं देवं त्वां समन्ताद् वृणुयाम ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    For the divine sustainer, bear and bring your part of homage and yajnic offerings for the vibrant winds and roaring clouds of divinity, all purifying for our good. They accept, taste and enjoy the nectar sweets of the songs and homage of the enlightened devotees. By reason, faith and choice of will, we wholly abide in and by the divine imperishable mother spirit of total existence.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा पोषणकर्ता ज्ञानरस पाजविणारा जीवनप्रद आहे. जो उपासक स्तुतीमध्ये रत आहे, योग्य वेळी उपासना करतो. त्याच्या उपासना रसाचा तो स्वीकार करतो. त्या जग विस्तारक अविनाशीला (परमेश्वराला) मानून त्याची स्तुती अवश्य केली पाहिजे. ॥२॥

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