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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 100 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 100/ मन्त्र 6
    ऋषिः - दुवस्युर्वान्दनः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    इन्द्र॑स्य॒ नु सुकृ॑तं॒ दैव्यं॒ सहो॒ऽग्निर्गृ॒हे ज॑रि॒ता मेधि॑रः क॒विः । य॒ज्ञश्च॑ भूद्वि॒दथे॒ चारु॒रन्त॑म॒ आ स॒र्वता॑ति॒मदि॑तिं वृणीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । नु । सुऽकृ॑तम् । दैव्य॑म् । सहः॑ । अ॒ग्निः । गृ॒हे । ज॒रि॒ता । मेधि॑रः । क॒विः । य॒ज्ञः । च॒ । भू॒त् । वि॒दथे॑ । चारुः॑ । अन्त॑मः । आ । स॒र्वऽता॑तिम् । अदि॑तिम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य नु सुकृतं दैव्यं सहोऽग्निर्गृहे जरिता मेधिरः कविः । यज्ञश्च भूद्विदथे चारुरन्तम आ सर्वतातिमदितिं वृणीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य । नु । सुऽकृतम् । दैव्यम् । सहः । अग्निः । गृहे । जरिता । मेधिरः । कविः । यज्ञः । च । भूत् । विदथे । चारुः । अन्तमः । आ । सर्वऽतातिम् । अदितिम् । वृणीमहे ॥ १०.१००.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 100; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्रस्य) ऐश्वर्यवान् परमात्मा का (सुकृतम्) सुखसम्पादक (दैव्यम्) जीवन्मुक्त विद्वानों के लिए-हितकर (सहः-नु) बल अवश्य है (विदथे) अनुभवस्थान (गृहे) उपासकों के हृदय घर में (जरिता) दोषों को क्षीण करनेवाला (मेधिरः) मेधावी-मेधाप्रद (कविः) सर्वज्ञ (अग्निः) अग्रणायक है (यज्ञः) सङ्गमनीय (चारुः) सेवनीय (च) और (अन्तमः) अत्यन्त निकट (भूत्) है (सर्वतातिम्०) पूर्ववत् ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा का ज्ञानबल जीवन्मुक्त विद्वानों के लिए अत्यन्त सुखसम्पादक है, वह उसके साक्षात् करने योग्य हृदय घर में दोषों को नष्ट करनेवाला मेधाप्रद विद्यमान है, उनके द्वारा सङ्गमनीय जीवन में धारण करने योग्य है, उस जगद्विस्तारक अविनाशी को अपनाना चाहिए ॥६॥

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    विषय

    दैव्यं सहः

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रस्य) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (सहः) = बल (नु) = निश्चय से (सुकृतम्) = उत्तम कर्मों को करनेवाला तथा (दैव्यम्) = दिव्यगुणों का उत्पादक है। प्रभु की उपासना से हमें वह बल प्राप्त होता है, जिससे कि हम उत्तम ही कर्म करते हैं और अपने में दैवी सम्पत्ति को बढ़ानेवाले होते हैं। [२] (अग्निः) = वे अग्रेणी प्रभु गृहे इस शरीररूप गृह में (जरिता) = [ जरिता = गरिता नि० १।७] ज्ञान का उपदेश करनेवाले हैं। (मेधिरः) = बुद्धि को देनेवाले हैं । (कविः) = ' कौति सर्वाः विद्या:' सब सत्य विद्याओं का उपदेश देनेवाले हैं। सर्वज्ञ होते हुए सब ज्ञानों को देते हैं । [२] (च) = और (यज्ञः) = वे सब कुछ देनेवाले प्रभु (विदथे) ज्ञानयज्ञों में (चारुः) = [चारयति] हमें सब ज्ञानों का भक्षण करानेवाले हैं और (अन्तमः) = हमारे अन्तिकतम हैं। हमारे हृदयों में ही निवास करते हुए वे प्रभु हमारे लिए ज्ञानों को देनेवाले हैं। हृदयस्थरूपेण ही वे ज्ञान का प्रकाश करते हैं। इनसे हम (सर्वतातिम्) = सब गुणों का विस्तार करनेवाले (अदितिम्) = स्वास्थ्य को आवृणीमहे सर्वथा वरते हैं । स्वास्थ्य ही 'धर्मार्थकाममोक्ष' सभी का आधार बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु की उपासना से हमें धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति होती है ।

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    विषय

    प्रभु सर्वशक्तिमान्, ज्ञानी, व्यापक की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (इन्द्रस्य) महान् ऐश्वर्यवान्, तेजस्वी, सूर्यवत् सर्वप्रकाशक प्रभु वा आत्मा का (तु) ही निश्चय से (सु-कृतम्) सुखजनक उत्तम रीति से सम्पादित वा उत्तमोत्तम पदार्थों को उत्पन्न करने वाला (दैव्यं) देव, इन्द्रियों, विद्वानों, पृथिव्यादि लोकों का उपकारक (सहः) बल है। वह (गृहे) गृह में (अग्निः) अग्नि के तुल्य (जरिता) सबको जीर्ण, पक्व करने वाला, ज्ञानी के तुल्य उपदेष्टा, वही (मेधिरः कविः) बुद्धिमान् क्रान्तदर्शी, विद्वान् के तुल्य है। वही (विदधे) ज्ञान में (यज्ञः) पूज्य (चारुः) सर्वत्र व्यापक और (अन्तमः) हमारे अति समीपतम है। उस (सर्वतातिम् अदितिं वृणीमहे) सर्वजगत् प्रसारक, अखण्ड देव की प्रार्थना करते हैं। इति षोडशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्दुवस्युर्वान्दनः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः–१–३ जगती। ४, ५, ७, ११ निचृज्जगती। ६, ८, १० विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती। १२ विराट् त्रिष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रस्य सुकृतं दैव्यं सहः-नु) ऐश्वर्यवतः परमात्मनः सुसुखसम्पादकं देवेभ्यो विद्वद्भ्यो जीवन्मुक्तेभ्यो-हितकरमुक्थ्यं बलमस्ति (विदथे) अनुभवस्थाने (गृहे जरिता मेधिरः कविः-अग्निः) उपासकस्य हृदये दोषाणां जरयिता मेधावी मेधाप्रदः सर्वज्ञोऽग्रणायको वर्त्तते (यज्ञः-चारुः-अन्तमः-च भूत्) सङ्गमनीयः सेवनीयः-अन्तिमतमो नितान्तो निकटश्चास्ति (सर्वतातिम्०) पूर्ववत् ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni in the home is a version and reflection of mighty lndra itself, holy performer, divine power, celebrant divinity, adorable in yajna, creator and giver of light and poetic vision, which is yajna itself, closest and most beautiful in the holiest creative and social acts.$We honour and adore Aditi, mother Infinity of universal and imperishable order of divine generosity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याचे ज्ञानबल जीवनमुक्त विद्वानासाठी अत्यंत सुखसंपादक आहे. तो साक्षात् करण्योयाग्य व हृदयातील दोष नष्ट करणारा मेधाप्रद आहे. त्यांच्या द्वारे संगमनीय असून जीवनात धारण करण्यायोग्य आहे. त्या जगविस्तारक अविनाशीला आपलेसे करावे. ॥६॥

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