ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 100/ मन्त्र 7
ऋषिः - दुवस्युर्वान्दनः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
न वो॒ गुहा॑ चकृम॒ भूरि॑ दुष्कृ॒तं नाविष्ट्यं॑ वसवो देव॒हेळ॑नम् । माकि॑र्नो देवा॒ अनृ॑तस्य॒ वर्प॑स॒ आ स॒र्वता॑ति॒मदि॑तिं वृणीमहे ॥
स्वर सहित पद पाठन । वः॒ । गुहा॑ । च॒कृ॒म॒ । भूरि॑ । दुः॒ऽकृ॒तम् । न । आ॒विःऽत्य॑म् । व॒स॒वः॒ । दे॒व॒ऽहेळ॑नम् । माकिः॑ । नः॒ । दे॒वाः॒ । अनृ॑तस्य । वर्प॑सः । आ । स॒र्वऽता॑तिम् । अदि॑तिम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न वो गुहा चकृम भूरि दुष्कृतं नाविष्ट्यं वसवो देवहेळनम् । माकिर्नो देवा अनृतस्य वर्पस आ सर्वतातिमदितिं वृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठन । वः । गुहा । चकृम । भूरि । दुःऽकृतम् । न । आविःऽत्यम् । वसवः । देवऽहेळनम् । माकिः । नः । देवाः । अनृतस्य । वर्पसः । आ । सर्वऽतातिम् । अदितिम् । वृणीमहे ॥ १०.१००.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 100; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वसवः) हे बसानेवाले पूज्य महानुभावों ! (वः) तुम्हारे प्रति (भूरि दुष्कृतम्) बहुत पाप (गुहा-न चकृम) बुद्धि में-मन में जानकर न करें (न-आविष्ट्यम्) न बाहर-सक्षम करें (देवहेडनम्) विद्वानों का अनादर न करें (देवाः) हे विद्वानों ! (अनृतस्य वर्पसः) असत्य के स्वरूप के (माकिः) न कदापि अपराधी होवें (सर्वतातिम्०) पूर्ववत् ॥७॥
भावार्थ
विद्या आदि से बसानेवाले विद्वानों के प्रति दुर्व्यवहार या पाप बाहर या भीतर मन में पापचिन्तन तथा उसका अनादर नहीं करना चाहिए और न कभी असत्य के अपराधी बनें, किन्तु उस जगद्विस्तारक अविनाशी परमात्मा का स्मरण करें ॥७॥
विषय
प्रच्छन्न व प्रकट दुष्टकृत से दूर
पदार्थ
[१] हे (वसवः) = वसुओ ! निवास के लिए आवश्यक तत्त्वो ! हम (गुहा) = प्रच्छन्न देश में, अर्थात् हृदय में (वः) = आपका (भूरि दुष्कृतम्) = बहुत पाप व अपराध (न चक्रम) = न करें। और (न) = ना ही (आविष्ट्यम्) = प्रकटरूप में होनेवाले (देवहेडनम्) = देवों के निरादर को करें। मन में [गुहा में] वसुओं के प्रति होनेवाला अपराध यही है कि वहाँ 'ईर्ष्या-द्वेष-क्रोध' आदि घातक तत्त्वों को स्थान देना । प्रकट रूप में देवों का तिरस्कार यह है कि सूर्यादि के सम्पर्क में जीवन को न बिताना । 'ऐसे मकान में रहना जहाँ कि सूर्य किरणों व वायु का प्रवेश ठीक से न हो' यह देवों का तिरस्कार है। न तो हम मन में वसुओं के विनाशक ईर्ष्यादि भावों को स्थान दे और ना ही सूर्यादि से असंपृक्त जीवन को बिताएँ, सदा खुले में रहने का ध्यान करें। [२] हे (देवा:) = देवो ! इस प्रकार आपके विषय में प्रच्छन्न व प्रकट पापों से ऊपर उठने पर (नः) = हमें (अनृतस्य वर्षसः) = अनृतरूप की (माकि:) = प्राप्ति न हो। हमारा रूप सत्य व तेजस्वी हो । मन के दृष्टिकोण से ईर्ष्यादि से रहित तथा शरीर के दृष्टिकोण से तेजस्वीरूप ही सत्य रूप है। हम (सर्वतातिम्) = सब अच्छाइयों का विस्तार करनेवाले (अदितिम्) = स्वास्थ्य को (आवृणीमहे) = सर्वथा वरते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ-मन में ईर्ष्यादि से ऊपर उठकर तथा खुले में जीवन बिताते हुए हम सत्यस्वरूपवाले हों ।
विषय
पापत्याग की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (वसवः) गृह में बसे माता पितावत् पूज्य जनो ! हम लोग (गुहा) छुपे घर वा मन में (दुष्कृतम्) पाप (न भूरि चकृम) सर्वथा न करें और (आविः-त्यम्) और प्रकट रूप में कर्म से भी (भूरि दुष्कृतम् न चकृम) बहुत बार २ पाप न किया करें। जिससे (देव हेडनम्) परमेश्वर और राजा तथा विद्वानों का क्रोध (नः माकिः) हमें न प्राप्त हो। (सर्वतातिं अदितिं आ वृणीमहे) हम सर्वमंगलकारी, प्रभु से यही प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्दुवस्युर्वान्दनः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः–१–३ जगती। ४, ५, ७, ११ निचृज्जगती। ६, ८, १० विराड् जगती। ९ पादनिचृज्जगती। १२ विराट् त्रिष्टुप्। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वसवः) वासयितारो देवाः-पूज्यमहानुभावाः ! (वः) युष्मान् प्रति (भूरि दुष्कृतम्) बहुपापं ज्ञात्वा यत् पापं तत् (गुहा न चकृम) गुहायां बुद्धौ “गुहा गुहायां बुद्धौ” [यजु० ३२।८ दयानन्दः] न कुर्मः (न-आविष्ट्यम्) न बाह्ये समक्षे कुर्म (देवहेडनम्) न विदुषामनादरं कुर्मः “हेडृ अनादरे” (देवाः) विद्वांसः (अनृतस्य वर्पसः) असत्यस्य रूपस्य-स्वरूपस्य (माकिः) न कदापि अपराधिनो भवेम (सर्वतातिम्०) पूर्ववत् ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Devas, generous divinities of nature and humanity, O Vasus, givers of peace and settlement at heart, never must we do any act of sin and violence open or covert toward you, never incur the displeasure of divinity. Never must we put on the garb of untruth in thought, word and deed. We honour and adore the universal imperishable mother spirit of divine nature.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्या देणाऱ्या विद्वानांबरोबर दुर्व्यवहार किंवा पाप करू नये. पापाचे मनात चिंतन व आत एक व बाहेर एक, असे वागू नये. विद्वानांचा अनादर करता कामा नये व कधी असत्याचा व्यवहार करून अपराधी बनता कामा नये तर त्या जग विस्तारक परमात्म्याचे स्मरण करावे. ॥७॥
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