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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 117/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भिक्षुः देवता - धनान्नदानप्रशंसा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स इद्भो॒जो यो गृ॒हवे॒ ददा॒त्यन्न॑कामाय॒ चर॑ते कृ॒शाय॑ । अर॑मस्मै भवति॒ याम॑हूता उ॒ताप॒रीषु॑ कृणुते॒ सखा॑यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । इत् । भो॒जः । यः । गृ॒हवे॑ । ददा॑ति । अन्न॑ऽकामाय । चर॑ते । कृ॒शाय॑ । अर॑म् । अ॒स्मै॒ । भ॒व॒ति॒ । याम॑ऽहूतौ । उ॒त । अ॒प॒रीषु॑ । कृ॒णु॒ते॒ । सखा॑यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स इद्भोजो यो गृहवे ददात्यन्नकामाय चरते कृशाय । अरमस्मै भवति यामहूता उतापरीषु कृणुते सखायम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । इत् । भोजः । यः । गृहवे । ददाति । अन्नऽकामाय । चरते । कृशाय । अरम् । अस्मै । भवति । यामऽहूतौ । उत । अपरीषु । कृणुते । सखायम् ॥ १०.११७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 117; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (सः-इत्) वह ही मनुष्य (भोजः) अन्यों को भोजन करानेवाला है या पालनेवाला है (यः) जो (गृहवे) अन्न के ग्राहक पात्र के लिये तथा (अन्नकामाय) अन्न इच्छुक के लिये (चरते) विचरण करते हुए आगन्तुक के (कृशाय) क्षीण शरीरवाले के लिये (ददाति) अन्न देता है (अस्मै) इस अन्नदाता के लिये (यामहूतौ) समय की पुकार पर तथा आवश्यकता के अवसर पर (अरं भवति) पर्याप्त हो जाता है (उत) और (अपरीषु) अन्य प्रजाओं में (सखायं-कृणुते) अपने को उनका मित्र बना लेता है ॥३॥

    भावार्थ

    भोजन खानेवाला, खिलानेवाला या पालक वह ही है, उसे ही कहना चाहिये, जो अन्न के ग्राहक, अन्न के चाहनेवाले-विचरण करते हुए आगन्तुक और कृश शरीर के लिये देता है, इस ऐसे दाता के लिये समय की पुकार पर पर्याप्त हो जाता है, मिल जाता है, उसके पास कमी नहीं रहती, दूसरे विरोधी जनों का भी वह मित्र बन जाता है, सब उसकी प्रशंसा करते हैं ॥३॥

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    विषय

    'भोज' [का लक्षण]

    पदार्थ

    [१] (सः इत्) = वह ही (भोजः) = अपना पालन करनेवाला है, (यः) = जो (गृहवे) = भिक्षा को ग्रहण करनेवाले, (अन्नकामाय) = अन्न की कामनावाले, (चरते) = यत्र-तत्र विचरण करते हुए (कृशाय) = [enuneiated] दुर्बल के लिए (ददाति) = अन्न को देता है। वस्तुतः इस प्रकार औरों के लिए देकर हुए को खानेवाला ही प्रभु का प्रिय होता है, यह विषय-वासनाओं का शिकार न होकर वस्तुतः बचे अपना पालन करनेवाला होता है । [२] (अस्मै) = इसके लिए यामहूतौ [यामाः गन्तारो देवा: हूयन्ते यत्र ] यज्ञों में, [याम - प्रहर] उस-उस समय की पुकार में उस-उस समय की आवश्यकता की पूर्ति के लिए (अरं भवति) = पर्याप्त होता है, अर्थात् इसे किसी कार्य के लिए धन की कमी नहीं रहती। [३] (उत) = और (अपरीषु) = परायों में भी, शत्रु प्रजाओं में भी (सखायं कृणुते) = मित्र को करता है। शत्रु प्रजाएँ भी इसके लिए सहायक होती हैं। शत्रु भी इसके मित्र बन जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - अन्न की कामना से विचरण करनेवाले के लिए जो अन्न को देता है, वही वस्तुतः अपना भी वस्तुतः पालन करता है। किसी भी आवश्यक कार्य के लिए इसे धन की कमी नहीं होती । शत्रु भी इसके मित्र बन जाते हैं ।

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    विषय

    दाता की सद्गति।

    भावार्थ

    (यः गृहवे ददाति) जो ग्रहण करने वाले उत्तम पात्र को अन्न आदि देता है और (यः) जो (अन्न-कामाय चरते ददाति) अन्न की अभिलाषा से भिक्षा आचरण करने वाले को अन्नदान करता है और जो (कृशाय) कृश, भूखे, निर्बल को अन्न देता है, (अस्मै यामहूतौ) उसको यज्ञ के निमित्त (अरं भवति) बहुत अधिक प्राप्त होता है, (सः इत् भोजः) वही सच्चा रक्षक है (उत) और वह (अपरीषु सखायं कृणुते) परायों में वा शत्रु आदि की प्रजाओं में भी अपना सहायक प्राप्त कर लेता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्भिक्षुः॥ इन्द्रो देवता—घनान्नदान प्रशंसा॥ छन्दः—१ निचृज्जगती—२ पादनिचृज्जगती। ३, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (सः इत्-भोजः) वही भोजनदाता भोजन कराने वाला है (यः) जो (गृहवे) ग्रहणकर- भोजनदान के लेने वाले के लिए (अन्नकामाय) अन्न चाहने वाले विद्वान् के लिए (चरते) भटकते हुए व्यक्ति के लिए (कृशाय) निर्बल के लिए (ददाति) देता है (यामहूतौ अस्मै अरं भवति) याम अर्थात् समय-अवसर की पुकार पर देने लेने खाने के समय भोजन की आवश्यकता पर इस अन्नदाता के लिये अन्न पर्याप्त हो जाता है (उत) तथा (अपरीषु सखायं कृणुते) दूसरी प्रजाओं में अपने को मित्र बनाता है- प्यारा बनाता है ॥३॥

    टिप्पणी

    धृड् ग्रवध्वंसने" (स्वादि०) धृड् “आन आढ्यालुर्दरिद्रः” (निरु० १२,१४) "रफ हिंसायाम्” (कविकल्पद्रुमः)

    विशेष

    ऋषिः- भिक्षुः परमात्म सत्सङ्ग का भिक्षु गौणरूप में अन्न का भी भिक्षु परमात्मसत्सङ्गार्थ ही भिक्षु [(अन्न का भिक्षु)] देवता- धनान्नदान प्रशंसा, इन्द्रश्च (धनान्नदान की प्रशंसा और भिक्षाचर्या में अभीष्ट परमात्मा)

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सः-इत्-भोजः) सः पुरुषो हि भोजयिताऽन्येभ्यो भोजनदाताऽस्ति (यः-गृहवे) योऽन्नग्रहणकर्त्रे (अन्नकामाय) अन्नमिच्छुकाय (चरते) विचरते-आगन्तुकाय (कृशाय) अपुष्टशरीराय (ददाति) अन्नं ददाति (अस्मै यामहूतौ-अरं भवति) अस्मै दात्रे यामस्य समयस्य-हूतौ-आहूतौ-आवश्यकतायाः समये-इति यावत् पर्याप्तं भवति (उत) अपि च (अपरीषु सखायं कृणुते) अन्यासु प्रजासु तासामात्मानं सखायं करोति स दाता ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Bounteous blest is he who gives to the needy seeker desirous of food and to the wanderer in search, gone feeble. Amplitude comes to him at his call for his purpose, and he creates friendly alliances even among those who once opposed him.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भोजन करविणारा पालक तोच असतो जो, अन्नाचे ग्राहक, अन्नाची इच्छा करणारे, फिरत फिरत येणारे, अनोळखी व कृशकाय असणाऱ्यांना अन्न देतो, या अशा दात्यासाठी वेळेवर पर्याप्त अन्न मिळते. त्याच्याजवळ कमरतता नसते. दुसऱ्या विरोधी लोकांचाही तो मित्र बनतो व सर्व जण त्याची प्रशंसा करतात. ॥३॥

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