ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 117/ मन्त्र 6
मोघ॒मन्नं॑ विन्दते॒ अप्र॑चेताः स॒त्यं ब्र॑वीमि व॒ध इत्स तस्य॑ । नार्य॒मणं॒ पुष्य॑ति॒ नो सखा॑यं॒ केव॑लाघो भवति केवला॒दी ॥
स्वर सहित पद पाठमोघ॑म् । अन्न॑म् । वि॒न्द॒ते॒ । अप्र॑ऽचेताः । स॒त्यम् । ब्र॒वी॒मि॒ । व॒धः । इत् । सः । तस्य॑ । न । अ॒र्य॒मण॑म् । पुष्य॑ति । नो इति॑ । सखा॑यम् । केव॑लऽअघः । भ॒व॒ति॒ । के॒व॒ल॒ऽआ॒दी ॥
स्वर रहित मन्त्र
मोघमन्नं विन्दते अप्रचेताः सत्यं ब्रवीमि वध इत्स तस्य । नार्यमणं पुष्यति नो सखायं केवलाघो भवति केवलादी ॥
स्वर रहित पद पाठमोघम् । अन्नम् । विन्दते । अप्रऽचेताः । सत्यम् । ब्रवीमि । वधः । इत् । सः । तस्य । न । अर्यमणम् । पुष्यति । नो इति । सखायम् । केवलऽअघः । भवति । केवलऽआदी ॥ १०.११७.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 117; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 23; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अप्रचेताः) अप्रकृष्ट बुद्धिवाला-बेसमझ मनुष्य (मोघम्) व्यर्थ (अन्नं विन्दते) अन्नादि धन को प्राप्त करते हैं (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूँ (तस्य) उसका (सः) वह धन वैभव (वधः-इत्) वधक है-घातक ही है (अर्यमणम्) उस अन्नादि से ज्ञानदाता विद्वान् को (न पुष्यति) नहीं पालता है (न-उ सखायम्) और न ही समानधर्मी समानवंशी सम्बन्धी को पालता है-घोषित करता है, वह ऐसा (केवलादी) अकेला खानेवाला (केवलाघः) केवल पापी होता है ॥६॥
भावार्थ
जो मनुष्य अन्न धन सम्पत्ति का स्वामी बनकर उससे किसी ज्ञान देनेवाले विद्वान् का पोषण नहीं करता न किसी वंशीय सम्बन्धी का पोषण करता है, उसका अन्नधन सम्पत्ति पाना व्यर्थ है-घातक है, वह केवल अकेले खाकर पापी बनकर संसार से चला जाता है ॥६॥
विषय
केवलाघः = केवलादी
पदार्थ
[१] (अप्रचेता:) = गत मन्त्र में वर्णित तत्त्व को न समझनेवाला, धनों की अस्थिरता का विचार न करनेवाला (अन्नं मोघं विन्दते) = अन्न को व्यर्थ ही प्राप्त करता है। प्रभु कहते हैं कि (सत्यं ब्रवीमि) = मैं यह सत्य ही कहता हूँ कि (स) = वह अन्न व धन (तस्य) = उसका (इत्) = निश्चय से (वधः) = वध का कारण होता है। यह अदत्त अन्न व धन उसकी विलास वृद्धि का हेतु होकर उसका विनाश कर देता है। [२] यह (अप्रचेताः) = नासमझ व्यक्ति (न) = न तो (अर्यमणम्) = [अरीन् यच्छति] राष्ट्र के शत्रुओं का नियमन करनेवाले राजा को (पुष्यति) = पुष्ट करता है, नो और ना ही (सखायम्) = मित्र को । यह कृपण व्यक्ति राष्ट्र रक्षा के लिए राजा को भी धन नहीं देता और ना ही इस धन से मित्रों की मदद करता है । [३] यह दान न देकर (केवलादी) = अकेला खानेवाला व्यक्ति (केवलाघः भवति) = शुद्ध पाप ही पाप हो जाता है। यज्ञों को न करनेवाला यह (मलिम्लुच) = चोर ही कहलाता है। अदानशील पुरुष भौतिक वृत्तिवाला बनकर भोगों का शिकार हो जाता है। लोभ के बढ़ जाने से पापवृत्तिवाला हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ- दान न देनेवाला धनी पुरुष भोगसक्त होकर अपना ही विनाश कर बैठता है और उसकी पापवृत्ति बढ़ती जाती है। ऋषिः
विषय
क्षुद्र पुरुष की व्यर्थ धन की प्राप्ति।
भावार्थ
वह (अप्र-चेताः) उत्तम उदार चित्त एवं दूर तक के ज्ञान से रहित, अनुदार क्षुद्रज्ञानी पुरुष (मोघम् अन्नं विन्दते) व्यर्थ ही धन-अन्न आदि प्राप्त करता है। (सत्यं ब्रवीमि) मैं सत्य कहता हूं कि (सः तस्य वधः इत्) वह उसका मरण ही है क्योंकि वह (न अर्यमणं पुण्यति) न तो अपने शत्रुओं को वश करने वाले, स्वामी राजा को ही पुष्ट करता है और (नो सखायं) न वह अपने समान-ख्याति वाले मित्र को पुष्ट करता है, (केवलादी) केवल स्वयं खाने या भोगने वाला पुरुष (केवल-अघः भवति) केवल पाप ही अर्जन करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्भिक्षुः॥ इन्द्रो देवता—घनान्नदान प्रशंसा॥ छन्दः—१ निचृज्जगती—२ पादनिचृज्जगती। ३, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(अप्रचेताः-मोघम् अन्नं विन्दते) वह अप्रकृष्टबुद्धिनिर्बुद्धि बेसमझ मनुष्य व्यर्थ अन्न को प्राप्त करता है-कर रहा है (सत्यं ब्रवीमि) सत्य कहता हूं (वधः-इत् सः तस्य) वध-वधक-घातक ही है वह उसका-उसके लिये (अर्यमणं न पुष्यति न उ सखायम्) जो उस अपने अन्न से न ईश्वरोपासक पूजनीय विद्वान् का पोषण करता है न ही समानवंशीय बन्धु तथा समानगुणी मित्र जन का पोषण करता है ऐसा वह (केवलादी केवलाघः-भवति) स्वयं खाने वाला मात्र पापी-नितान्त पापी-निश्चित पापी होता है ॥६॥
विशेष
ऋषिः- भिक्षुः परमात्म सत्सङ्ग का भिक्षु गौणरूप में अन्न का भी भिक्षु परमात्मसत्सङ्गार्थ ही भिक्षु [(अन्न का भिक्षु)] देवता- धनान्नदान प्रशंसा, इन्द्रश्च (धनान्नदान की प्रशंसा और भिक्षाचर्या में अभीष्ट परमात्मा)
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अप्रचेताः-मोघम्-अन्नम्-विन्दते) अप्रकृष्टचेतस्को जनो व्यर्थमन्नं प्राप्नोति (सत्यं ब्रवीमि वधः-इत् सः-तस्य) सत्यं कथयामि वधक एव च तस्य (अर्यमणं न पुष्यति न-उ सखायम्) तेनान्नेन ज्ञानदातारं विद्वांसं न पोषयति न च समानधर्माणं समानवंशं वा पोषयति (केवलादी केवलाघः-भवति) एकाकी भुञ्जानः केवलपापवान् भवति ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The man of no knowledge and short vision gets food in vain and prosperity for nothing. Verity I say that prosperity is his min, his very death in life. He prospers not who helps neither the friend nor the wise, eating all by himself he eats nothing but sin.
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस अन्न धनसंपत्तीचा स्वामी बनून त्याद्वारे एखादे ज्ञान देणाऱ्या एखाद्या विद्वानाचे पोषण करत नाही किंवा समान वंशीय संबंधीचे पोषण करत नाही. त्याचे अन्न धन संपत्ती प्राप्त करणे व्यर्थ आहे - घातक आहे. तो एकटा खाऊन पापी बनून जगातून जातो. ॥६॥
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