ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 117/ मन्त्र 4
न स सखा॒ यो न ददा॑ति॒ सख्ये॑ सचा॒भुवे॒ सच॑मानाय पि॒त्वः । अपा॑स्मा॒त्प्रेया॒न्न तदोको॑ अस्ति पृ॒णन्त॑म॒न्यमर॑णं चिदिच्छेत् ॥
स्वर सहित पद पाठन । सः । सखा॑ । यः । न । ददा॑ति । सख्ये॑ । स॒चा॒ऽभुवे॑ । सच॑मानाय । पि॒त्वः । अप॑ । अ॒स्मा॒त् । प्र । इ॒या॒त् । न । तत् । ओकः॑ । अ॒स्ति॒ । पृ॒णन्त॑म् । अ॒न्यम् । अर॑णम् । चि॒त् । इ॒च्छे॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न स सखा यो न ददाति सख्ये सचाभुवे सचमानाय पित्वः । अपास्मात्प्रेयान्न तदोको अस्ति पृणन्तमन्यमरणं चिदिच्छेत् ॥
स्वर रहित पद पाठन । सः । सखा । यः । न । ददाति । सख्ये । सचाऽभुवे । सचमानाय । पित्वः । अप । अस्मात् । प्र । इयात् । न । तत् । ओकः । अस्ति । पृणन्तम् । अन्यम् । अरणम् । चित् । इच्छेत् ॥ १०.११७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 117; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
पदार्थ
(सः-न सखा) वह मित्र नहीं है (यः) जो (सचाभुवे) सहयोगी (सचमानाय) सेवा करनेवाले (सख्ये) मित्र के लिये (पित्वः) अन्न (न ददाति) नहीं देता है (अस्मात्-अप प्र इयात्) इस अन्न देनेवाले के पास से अलग हो जाता है (तत्-ओकः) वह रहने का स्थान (न-अस्ति) नहीं है-वह समागम का स्थान नहीं है, ऐसा मानता हुआ (अन्यं पृणन्तम्) अन्य को तृप्त करते हुए (अरणं चित्) पर मनुष्य को भी (इच्छेत्) चाहता है ॥४॥
भावार्थ
जो मित्र अपने को कहता है, वह सहयोगी सेवा करनेवाले मित्र के लिये नहीं देता है, तो वह मित्र नहीं कहलाता है, वह रहने का स्थान नहीं, ऐसा समझकर उसका मित्र साथ छोड़ देता है। अन्य तृप्त करनेवाले के पास चला जाता है, फिर बिना मित्र के असहाय रह जाता है, इसलिये सम्पन्न जन को अपने मित्र की सहायता करनी चाहिये ॥४॥
विषय
सखा कौन ?
पदार्थ
[१] (स सखा न) = वह मित्र नहीं है, (यः) = जो (सख्ये) = अपने मित्र के लिए, (सचाभुवे) = सदा साथ होनेवाले के लिए, सुख-दुःख में हाथ बटानेवाले के लिए, (सचमानाय) = सेवा करनेवाले के लिए (पित्वः न ददाति) = अन्न को नहीं देता है। जब तक हमें आवश्यकता थी उस हमारे मित्र ने हमारी मदद की, कभी हमारा साथ नहीं छोड़ा। पर आज अचानक उसे अन्न की आवश्यकता हो गई और हमने उससे मुख मोड़ लिया, उसे अन्न नहीं दिया और उसे भूखे ही मरने दिया तो यह क्या कोई मित्रता है ? इससे बढ़कर शत्रुता व कृतघ्नता हो ही क्या सकती है ? [२] वेद कहता है कि (अस्मात्) = इससे (अप प्रेयात्) = दूर ही चला जाए। (तत् ओकः न अस्ति) = यह घर नहीं है । (पृणन्तम्) = अन्नादि के देनेवाले (अन्यम्) = दूसरे (अरणं चित्) = पराये को भी (इच्छेत्) = चाहे भूखे को अन्न देनेवाला पराया घर भी अपना हो जाता है। अन्न को न देनेवाला अपना घर भी पराया हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - भूखे को अन्न न देनेवाला अपना घर भी पराया हो जाता है। अन्न देनेवाला पराया भी घर अपना हो जाता है।
विषय
अदानशीलता से हानि और दान के लाभ।
भावार्थ
(सः न सखा) वह सखा, प्रेमी मित्र नहीं (यः) जो (सचा-भुवे) साथ रहने वाले को, और (सचमानाय) सेवा करने चाले (सख्ये) मित्र को (पित्वः न ददाति) अन्न नहीं देता। क्योंकि (तत् ओकः न भस्ति) वह रहने योग्य घर के समान नहीं होता (अस्मात् अय) मनुष्य उससे दूर ही से हटते हैं। (अन्यम् पृणन्तम्) शत्रु भी यदि पालन करता है, अन्न से तृप्त करता है तो लोग उसको भी (अरणं चित् इच्छेत्) उत्तम स्वामी के तुल्य चाहने लगते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्भिक्षुः॥ इन्द्रो देवता—घनान्नदान प्रशंसा॥ छन्दः—१ निचृज्जगती—२ पादनिचृज्जगती। ३, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(सः-न सखा) वह मित्र नहीं (यः सचाभुवे सचमाना संख्ये पित्व:-न ददाति) जो साथ रहने वाले काम आने वाले, अवसर पर साथ देने वाले, सखा के लिए अन्न नहीं देता है । पुन: (अस्मात्-अपप्रेयात् ) वह उससे अलग हो जाता है उसे छोड देता है (तत्-ओक:-न-अस्ति) वह रहने का स्थान नहीं ऐसा मानता है। अपितु (अन्यं पृणन्तम्-अर चित्-इच्छेत्) 'अन्य सद्भाव से तृप्त करने वाले पर जनत को चाहता है उसके पास जाने को उद्यत हो जाता है ॥४॥
विशेष
ऋषिः- भिक्षुः परमात्म सत्सङ्ग का भिक्षु गौणरूप में अन्न का भी भिक्षु परमात्मसत्सङ्गार्थ ही भिक्षु [(अन्न का भिक्षु)] देवता- धनान्नदान प्रशंसा, इन्द्रश्च (धनान्नदान की प्रशंसा और भिक्षाचर्या में अभीष्ट परमात्मा)
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सः-न सखा) स जनः सखा नास्ति (यः सचाभुवे सचमानाय सख्ये पित्वः-न ददाति) यः सहभाविने सहयोगिने सेवमानाय सख्येऽन्नस्य भागं न ददाति (अस्मात्-अप प्र इयात्) अस्मात् खल्वपगच्छेत् पृथग् भवति (तत्-ओकः-न-अस्ति) तत् समागमस्थानं नास्तीति मत्वा (अन्यं पृणन्तम्-अरणं-चित्-इच्छेत्) अन्यं तर्पयन्तं परं जनमपि खल्विच्छति ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
No friend is he who gives no help and sustenance to the friend, the assistant and the associate. Denied, the friend goes away from him. No home is this house of the miser mean, if the friend in need has to knock at another door, the house of a generous helpful person.
मराठी (1)
भावार्थ
जो स्वत:ला मित्र म्हणवितो व आपल्या मित्राला मदत करत नाही तर तो मित्र म्हणविला जात नाही. त्याच्याजवळ राहण्यात अर्थ नाही. असे समजून त्याचा मित्र त्याची साथ सोडतो. दुसऱ्या समाधान करणाऱ्याजवळ जातो. त्यासाठी संपन्न लोकांनी आपल्या मित्राला मदत केली पाहिजे. ॥४॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal