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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 121/ मन्त्र 5
    ऋषिः - हिरण्यगर्भः प्राजापत्यः देवता - कः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    येन॒ द्यौरु॒ग्रा पृ॑थि॒वी च॑ दृ॒ळ्हा येन॒ स्व॑ स्तभि॒तं येन॒ नाक॑: । यो अ॒न्तरि॑क्षे॒ रज॑सो वि॒मान॒: कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । द्यौः । उ॒ग्रा । पृ॒थि॒वी । च॒ । दृ॒ळ्हा । येन॑ । स्वरिति॑ स्वः॑ । स्त॒भि॒तम् । येन॑ । नाकः॑ । यः । अ॒न्तरि॑क्षे । रज॑सः । वि॒ऽमानः॑ । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळ्हा येन स्व स्तभितं येन नाक: । यो अन्तरिक्षे रजसो विमान: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । द्यौः । उग्रा । पृथिवी । च । दृळ्हा । येन । स्व१रिति स्वः । स्तभितम् । येन । नाकः । यः । अन्तरिक्षे । रजसः । विऽमानः । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥ १०.१२१.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 121; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    पदार्थ

    (येन) जिस परमात्मा ने (उग्रा द्यौः) तेजस्वी द्यौ (च) और (दृढा पृथिवी च) कठोर पृथिवी धारण की है (येन) जिसने (स्वः स्तभितम्) मध्य स्थान को सम्भाला हुआ है (येन नाकः) जिसने मोक्ष धारण किया हुआ है (यः) जो (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (रजसः-विमानः) लोकमात्र का विशेषरूप से मानकर्त्ता साधनेवाला है (कस्मै...) पूर्ववत् ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा तेजस्वी द्युमण्डल को और कठोर पृथिवी को, मध्य स्थान को और लोकमात्र को तथा मोक्षधाम को सम्भाले हुए है, उस ऐसे सुखस्वरूप प्रजापति के लिये उपहाररूप से अपनी आत्मा को समर्पित करना चाहिये ॥५॥

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    पदार्थ

     

    पदार्थ = ( येन ) = जिस परमेश्वर से ( उग्रा ) = तेजस्वी ( द्यौः ) = प्रकाशमान सूर्यादि लोक और ( दृढा ) = बड़ी दृढ़ ( पृथिवी ) = पृथिवी ( येन ) = जिस जगदीश्वर ने ( स्वः ) = सामान्य सुख ( स्तभितम् ) = धारण किया और ( येन ) = जिस प्रभु ने ( नाकः ) = दुःखरहित मुक्ति को भी धारण किया है । ( यः ) = जो ( अन्तरिक्षे ) = आकाश में ( रजसः ) = लोक लोकान्तरों को ( विमान: ) = निर्माण करता और भ्रमण कराता है। जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं ऐसे ही सब लोक जिसकी प्रेरणा से घूम रहे हैं ( कस्मै ) = उस सुखदायक ( देवाय ) = दिव्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए ( हविषा विधेम ) = प्रेम से भक्ति करें।

     

    भावार्थ

    भावार्थ = हे जगत्पते ! आपने ही बड़े तेजस्वी सूर्यचन्द्रादि लोक और विस्तीर्ण पृथिवी आदि लोक और सामान्य सुख और सब दुःखों से रहित मुक्ति सुख को भी धारण किया हुआ है, अर्थात् सब प्रकार का सुख आपके अधीन है, ऐसे समर्थ, आकाश की न्याईं व्यापक, आपकी भक्ति से ही लोक परलोक का सुख प्राप्त हो सकता है अन्यथा नहीं ।

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    विषय

    'तेजस्वी द्युलोक' व 'दृढ़ पृथिवी'

    पदार्थ

    [१] (येन) = जिस प्रभु ने (द्यौः उग्रा) = द्युलोक को बड़ा तेजस्वी बनाया है, (च) = और (पृथिवी) = पृथिवी को (दृढ़ा) = दृढ़ किया है। द्युलोक सूर्य व सितारों से देदीप्यमान है, और पृथिवी आकाश से गिरनेवाले ओलों को किस प्रकार अविचल भाव से सहन करती है। (येन) = जिस प्रभु ने (स्वः) = इस देदीप्यमान सूर्य को अथवा स्वर्गलोक को (स्तभितम्) = थामा है, तथा (येन) = जिसने (नाकः) = मोक्षलोक का धारण किया है । [२] (यः) = जो प्रभु (अन्तरिक्षे) = इस अन्तरिक्ष लोक में (रजसः) = जल का (विमानः) = एक विशिष्ट व्यवस्था के द्वारा निर्माण करनेवाले हैं। सूर्य की उष्णता से वाष्पीभूत होकर जल ऊपर उठता है, ये वाष्प ऊपर जाकर ठण्डे प्रदेश में पहुँचने पर फिर से घनीभूत होकर बादल के रूप में होते हैं । इस प्रकार अन्तरिक्ष लोक में जल का निर्माण होता है। इस (कस्मै) = आनन्दमय (देवाय) = सब कुछ देनेवाले प्रभु के लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन से (विधेम) = हम पूजा करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- द्युलोक, पृथ्वीलोक, स्वर्ग व मोक्ष सभी का धारण करनेवाले प्रभु हैं। ये प्रभु ही एक विशिष्ट व्यवस्था द्वारा अन्तरिक्ष में जलों का निर्माण करते हैं ।

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    विषय

    महान् बलशाली प्रभु।

    भावार्थ

    (येन) जिससे (उग्रा द्यौः) यह महान् आकाश तारकमण्डलों सहित और (पृथिवी च) यह पृथिवी (दृढा) स्थिर हैं, जिसने इनको स्थिर, अविनश्वर, चिरस्थायी बनाया है, (येनः स्वः स्तभितम्) जिसने इस महान् सूर्य को स्थिर किया है, (येन नाकः) जिसने महान् आकाश बनाया (यः अन्तरिक्षे) जो इस अन्तरिक्ष में (रजसः) धूलिकणों के तुल्य अनन्त, असंख्य लोकों को बनाने वाला है, (कस्मै देवाय इविषा विधेम) उस एक जगद्-विधाता देव की हम विशेष रूप से उपासना करें। इति तृतीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि हिरण्यगर्भः प्राजापत्यः। को देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ८, ९ त्रिष्टुप २, ५ निवृत् त्रिष्टुप् ४, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (येन-उग्रा द्यौः पृथिवी च दृढा) जिस परमात्मा ने तेजोमय द्युलोक को और पृथिवी लोक को दृढ किया (येन स्व: स्तभितं येन नाक:) जिसने सुख तथा नितान्त दुःख रहित मोक्ष को धारण किया है (यः-अन्तरिक्षे रजसः विमान:) जो अन्तरिक्ष में लोक मात्र को सम्भालने वाला है (कस्मै देवाय हविषा विधेम) उस सुखस्वरूप प्रजापति परमात्मा के लिए प्रेम श्रद्धा भेंट समर्पित कर स्वागत करें ॥५॥

    विशेष

    ऋषिः- हिरण्यगर्भः प्राजापत्यः (प्रजापति परमात्मा की उपासना से उसके विराट स्वरूप एवं उसके तेज को अपने अन्दर धारण कर्ता प्रजापति परमात्मा का उपासक) (प्रश्नात्मक अनिर्वचनीय सुखस्वरूप प्रजापति परमात्मा)

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (येन-उग्रा द्यौः) येन परमात्मा तेजस्विनी द्यौः (दृढा पृथिवी च) कठोरा पृथिवी च धारिता (येन स्वः स्तभितम्) येन मध्यमं स्थानं स्थिरीकृतं (येन नाकः) येन परमात्मना मोक्षो धारितः (यः-अन्तरिक्षे) योऽन्तरिक्षे (रजसः-विमानः) लोकमात्रस्य विशेषेण मानकर्त्ता संसाधयिता (कस्मै....) पूर्ववत् ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    By him the suns blaze, by him the earth is firm, by him the heaven of bliss is sustained, by him the ecstasy of Moksha is constant, and he is the creator of the worlds of space. Let us worship the lord refulgent and omnipotent with offers of homage in havis.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याने तेजस्वी द्युमंडल, कठोर पृथ्वी अंतरिक्ष व सर्व लोक (गोल) यांना, तसेच मोक्षधामही सांभाळले आहे. त्या सुखस्वरूप प्रजापतीला उपहाररूपाने आपल्या आत्म्याला समर्पित केले पाहिजे. ॥५॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    যেন দ্যৌরুগ্রা পৃথিবী চ দৃঢ়া যেন স্বঃ স্তভিতং যেন নাকঃ।

    যো অন্তরিক্ষে রজসো বিমানঃ কস্মৈ দেবায় হবিষা বিধেম।।৪৪।।

    (ঋগ্বেদ ১০।১২১।৫)

    পদার্থঃ (যেন) যে পরমেশ্বর (উগ্রা) তেজস্বী (দ্যৌঃ) প্রকাশমান সূর্যাদি লোককে (দৃঢ়া) অত্যন্ত দৃঢ়ভাবে চালনা করছেন, (পৃথিবী) পৃথিবী [ও সকল লোককে] (যেন) যে জগদীশ্বর (স্বঃ) সুখকে (স্তভিতম্) ধারণ করেছেন, (যেন) যেই পরমেশ্বর (নাকঃ) দুঃখ রহিত মুক্তিকেও ধারণ করে আছেন, (যঃ অন্তরিক্ষঃ) যিনি অন্তরিক্ষ (রজসঃ) লোক লোকান্তরের (বিমানঃ) নির্মাণ করেন ও ভ্রমণ করান, [যেরূপে আকাশে পক্ষী ওড়ে‌, এইরূপে সকল লোক যাঁর প্রেরণা দ্বারা ঘুরছে নিজ কক্ষপথে] ; (কস্মৈ) সেই সুখদায়ক, (দেবায়) দিব্য পরব্রহ্মের প্রাপ্তির জন্য (হবিষা বিধেম) তাঁকে প্রেম পূর্বক ভক্তি করো।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে জগৎপতি! তুমি অত্যন্ত তেজস্বী। সূর্য-চন্দ্রাদি লোক এবং বিস্তীর্ণ পৃথিবী আদি লোক এবং সামান্য সুখ ও সকল দুঃখ হতে রহিত মুক্তি সুখকেও ধারণ করে আছ। অর্থাৎ সকল প্রকার সুখ তোমারই অধীন। এইরূপ সামর্থ্যযুক্ত আকাশের ন্যায় ব্যাপক তোমার ভক্তি দ্বারাই আমাদের কেবল মুক্তিরূপ সুখ প্রাপ্ত হতে পারে, অন্যথায় নয়।।৪৪।।

     

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