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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 121/ मन्त्र 9
    ऋषिः - हिरण्यगर्भः प्राजापत्यः देवता - कः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मा नो॑ हिंसीज्जनि॒ता यः पृ॑थि॒व्या यो वा॒ दिवं॑ स॒त्यध॑र्मा ज॒जान॑ । यश्चा॒पश्च॒न्द्रा बृ॑ह॒तीर्ज॒जान॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा । नः॒ । हिं॒सी॒त् । ज॒नि॒ता । यः । पृ॒थि॒व्याः । यः । वा॒ । दिव॑म् । स॒त्यऽध॑र्मा । ज॒जान॑ । यः । च॒ । अ॒पः । च॒न्द्राः । बृ॒ह॒तीः । ज॒जान॑ । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा नो हिंसीज्जनिता यः पृथिव्या यो वा दिवं सत्यधर्मा जजान । यश्चापश्चन्द्रा बृहतीर्जजान कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मा । नः । हिंसीत् । जनिता । यः । पृथिव्याः । यः । वा । दिवम् । सत्यऽधर्मा । जजान । यः । च । अपः । चन्द्राः । बृहतीः । जजान । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥ १०.१२१.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 121; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (यः) जो (पृथिव्याः) पृथिवी का (जनिता) उत्पादक (वा) और (यः) जो हि (सत्यधर्मा) सत्यनियमवाला परमात्मा (दिवम्) द्युलोक को (जजान) उत्पन्न करता है (च) और (यः) जो (बृहती) विस्तृत (चन्द्राः) आह्लाद करने-मन को भानेवाली (आपः) अन्तरिक्ष विभक्तियों को (जजान) उत्पन्न करता है (कस्मै...) पूर्ववत् ॥९॥

    भावार्थ

    जिस परमात्मा ने पृथिवीलोक, द्युलोक, चन्द्रताराओं से भरा मन भानेवाला अन्तरिक्ष उत्पन्न किया है, उस सुखस्वरूप प्रजापति के लिये उपहाररूप में अपने आत्मा का समर्पण करना चाहिये ॥९॥

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    विषय

    रक्षण

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो (पृथिव्याः) = इस प्राणियों के निवास स्थानभूत पृथ्वी का (जनिता) = उत्पादक है, वह (नः) = हमें (मा हिंसीत्) = मत हिंसित करे । (वा) = अथवा वह (सत्यधर्मा) = सत्य का धारण करनेवाला प्रभु (यः) = जो (दिवं जजान) = द्युलोक को उत्पन्न करता है, वह हमें हिंसित न करे। वस्तुतः वह प्रभु पृथ्वीलोक व द्युलोक को उत्पन्न करके प्राणियों की रक्षा की व्यवस्था करता है । पृथिवी हमारी मातृ-स्थानापन्न होती है और द्युलोक हमारा पितृतुल्य होता है । 'द्यौ पिता, पृथिवी माता'। जैसे 'माता-पिता' सन्तानों का रक्षण करते हैं, उसी प्रकार प्रभु इन द्युलोक व पृथ्वीलोक के द्वारा हमारा रक्षण करते हैं । [२] और (यः) = जो प्रभु इन (चन्द्राः) = सब आह्लादों को जन्म देनेवाले (बृहती: आपः) = महान् व्यापक महत्तत्त्व को (जजान) = पैदा करता है । प्रकृति से प्रभु ही इस महत्तत्त्व को पैदा करते हैं । उस (कस्मै) = आनन्दमय देवाय सब कुछ देनेवाले प्रभु के लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन से (विधेम) = हम पूजा करें। प्रकृति का पहला परिणाम 'महत्तत्त्व' है, यही समष्टि बुद्धि भी कहलाता है। इस 'समष्टि बुद्धि' के रूप में यह वस्तुतः 'चन्द्रा: ' सब आह्लादों का कारण है।

    भावार्थ

    भावार्थ– द्युलोके, पृथ्वीलोके व महत्तत्त्व के जन्म देनेवाले प्रभु हमें हिंसित होने से बचाएँ ।

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    विषय

    परमेश्वर के अनेक लक्षण।

    भावार्थ

    (यः पृथिव्याः जनिता) जो भूमि का उत्पादक एवं जो मूल प्रकृति से सृष्टि को रचने वाला है, वह प्रभु (नः मा हिंसीत्) हमें पीड़ित न करे। (यः च) और जो (सत्य-धर्मा) सत्य ज्ञान और प्रकट जगत् को धारण करने वाला है जो (दिवं जजान) आकाश और सूर्य आदि समस्त लोकों को उत्पन्न करता है। (यः च) और जो (चन्द्राः) सर्वाह्लादकारक (बृहतीः आपः) महान् २ व्यापक नाना तत्वों वा प्रकृति के परमाणुओं को भी (जजान) उत्पन्न करता है। (कस्मै देवाय हविषा विधेम) उस सुख स्वरूप, सर्वकर्त्ता, अद्वितीय देव की हम ज्ञानपूर्वक उपासना करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि हिरण्यगर्भः प्राजापत्यः। को देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ८, ९ त्रिष्टुप २, ५ निवृत् त्रिष्टुप् ४, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (यः) जो पृथिव्य:-जनिता) पृथिवी का उत्पन्न करने वाला है (वा) और (यः) जो (सत्यधर्मा) सत्य धर्म चाला, अकाट्य नियम वाला (दिवं जजान) द्युलोक को उत्पन्न करता है (च) और (यः) जो (बृहतीः-चन्द्राः आपः जजान) महान् आह्लादकारी जलों को या नक्षत्र तारों से भरे अन्तरिक्ष लोक को भी उत्पन्न करने वाला है । वह (न:-मा हिंसीत्) हमें हिंसित न करे-हिंसा से बचावे- बचाता है उस (कस्मै देवाय हविषा विधेम) सुखस्वरूप प्रजापति परमात्मा के लिए प्रेम श्रद्धा नम्रता रूप भेंट से अपना समर्तण करें ॥९॥

    टिप्पणी

    लक्षणहेत्वोः क्रियायाः (अष्टा० ३।२।१२६) "दक्षं बलम्" (निघ० २।९) ("अप एव ससर्जादौ तासु वीजमवासृजत्' (मनु० १।८) "आपः = अपः” विभक्तिव्यत्ययः । व्यत्ययेन प्रथमा आप:' (सायणः) "वा-अथापि समुच्चयार्थे वायुर्वा त्वा मनुर्वा त्वा वायुश्च स्वा मनुश्च त्वा" (निरु० १।५) "आपोऽन्तरिक्षनाम" ( निघ० १।३ )

    विशेष

    ऋषिः- हिरण्यगर्भः प्राजापत्यः (प्रजापति परमात्मा की उपासना से उसके विराट स्वरूप एवं उसके तेज को अपने अन्दर धारण कर्ता प्रजापति परमात्मा का उपासक) (प्रश्नात्मक अनिर्वचनीय सुखस्वरूप प्रजापति परमात्मा)

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः) यः खलु (पृथिव्याः-जनिता) भूमेरुत्पादयिता (वा) अथ च “वा समुच्चयार्थे” [निरु० १।५] (यः) यो हि (सत्यधर्मा) सत्यनियमवान् (दिवं जजान) द्युलोकमुत्पादयति (च) अपि च (यः) यः खलु (बृहतीः-चन्द्राः-आपः-जजान) महतीराह्लादकारिणीरन्तरिक्षविभक्तिर्नक्षत्रयुताः ‘आपोऽन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] उत्पादयति (कस्मै....) पूर्ववत् ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the one lord supreme never hurt us, the lord that is creator of the earth, who also creates the heavens and who also creates the vast oceans of energies and waters, all beauteous, soothing and blissful, the master, controller and ordainer of all the laws of existence in operation in truth. Let us worship that one lord supreme with offers of faith and havis.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या परमात्म्याने पृथ्वीलोक, द्युलोक चंद्र ताऱ्यांनी भरलेला मनमोहक अंतरिक्ष उत्पन्न केलेला आहे. त्या सुखस्वरूप प्रजापतीला उपहाररूपात आपल्या आत्म्याचे समर्पण केले पाहिजे. ॥९॥

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