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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 121 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 121/ मन्त्र 7
    ऋषिः - हिरण्यगर्भः प्राजापत्यः देवता - कः छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आपो॑ ह॒ यद्बृ॑ह॒तीर्विश्व॒माय॒न्गर्भं॒ दधा॑ना ज॒नय॑न्तीर॒ग्निम् । ततो॑ दे॒वानां॒ सम॑वर्त॒तासु॒रेक॒: कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आपः॑ । ह॒ । यत् । बृ॒ह॒तीः । विश्व॑म् । आय॑न् । गर्भ॑म् । दधा॑नाः । ज॒नय॑न्तीः । अ॒ग्निम् । ततः॑ । दे॒वाना॑म् । सम् । अ॒व॒र्त॒त॒ । असुः॑ । एकः॑ । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आपो ह यद्बृहतीर्विश्वमायन्गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम् । ततो देवानां समवर्ततासुरेक: कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आपः । ह । यत् । बृहतीः । विश्वम् । आयन् । गर्भम् । दधानाः । जनयन्तीः । अग्निम् । ततः । देवानाम् । सम् । अवर्तत । असुः । एकः । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥ १०.१२१.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 121; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 4; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (बृहतीः-आपः-ह) सृष्टि के आदि में महान् अप्तत्त्वप्रवाह व्याप्त परमाणु (अग्निं जनयन्तीः) आग्नेय पदार्थों को उत्पन्न करने हेतु (गर्भं दधानाः) अपने अन्दर धारण करते हुए (विश्वम्-आयन्) विश्व के प्रति प्रकट होते हैं (ततः) पुनः (देवानाम्-असुः) समस्त देवों का प्राणभूत (एकः समवर्तत) एक देव परमात्मा वर्त्तमान था (कस्मै…) पूर्ववत् ॥७॥

    भावार्थ

    सृष्टि के आरम्भ में परमाणु प्रवाह आग्नेय तत्त्व को अपने अन्दर धारण करता हुआ प्रकट होता है, तब स्वामीरूप से वर्त्तमान सब देवों का देव परमात्मा वर्तमान था, उस सुखस्वरूप प्रजापति के लिये उपहारस्वरूप अपने आत्मा को समर्पित करना चाहिये ॥७॥

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    विषय

    बृहती: आपः

    पदार्थ

    [१] सृष्टि के प्रारम्भ में प्रकृति का पहला परिणाम 'महत् तत्त्व' कहलाता है। यह सारा संसार इस महत् तत्त्व के गर्भ में होता है। यह एक homogeneons - सम अवस्था में स्थित (नभ) = बादल के समान होता है। यहाँ इसे व्यापक-सा होने के कारण 'आप' [आप् व्याप्तौ] नाम दिया गया है । (यद्) = जब (ह) = निश्चय से (विश्वं गर्भं दधानाः) = सम्पूर्ण संसार को अपने अन्दर धारण करते हुए (अग्निं जयन्ती:) = अग्नि आदि तत्त्वों को जन्म देनेवाले (बृहती: आप:) = ये विशाल (आप:) = अथवा महत्तत्त्व (आयन्) = गतिवाले होते हैं (ततः) = तब (देवानाम्) = उत्पन्न होनेवाले सूर्यादि देवों का वह प्रभु ही (एकः असुः समवर्तत) = अद्वितीय प्राण होता है। प्रभु ही सब देवों को देवत्व प्राप्त कराते हैं। सूर्य में प्रभा को वे ही स्थापित करते हैं, जलों में रस को तथा पृथिवी में गन्ध को स्थापित करनेवाले वे ही हैं । [२] इस (कस्मै) = आनन्दस्वरूप देवाय सब कुछ देनेवाले परमात्मा के लिए (हविषा) = दानपूर्वक अदन से (विधेम) = हम पूजा करनेवाले हों। ये प्रभु ही सब देवों को देवत्व प्राप्त कराते हैं। इन्हीं से मुझे भी देवत्व की प्राप्ति होगी। जितना जितना मैं त्याग करूँगा, उतना उतना ही प्रभु के समीप होता जाऊँगा। जितना जितना प्रभु के समीप हूँगा, उतना उतना चमकता चलूँगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ- 'महद् ब्रह्म' उस प्रभु की योनि है । प्रभी की अध्यक्षता में इस महद् ब्रह्म से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति होती है। इन सबको देवत्व प्रभु ही प्राप्त कराते हैं ।

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    विषय

    सर्वाश्रय, सर्वजीवनदाता प्रभु।

    भावार्थ

    (यत्) जिस (विश्वम्) व्यापक प्रभु को (ह) सृष्टि की उत्पत्ति के भी पूर्व (बृहतीः आपः) बड़ी आपः अर्थात् प्रकृति की महत् आदि विकृतियें (आयन्) प्राप्त होती हैं और (गर्भं दधानाः) गर्भ, हिरण्यमय महान् अण्ड को धारण करती हुईं (अग्निम् जनयन्ति) सर्वप्रकाशक और सर्वदाहक अग्नितत्त्व को प्रकट करती हैं। (ततः) तब ही, वह (एकः) एक अद्वितीय प्रभु (देवानां) समस्त देवों, सूर्यादि लोकों का एकमात्र (असुः) प्राण, उनका सञ्चालक और जीवन-दाता, इन्द्रियगण में प्राणवत् (सम् अवर्त्तत) विद्यमान था। (कस्मै देवाय हविषा विधेम) उस सुखस्वरूप, जगद्-विधाता प्रभु की हम सर्वोपायों से सेवा भक्ति करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि हिरण्यगर्भः प्राजापत्यः। को देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ८, ९ त्रिष्टुप २, ५ निवृत् त्रिष्टुप् ४, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ स्वराट् त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (बृहती:-आप:-ह यत्-अग्निं जनयन्ती:-गर्भ दधानाः) सृष्टि के आरम्भ में महान् अपतत्व परमाणु प्रवाह जब निको आग्नेय पदार्थ को उत्पन्न करने के हेतु गर्भ धारण करते हुए (विश्वम्-आयन्) विश्व में प्रकट हुए तो (ततः) फिर (देवानाम् असुः-एकः समवर्तत) समस्त अग्नि आदि देवों का प्राणरूप एक देव देवों का देव परमात्मा वर्तमान था (कस्मै देवाय हविषा विधेम) उस प्रजापति सुख स्वरूप के लिए हम प्रेम श्रद्धा भेंट द्वारा अपने को समर्पित करें ॥७॥

    विशेष

    ऋषिः- हिरण्यगर्भः प्राजापत्यः (प्रजापति परमात्मा की उपासना से उसके विराट स्वरूप एवं उसके तेज को अपने अन्दर धारण कर्ता प्रजापति परमात्मा का उपासक) (प्रश्नात्मक अनिर्वचनीय सुखस्वरूप प्रजापति परमात्मा)

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (बृहतीः-आपः-ह) सृष्टेरादौ महान्तः खल्वप्तत्त्वप्रवाहाः-आप्ताः परमाणवः खलु “आपो वा इदमग्रे यत्तत्सलिलमासीत्” [जै० उ० १।५६।१] “तम आसीत् तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्” [ऋ० १०।१२९।३] (अग्निं जनयन्तीः-गर्भं दधानाः) अग्निमाग्नेयपदार्थमुत्पादनहेतोर्गर्भं धारयन्तः (विश्वम्-आयन्) विश्वं प्रति प्रकटीभवन्ति (ततः) पुनः (देवानाम्-असुः-एकः-सम् अवर्तत) समस्तदेवानां प्राणरूपः-खल्वेको देवो देवानां देवः परमात्मा वर्त्तमान आसीत् ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the boundless ocean of charged particles of Vayu energy comes into existence bearing the implicit blue print of the cosmos in seed form, creating the heat mode of existence, then the one supreme of the divinities, living breathing life itself, emerges in advance of all cosmic forms, and that One all-comprehensive divine lord let us worship with oblations of havi, who else? That is Hiranyagarbha.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टीच्या आरंभी परमाणू प्रवाह आग्नेय तत्त्वाला आपल्यामध्ये धारण करत प्रकट होतो. तेव्हा स्वामीरूपाने वर्तमान सर्व देवांचा देव परमात्मा वर्तमान असतो. त्या सुखस्वरूप प्रजापतीला उपहारस्वरूपाने आपल्या आत्म्याला समर्पित केले पाहिजे. ॥७॥

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