ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 122/ मन्त्र 3
ऋषिः - चित्रमहा वासिष्ठः
देवता - अग्निः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
स॒प्त धामा॑नि परि॒यन्नम॑र्त्यो॒ दाश॑द्दा॒शुषे॑ सु॒कृते॑ मामहस्व । सु॒वीरे॑ण र॒यिणा॑ग्ने स्वा॒भुवा॒ यस्त॒ आन॑ट् स॒मिधा॒ तं जु॑षस्व ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । धामा॑नि । प॒रि॒ऽयन् । अम॑र्त्यः । दाश॑त् । दा॒शुषे॑ । सु॒ऽकृते॑ । म॒म॒ह॒स्व॒ । सु॒ऽवीरे॑ण । र॒यिणा॑ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽआ॒भुवा॑ । यः । ते॒ । आन॑ट् । स॒म्ऽइधा॑ । तम् । जु॒ष॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्त धामानि परियन्नमर्त्यो दाशद्दाशुषे सुकृते मामहस्व । सुवीरेण रयिणाग्ने स्वाभुवा यस्त आनट् समिधा तं जुषस्व ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । धामानि । परिऽयन् । अमर्त्यः । दाशत् । दाशुषे । सुऽकृते । ममहस्व । सुऽवीरेण । रयिणा । अग्ने । सुऽआभुवा । यः । ते । आनट् । सम्ऽइधा । तम् । जुषस्व ॥ १०.१२२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 122; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे परमात्मन् ! (अमर्त्यः) तू मरणधर्मरहित है (सप्त धामानि परियन्) भूः भुवः आदि सात लोकों में व्याप्त होता हुआ वर्तमान है (दाशत्) जो तेरे लिये स्वात्मा का समर्पण कर देता है, (दाशुषे) उस दान समर्पण कर देनेवाले (सुकृते) सुकर्मा के लिये (ममहस्व) अपने आनन्द को दे-देता है (यः) जो (ते समिधा) तुझे ज्ञानप्रकाश से या स्तुति से (आनन्द) प्राप्त होता है (सुवीरेण) अच्छे प्राणवाले (रयिणा) पोषण से (तं जुषस्व) उसे तृप्त कर ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा अमर है, वह सात लोकों में व्याप्त है, आत्मसमर्पी जन को अपना आनन्द देता है, स्तुति करनेवाले को प्रबल प्राण देकर तृप्त करता है ॥३॥
विषय
धन व ज्ञान की प्राप्ति
पदार्थ
[१] (सप्त) = सातों (धामानि) = लोकों के परियन् चारों ओर प्राप्ति करता हुआ - 'भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यं' इन सातों लोकों को अपने में धारण करता हुआ, (अमर्त्यः) = वह अविनाशी प्रभु (दाशुषे) = दाश्वान् के लिए, दान की वृत्तिवाले के लिए, (दाशत्) = देता है । सम्पूर्ण लोकों का स्वामी वह प्रभु है, वह दानशीलों को सब आवश्यक धन देता है। [२] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (सुकृते) = पुण्यशील व्यक्ति के लिए, यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले के लिए (सुवीरेण) = उत्तम वीरतावाले (रयिणा) = धन से (मामहस्व) = सत्कार करिये। अर्थात् इस पुण्यकर्म को आप वह धन प्राप्त कराइये जो उसे वीर बनानेवाला हो। विषयासक्ति का कारण बननेवाला धन मनुष्य को निर्बल बना देता है। इसके लिए धन विषयासक्ति का कारण न बने और यह उस धन को लोकहित के कार्यों में उपयुक्त करता हुआ सदा वीर बना रहे। उस धन से इसे सत्कृत करिये जो (स्वाभुवा) = [सु आ भू] इसकी स्थिति को सब प्रकार से अच्छा करनेवाला हो। इसके शरीर, मन व बुद्धि को जहाँ यह सुन्दर बनाए, वहाँ इसकी सामाजिक स्थिति भी ठीक हो । [३] हे परमात्मन् ! (यः) = जो (ते आनट्) = आप को प्राप्त करता है, उपासना द्वारा आपका व्यापन करता है, (समिधा) = ज्ञान की दीप्ति द्वारा (तं जुषस्व) = उसके प्रति कृपान्वित होइये [show onesely favourable to wards]।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु दानशील को धन प्राप्त कराते हैं। पुण्यशील को वह धन प्राप्त होता है जो उसे वीर बनाता है और सब प्रकार से अच्छी स्थिति में प्राप्त कराता है। उपासक को प्रभु ज्ञान देने का अनुग्रह करते हैं ।
विषय
सर्वव्यापक, ऐश्वर्यप्रद प्रभु की शरण-ग्रहण और उससे अनुग्रह याचना।
भावार्थ
जो (अमर्त्यः) अमर आत्मा (सप्त धामानि) सूर्यवत् सातों लोकों को (परि यन्) व्यापता है और (दाशुषे) दानशील यज्ञकर्त्ता, आत्मसमर्पक, (सु-कृते) उत्तम काम करने वाले को (दाशत्) सब ऐश्वर्य प्रदान करता है, तू उसकी (महस्व) पूजा कर, उसकी उपासना कर। हे (अग्ने) प्रकाशस्वरूप ! (यः) जो (ते) तेरी (समिधा) गुणों का प्रकाश करने वाली वाणी से (आनट्) तेरी शरण आता है, (तं) उसको (सु-वीरेण) उत्तम वीर, पुत्र, प्राण आदि से युक्त (रयिणा) देह, ऐश्वर्य आदि सहित (जुषस्व) प्रेम कर, उस पर अनुग्रह कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिश्चित्रमहा वासिष्ठः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ त्रिष्टुप्। ५ निचृत् त्रिष्टुप्। २ जगती। ३, ८ पादनिचृज्जगती। ४, ६ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड जगती।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे परमात्मन् ! (अमर्त्यः) त्वं मरणधर्मरहितोऽसि (सप्त धामानि परियन्) भूर्भुवःप्रभृतीन् सप्त लोकान् व्याप्नुवन् वर्तसे (दाशत्) यस्तुभ्यं स्वात्मानं ददाति समर्पयति (दाशुषे सुकृते ममहस्व) तस्मै स्वात्मानं दत्तवते सुकर्मिणे स्वानन्दं ददासि “मंहतेर्दानकर्मणः” [निरु० १।७] ‘नुमो लोपश्छान्दसः’ (यः-ते समिधा-आनट्) यस्त्वां ज्ञानप्रकाशेन सम्यक् स्तुत्या वा प्राप्नोति “नशत् व्याप्नोतिकर्मा” [निघ० २।१८] (सुवीरेण रयिणा तं जुषस्व) सुप्राणेन “प्राणा वै दशवीराः” [श० १३।८।१।२२] आत्मपोषेण “रयिं धेहि पोषं धेहि” [काठ० १।७] तं प्रीणीहि ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Immortal Agni, pervading seven regions of the universe, bhu, bhuva, sva, maha, jana, tapa and satyam, advance and exalt the noble and generous yajamana of holy action. Whoever brings and offers holy fuel and fragrant havi to you, pray accept and bless him with noble progeny and abundant wealth of life.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा अमर आहे. तो सात लोकांत व्याप्त आहे. आत्मसमर्पण करणाऱ्यांना आपला आनंद देतो. स्तुती करणाऱ्यांना प्रबळ प्राण देऊन तृप्त करतो. ॥३॥
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