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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 122 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 122/ मन्त्र 5
    ऋषिः - चित्रमहा वासिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं दू॒तः प्र॑थ॒मो वरे॑ण्य॒: स हू॒यमा॑नो अ॒मृता॑य मत्स्व । त्वां म॑र्जयन्म॒रुतो॑ दा॒शुषो॑ गृ॒हे त्वां स्तोमे॑भि॒र्भृग॑वो॒ वि रु॑रुचुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । दू॒तः । प्र॒थ॒मः । वरे॑ण्यः । सः । हू॒यमा॑नः । अ॒मृता॑य । म॒त्स्व॒ । त्वाम् । म॒र्ज॒य॒न् । म॒रुतः॑ । दा॒शुषः॑ । गृ॒हे । त्वाम् । स्तोमे॑भिः । भृग॑वः । वि । रि॒रु॒चुः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं दूतः प्रथमो वरेण्य: स हूयमानो अमृताय मत्स्व । त्वां मर्जयन्मरुतो दाशुषो गृहे त्वां स्तोमेभिर्भृगवो वि रुरुचुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । दूतः । प्रथमः । वरेण्यः । सः । हूयमानः । अमृताय । मत्स्व । त्वाम् । मर्जयन् । मरुतः । दाशुषः । गृहे । त्वाम् । स्तोमेभिः । भृगवः । वि । रिरुचुः ॥ १०.१२२.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 122; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्वम्) हे परमात्मन् ! तू (प्रथमः) प्रमुख (वरेण्यः) वरने योग्य (दूतः) सबका प्रेरक (सः) वह तू (हूयमानः) प्रार्थना में लाया जाता हुआ (अमृताय) मोक्ष के लिये (मत्स्व) हर्षित कर (मरुतः) अध्यात्मयज्ञ के करनेवाले (भृगवः) देदीप्यमान परिपक्व ज्ञानवाले मेधावी विद्वान् (त्वां मर्जयन्) तुझे प्राप्त करते हैं (दाशुषः) अपने को समर्पित करनेवाले के (गृहे) हृदयघर में (स्तोमेभिः) स्तुतिवचनों द्वारा (त्वां वि रुरुचुः) तुझे प्रकाशित करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा वरने योग्य और प्रेरक है, अध्यात्मयाजी तेजस्वी महानुभाव उसे प्राप्त करते हैं, वह आत्मसमर्पी के हृदयघर में साक्षात् होता है ॥५॥

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    विषय

    अमृतत्व की याचना

    पदार्थ

    [१] (त्वम्) = हे प्रभो! आप (दूतः) = मुझे ज्ञान का सन्देश प्राप्त करानेवाले हैं। (प्रथमः) = सर्वमुख्य व सर्वव्यापक हैं। (वरेण्यः) = वरण करने के योग्य हैं, आपका वरण करनेवाला ही जीवन में सुखी होता है । (सः) = वे (अमृताय) = अमृतत्व की प्राप्ति के लिए (हूयमानः) = पुकारे जाते हुए आप (मत्स्व) = [to satisfy] हमें तृप्त व आनन्दित कीजिए। हमारी प्रार्थना को स्वीकार करते हुए आप हमारे हर्ष का कारण होइये । [२] (मरुतः) = प्राणसाधना करनेवाले पुरुष ही (त्वाम्) = आपको (मर्जयन्) = अपने अन्दर शोधित करते हैं। वासनाओं का आवरण हमारे अन्दर प्रभु के प्रकाश को आवृत किये रहता है। इस आवरण को हटाना ही 'प्रभु के प्रकाश का शोधन' है। यह आवरण का हटाना प्राणसाधना के द्वारा ही सम्भव है। [३] (दाशुषः गृहे) = दान की वृत्तिवाले के गृह में (भृगवः) = ज्ञानी लोग, ज्ञान द्वारा अपना परिपाक करनेवाले लोग, (त्वाम्) = आपको (स्तोमेभिः) = स्तुतियों के द्वारा (वि रुरुचुः) = दीप्त करते हैं। जो भोग-प्रवण व्यक्ति नहीं, उस व्यक्ति के घर में सत्संग के लिए लोग एकत्रित होते हैं। वहाँ ज्ञानी पुरुष प्रभु का गायन करते हैं। सारा वातावरण प्रभु की भावना से ओत-प्रोत हो उठता है, सभी के हृदयों में प्रभु का स्मरण होता है। यही प्रभु का दीपन है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु से अमृतत्व के लिए प्रार्थना करें। वासनाओं के आवरण को दूर करके प्रभु के प्रकाश को देखें। घरों में एकत्रित होकर प्रभु का गायन करें।

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    विषय

    भक्तयर्थ प्रभु की स्तुति।

    भावार्थ

    (त्वं) तू (प्रथमः) सर्वश्रेष्ठ, (वरेण्यः) सब से वरण करने योग्य है। (सः) वह तू (अमृताय) अमृत, मोक्ष प्राप्ति के लिये (हूयमानः) प्रार्थना किया जाता हुआ (मत्स्व) प्रसन्न हो। (त्वाम्) तुझको (मरुतः) विद्वान् जन (दाशुषः गृहे) यजमान के घर में (स्तोमेभिः) मन्त्र-समूहों से (मर्जयन्) परिशोभित करते हैं और (भृगवः) तपस्वी जन भी (त्वां वि रुरुचुः) तुझे विविध प्रकार से चाहते हैं। अध्यात्म में—(२) ‘दाश्वान्’ यह आत्मा है। उसके देह रूप गृहों में प्राण उसको अलंकृत करते हैं। इति पञ्चमो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिश्चित्रमहा वासिष्ठः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ त्रिष्टुप्। ५ निचृत् त्रिष्टुप्। २ जगती। ३, ८ पादनिचृज्जगती। ४, ६ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड जगती।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्वं प्रथमः-वरेण्यः-दूतः) हे परमात्मन् ! त्वं प्रथमो वरणीयः सर्वेषां प्रेरयिता (सः-हूयमानः) स त्वं प्रार्थयमानः सन् (अमृताय) अमरत्वाय मोक्षाय (मत्स्व) मां हर्षय “अन्तर्गतो णिजर्थः” (मरुतः-भृगवः) अध्यात्मयज्ञस्यार्त्विजः “मरुतः ऋत्विजः” [निघ० ३।१८] ज्ञानेन दीप्यमानाः “भृगवः परिपक्वविज्ञाना मेधाविनो विद्वांसः” [ऋ० १।५८।६ दयानन्दः] (त्वां मर्जयन्) त्वां प्राप्नुवन्ति “मार्ष्टि गतिकर्मा” [निघ० २।१४] अथ च (दाशुषः-गृहे स्तोमेभिः-त्वं वि रुरुचुः) दत्तवत आत्मनो गृहे हृदये स्तुतिभिस्त्वां विशेषेण दीपयन्ति-प्रकाशयन्ति “रुच-दीप्तौ” [भ्वादि०] ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, you are the messenger and harbinger of the breeze of fresh life. You are the first divinity of our love and choice. As such, invoked and adored for the sake of immortality, pray rejoice at yajna and let us rejoice too. Vibrant celebrants and veteran sages, shining and raising you in the house of generous yajamana, honour and exalt you with holy songs of adoration.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा वरण करण्यायोग्य आहे. प्रेरक आहे. अध्यात्मयाजी तेजस्वी महानुभाव त्याला प्राप्त करतात. तो आत्मसमर्पण करणाऱ्याच्या हृदयात साक्षात होतो. ॥५॥

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