ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 122/ मन्त्र 6
इषं॑ दु॒हन्त्सु॒दुघां॑ वि॒श्वधा॑यसं यज्ञ॒प्रिये॒ यज॑मानाय सुक्रतो । अग्ने॑ घृ॒तस्नु॒स्त्रिॠ॒तानि॒ दीद्य॑द्व॒र्तिर्य॒ज्ञं प॑रि॒यन्त्सु॑क्रतूयसे ॥
स्वर सहित पद पाठइष॑म् । दु॒हन् । सु॒ऽदुघा॑म् । वि॒श्वऽधा॑यसम् । य॒ज्ञ॒ऽप्रिये॑ । यज॑मानाय । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो । अग्रे॑ । घृ॒तऽस्नुः॑ । त्रिः । ऋ॒तानि॑ । दीद्य॑त् । व॒र्तिः । य॒ज्ञम् । प॒रि॒ऽयन् । सु॒क्र॒तु॒ऽय॒से॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इषं दुहन्त्सुदुघां विश्वधायसं यज्ञप्रिये यजमानाय सुक्रतो । अग्ने घृतस्नुस्त्रिॠतानि दीद्यद्वर्तिर्यज्ञं परियन्त्सुक्रतूयसे ॥
स्वर रहित पद पाठइषम् । दुहन् । सुऽदुघाम् । विश्वऽधायसम् । यज्ञऽप्रिये । यजमानाय । सुक्रतो इति सुऽक्रतो । अग्रे । घृतऽस्नुः । त्रिः । ऋतानि । दीद्यत् । वर्तिः । यज्ञम् । परिऽयन् । सुक्रतुऽयसे ॥ १०.१२२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 122; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सुक्रतो-अग्ने) हे शोभन कर्मवाले सम्यक् जगद्रचनादि कर्मकर्त्ता परमात्मन् ! (यज्ञप्रिये-यजमानाय) अध्यात्मयज्ञ के पूर्ण करनेवाले आत्मा के लिये (इषं विश्वधायसम्) कमनीय विश्व को धारण करनेवाली (सुदुघां दुहन्) सुख दुहनेवाली वेदवाणी को दुहता हुआ-या दुहने के हेतु (घृतस्नुः) स्निग्ध या तेज को प्रस्रवित करनेवाला (त्रिः) तीन वार आवृत्त ज्ञानकर्म उपासना को (ऋतानि) इन सत्यों को-सत्य आचरणों को (दीद्यत्) प्रकाशित करता है (वर्तिः) सबके ऊपर वर्तमान होता हुआ (यज्ञं परियन्) अध्यात्मयज्ञ को परि प्राप्त करता हुआ (सुक्रतूयसे) सम्यक् स्तुति करनेवालों को चाहता है ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा जगद्रचनादि शोभनकर्म करनेवाला है, अध्यात्मयज्ञ को करनेवाले यजमान के लिये वेदवाणी को प्रदान करता है, उसकी स्तुति, प्रार्थना, उपासना सफल करता है, ऐसा ईश्वर आश्रय लेने योग्य है ॥६॥
विषय
त्रिः ऋतानि दीद्यत्
पदार्थ
[१] (सुक्रतो) = हे उत्तम ज्ञान व शक्तिवाले प्रभो ! आप (यज्ञप्रिये) = यज्ञों के द्वारा आपको प्रीणित करनेवाले (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए (सुदुघाम्) = उत्तम ज्ञानदुग्ध का दोहन करनेवाली (विश्वधायसम्) = सबका धारण करनेवाली (इषम्) = प्रेरणा को (दुहन्) = [दुह प्रपूरणे] पूरित करनेवाले हैं। आप यज्ञशील को वह प्रेरणा प्राप्त कराते हैं जो उसके ज्ञान का वर्धन करती है तथा सबका धारण करती है । [२] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (घृतस्नुः) = आप दीप्ति के शिखर हैं [ सु-सानु] ऊँचे से ऊँचे ज्ञानवाले हैं । (त्रिः) = तीन प्रकार से (ऋतानि दीद्यत्) = ऋतों को दीप्त करते हुए, हमारे जीवन में 'ऋग्, यजु, साम' रूप से सत्य ज्ञान का प्रकाश करते हुए अथवा शरीर में स्वास्थ्य रूप ऋत को, मन में नैर्मल्य रूप ऋत को तथा बुद्धि में सूक्ष्मता व तीव्रता रूप ऋत को उत्पन्न करते हुए, (वर्तिः) = हमारे इन शरीर रूप गृहों तथा (यज्ञं) = उनके द्वारा चलनेवाले यज्ञों का (परियन्) = परिक्रमण करते हुए, रक्षण करते हुए (सुक्रतूयसे) हमें उत्तम उत्तम ज्ञान व शक्तिवाला बनाने की कामना करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें उत्कृष्ट प्रेरणा प्राप्त कराते हैं। हमारे स्वास्थ्य - मन के नैर्मल्य व बुद्धि की तीव्रता को करते हुए हमें ज्ञान व शक्ति से सम्पन्न करते हैं ।
विषय
विश्वपोषक गौवत् प्रभुवाणी से इष्ट कामना करते हुए परमेश्वर की उपासना करना।
भावार्थ
हे (सु-क्रतो) उत्तम कर्म करने वाले आत्मन्, उत्तम रीति से जगत् के निर्माण, रक्षण आदि करने हारे विधातः ! प्रभो ! तू (यज्ञप्रिये यजमानाय) यज्ञ दान से समस्त देवों वायु जल आदि पदार्थों और विद्वानों को प्रसन्न-तृप्त करने वाले दानशील पुरुष के लिये (सु-दुधाम्) उत्तम कर्मफल वा ज्ञान को देने वाली, (विश्व-धायसम्) समस्त जगत् के धारण पालन करने वाली गौवत् प्रभु शक्ति वा वाणी से (इषं दुहन्) इष्ट- कामना को प्राप्त करता हुआ, हे अग्ने ! तू (घृत-स्नूः) जलवत् द्रवित, दयार्द्र शान्तिप्रद होकर, वा (घृत-स्नूः) अति प्रकाशमय शिरोभाव वाला, उज्ज्वल मुख, उज्ज्वल रूप, (त्रिः ऋतानि दीद्यत्) तीनों लोकों वा तीनों सत्य ज्ञानों को प्रकाशित करता हुआ, (यज्ञं वर्त्तिः परि यन्) यज्ञ के स्वरूप को धारण करता हुआ वा यज्ञ-गृह में स्थापित अग्निवत् (सुक्रतूयसे) स्वयं उत्तम यज्ञ वा सत्कर्म कर रहा है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिश्चित्रमहा वासिष्ठः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ त्रिष्टुप्। ५ निचृत् त्रिष्टुप्। २ जगती। ३, ८ पादनिचृज्जगती। ४, ६ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड जगती।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सुक्रतो-अग्ने) हे शोभनकर्मन् सम्यग् जगद्रचनादिकर्मकर्तः ! अग्रणायक परमात्मन् ! (यज्ञप्रिये यजमानाय) अध्यात्मयज्ञस्य पूरयित्रे “यज्ञप्रीः यो यज्ञं प्राति पूरयति सः” [यजु० २७।३१] “अचिश्नुधातुभ्रुवां य्वोरियङुवङौ” [अष्टा० ६।४।७७] इति-इयङ् आदेशः-आत्मने “आत्मा यजमानः” [कौ० १७।७] (इषं विश्वधायसं सुदुघां दुहन्) एषणीयां विश्वधारिकां सुदोग्ध्रीं वाचं वेदवाचं-दोग्धुं वर्तमान ! हे परमात्मन् ! (घृतस्नुः-त्रिः-ऋतानि दीद्यत्) स्निग्धं तेजो वा स्रौति प्रस्रावयति सः “ष्णु-प्रस्रवणे” [भ्वादि०] ‘ततः क्विप् छान्दसः, त्रिवारं त्रिरावृत्तानि सत्यानि ज्ञानकर्मोपासनानि प्रकाशयति (वर्तिः) सर्वोपरि वर्त्तमानः सन् (यज्ञं परियन् सुक्रतूयसे) अध्यात्मयज्ञं परि प्राप्नुवन् शोभनमध्यात्मयज्ञस्त्वं स्तोतुरिच्छसि ‘छन्दसि’ परेच्छायां च क्यच्’ ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, light and presiding power of yajnic action, bringing plenty of food, energy, prosperity and the milk of human generosity by the mother spirit of the universe for the noble yajamana dedicated to yajna in love and faith, rising in flames of glory by oblations of ghrta, pervading the three dynamic regions of heaven, earth and the skies with light and splendour, and suffusing the yajnic home in life’s fragrance, you carry on the divine purpose in the world of nature and humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा जगाची रचना इत्यादी शोभिवंत कर्म करणारा आहे. अध्यात्मयज्ञ करणाऱ्या यजमानासाठी वेदवाणी प्रदान करतो. त्याची स्तुती, प्रार्थना, उपासना सफल करतो. असा ईश्वर आश्रय घेण्यायोग्य आहे. ॥६॥
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