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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 122 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 122/ मन्त्र 7
    ऋषिः - चित्रमहा वासिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराडार्चीजगती स्वरः - निषादः

    त्वामिद॒स्या उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु दू॒तं कृ॑ण्वा॒ना अ॑यजन्त॒ मानु॑षाः । त्वां दे॒वा म॑ह॒याय्या॑य वावृधु॒राज्य॑मग्ने निमृ॒जन्तो॑ अध्व॒रे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । इत् । अ॒स्याः । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टिषु । दू॒तम् । कृ॒ण्वा॒नाः । अ॒य॒ज॒न्त॒ । मानु॑षाः । त्वाम् । दे॒वाः । म॒ह॒याय्या॑य । व॒वृ॒धुः॒ । आज्य॑म् । अ॒ग्ने॒ । नि॒ऽमृ॒जन्तः॑ । अ॒ध्व॒रे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामिदस्या उषसो व्युष्टिषु दूतं कृण्वाना अयजन्त मानुषाः । त्वां देवा महयाय्याय वावृधुराज्यमग्ने निमृजन्तो अध्वरे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । इत् । अस्याः । उषसः । विऽउष्टिषु । दूतम् । कृण्वानाः । अयजन्त । मानुषाः । त्वाम् । देवाः । महयाय्याय । ववृधुः । आज्यम् । अग्ने । निऽमृजन्तः । अध्वरे ॥ १०.१२२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 122; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (अस्याः-उषसः) इस प्रातःकाल होनेवाली ज्योति के (व्युष्टिषु) विकासवेलाओं में (त्वाम्-इत्) तुझे ही (दूतम्) प्रेरक आगे करते हुए (मानुषाः) मननशील जन (अयजन्त) अध्यात्मयज्ञ करते हैं (देवाः) मुमुक्षुजन (महयाय्याय) महत्त्ववान् मोक्ष के लिये (त्वाम्) तुझे (ववृधुः) स्तुतियों से बढ़ाते हैं-प्रसन्न करते हैं (अध्वरे) अहिंसनीय अध्यात्मयज्ञ में (आज्यम्) चित्त को (निमृजन्तः) शोधते हुए ॥७॥

    भावार्थ

    प्रातःकाल के उषा वेला में मनुष्य परमात्मा की स्तुतिपूर्वक यज्ञ करे तथा मुमुक्षुजन भी मोक्षार्थ, स्तुतियों द्वारा अध्यात्मयज्ञ रचावे, अपने चित्त को निर्मल निर्दोष निरुद्ध करें ॥७॥

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    विषय

    सन्ध्या- हवन

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (मानुषाः) = विचारशील पुरुष (अस्याः उषसः व्युष्टिषु) = इन उषाकालों के निकलने पर (त्वां इत्) = निश्चय से आपको ही (दूतं कृण्वानाः) = ज्ञान सन्देश देनेवाला करते हुए, आपसे ज्ञान सन्देश को सुनते हुए (अयजन्त) = आपकी उपासना करते हैं। एक अध्यापक का विद्यार्थी द्वारा आदर यही है कि वह उसके पाठ को ध्यान से सुनता है। इसी प्रकार हम प्रभु का आदर इसी प्रकार कर पाते हैं कि प्रभु से दिये जानेवाले ज्ञान सन्देश को एकाग्रता से सुनें । [२] (देवा:) = देववृत्ति के लोग (महयाय्याय) = महत्त्व की प्राप्ति के लिए हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वां वावृधुः) = आपका वर्धन करते हैं । निरन्तर आपका स्मरण करते हुए आपकी भावना को अपने में उदित रखते हैं । ये लोग (अध्वरे) = हिंसारहित यज्ञों में (आज्यं निमृजन्तः) = घृतों का प्रक्षेपण करते हैं [प्रक्षिप्तवन्तः सा०] अथवा यज्ञ के निमित्त घृत का शोधन करते हैं। इस प्रकार ये देववृत्ति के लोग प्रभु का स्मरण करते हैं और यज्ञों को करते हैं, सन्ध्या व हवन को अपनाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- विचारशील पुरुष व देववृत्ति के व्यक्ति ध्यान व यज्ञ को अपनाकर जीवन को उत्कृष्ट बनाते हैं।

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    विषय

    प्रातः उपासना होमादि का विधान। उनके अभिप्राय।

    भावार्थ

    (उषसः वि-उष्टिषु) उषा के प्रकट होने के कालों में (मनुषाः) मननशील मनुष्य (त्वाम् इत् दूतं कृण्वानाः) तुझको ही अपना दूत अर्थात् उत्तम भावों का निदर्शक करते हुए अथवा—(दूतं कृण्वानाः) संतापक अग्नि को ही उत्पन्न करते या स्थापित करते हुए, (त्वाम् इत् अयजन्त) तेरी ही उपासना करते हैं। (त्वाम्) तुझको ही (देवाः) विद्वान् जन (महयाय्याय) महान् जान कर (वावृधुः) उपासना करते हैं और हे (अग्ने) प्रकाशस्वरूप ! वे (अध्वरे) यज्ञ में (आज्यम् नि-मृजन्तः) घृत का परिशोधन करते हुए भी (त्वा वावृधुः) तुझे ही बढ़ाते हैं, तेरी ही स्तुति करते हैं। यज्ञ में आज्य परिशोधन का अभिप्राय भी एक प्रकार से प्रभु को अपने हृदय में उसके व्यंजक गुणों द्वारा प्रकाशित करना ही है।

    टिप्पणी

    अजस्य स्वरूपम् आज्यम्। अजन्मा, सर्वप्रेरक प्रभु का स्वरूप आज्य है उसकी साधना, ‘आज्यमार्जन’ है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिश्चित्रमहा वासिष्ठः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ त्रिष्टुप्। ५ निचृत् त्रिष्टुप्। २ जगती। ३, ८ पादनिचृज्जगती। ४, ६ निचृज्जगती। ७ आर्ची स्वराड जगती।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्रणायक परमात्मन् ! (अस्याः-उषसः-व्युष्टिषु) एतस्याः प्रातस्तन्याः खलु भासो विकासवेलासु (त्वाम्-इत्) त्वामेव (दूतं कृण्वानाः) प्रेरकमग्रे कुर्वाणाः (मानुषाः-अभजन्त) मननशीला जना अध्यात्मयज्ञं कुर्वन्ति (देवाः) मुमुक्षवः (महयाय्याय) महत्त्ववते मोक्षाय “मह धातोर्णिजन्तात्-आप्यः प्रत्यय औणादिकः (त्वां ववृधुः) त्वां परमात्मानं स्तुतिभिर्वर्धयन्ति-प्रसीदन्ति (अध्वरे-आज्यं निमृजन्तः) अहिंसनीयाध्यात्मयज्ञे चित्तम् “चित्तमाज्यम्” [तै० आ० ३।१।२] शोधयन्तः ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light of life, in the rising lights of this morning’s dawn, thoughtful people adore you in yajna as the harbinger of nature’s bounties and carrier of their love and faith with fragrance to the divinities. Nobilities adore you and divinities exalt you, great as you are, and pray for their own rise in merit while they suffuse you in ghrta in the yajna vedi.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रात:काळी, उष:काली माणसांनी परमात्म्याचा स्तुतिपूर्वक यज्ञ करावा व मुमुक्षू जनांनीही मोक्षार्थ स्तुतीद्वारे अध्यात्मयज्ञ रचावेत. आपले चित्त निर्मल, निर्दोष, निरुद्ध करावे. ॥७॥

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