ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 130/ मन्त्र 2
ऋषिः - यज्ञः प्राजापत्यः
देवता - भाववृत्तम्
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
पुमाँ॑ एनं तनुत॒ उत्कृ॑णत्ति॒ पुमा॒न्वि त॑त्ने॒ अधि॒ नाके॑ अ॒स्मिन् । इ॒मे म॒यूखा॒ उप॑ सेदुरू॒ सद॒: सामा॑नि चक्रु॒स्तस॑रा॒ण्योत॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठपुमा॑न् । ए॒न॒म् । त॒नु॒ते॒ । उत् । कृ॒ण॒त्ति॒ । पुमा॑न् । वि । त॒त्ने॒ । अधि॑ । नाके॑ । अ॒स्मिन् । इ॒मे । म॒यूखाः॑ । उप॑ । से॒दुः॒ । ऊँ॒ इति॑ । सदः॑ । सामा॑नि । च॒क्रुः॒ । तस॑राणि । ओत॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुमाँ एनं तनुत उत्कृणत्ति पुमान्वि तत्ने अधि नाके अस्मिन् । इमे मयूखा उप सेदुरू सद: सामानि चक्रुस्तसराण्योतवे ॥
स्वर रहित पद पाठपुमान् । एनम् । तनुते । उत् । कृणत्ति । पुमान् । वि । तत्ने । अधि । नाके । अस्मिन् । इमे । मयूखाः । उप । सेदुः । ऊँ इति । सदः । सामानि । चक्रुः । तसराणि । ओतवे ॥ १०.१३०.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 130; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पुमान्) परमपुरुष परमात्मा (एनम्) इस ब्राह्मयज्ञ या शरीरयज्ञ को (तनुते) तानता है-रचता है (उत् कृणत्ति) पुनः-उद्वेष्टित करता है, लपेटता है (पुमान्-अधि नाके) वह परमात्मा मोक्ष में (अस्मिन्) और इस संसार में शरीरयज्ञ को (वि तत्ने) विस्तृत करता है-रचता है (इमे मयूखाः) ये ज्ञानप्रकाशादि गुण या रश्मियाँ (सदः-उप सेदुः) उसी ब्राह्मयज्ञ या शरीरयज्ञ को प्राप्त होते हैं (सामानि तसराणि) समानता में होनेवाले-सुख देनेवाले बन्धनों को, सूत्रों को (ओतवे चक्रुः) रक्षा के लिए करते-बनाते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा ब्राह्मयज्ञ और शरीरयज्ञ को रचता है और वही उसको समाप्त कर देता है, मोक्ष में ब्राह्मयज्ञ संसार में शरीरयज्ञ का विस्तार करता है और मोक्ष में परमात्मा के ज्ञान प्रकाशादि गुण से प्रकाशित होता है और संसार में सूर्य की रश्मियों से ये उसका रक्षण करते हैं ॥२॥
विषय
परमपरुष ही यज्ञ-पट तनता है
पदार्थ
(पुमान् एनं तनुते) = वह परम पुरुष भी उस संसार यज्ञ का विस्तार करता है, और (पुमान् उत् कृणत्ति) = वह परम पुरुष ही उस संसार यज्ञ को समाप्त करता है। वह (नाके अधि वितते) = महान् आकाश में जगत्-सर्ग रूप यज्ञ को करता है और (इमे) = ये (मयूखाः उ) = सूर्यकिरण (सदः) = यज्ञ भवन में ऋत्विजों के समान (सदः) = आश्रयभूत आकाश में तथा नाना लोकों में (उप सेदुः) = उपस्थित होते हैं और (ओतवे) = बुनने के लिये (तसराणि) = तिरछे तन्तुओं के समान (सामानि) = सामों अर्थात् परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया की समता का विस्तार करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- वह परम पुरुष संसार को विस्तार करता है वही संसार यज्ञ को समाप्त करता है ।
विषय
परम पुरुष ही यज्ञ-पट तनता है, यज्ञ पट बुनने के अन्य साधनों की भी लिष्ट योजना।
भावार्थ
(पुमान् एनं तनुते) वह पुरुष ही गृहपति के तुल्य उस यज्ञ का विस्तार करता है, और (पुमान् उत् कृणत्ति) वह पुरुष ही उस यज्ञ को समाप्त करता है। वह (नाके अधि वितते) परम सुखमय लोक या महान् आकाश में जगत्-सर्ग रूप यज्ञ को करता है। और (इमे) ये (मयूखाः उ) मयूख, सूर्यकिरण, ही (सदः) यज्ञ भवन में ऋत्विजों के समान (सदः) आश्रयभूत आकाश में नाना लोकों के रूप में (उप सेदुः) उपस्थित होते हैं। और (ओतवे) बुनने के लिये (तसराणि) तिरछे तन्तुओं के समान ही यज्ञ में (सामानि) सामगण का विस्तार करते हैं। वे दिव्य शक्तियां (ओतवे) जगत् सर्ग को रचने के लिये (सामानि) समस्त जीवों और लोकों के परस्पर एक समान वर्त्तन, व्यवहारों को पट के तिरछे तन्तुवत् कल्पना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्यज्ञः प्राजापत्यः॥ देवता—भाववृत्तम्॥ छन्दः– १ विराड् जगती। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७ त्रिष्टुप्। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पुमान्-एतं तनुते) परमपुरुषः परमात्मा-एतं ब्राह्मयज्ञं शरीरयज्ञं वा तानयति रचयति (उत् कृणत्ति) उद्वेष्टयति ‘कृती वेष्टने’ [रुधादि०] (पुमान्-अधि नाके-अस्मिन् वि तत्ने) परमात्मा मोक्षे ब्राह्मयज्ञं तथाऽस्मिन् लोके शरीरयज्ञं विस्तारयति विरचयति (इमे-मयूखाः सदः-उप सेदुः) एते ज्ञानप्रकाशादयो गुणाः-रश्मयो वा “मयूखैर्ज्ञानप्रकाशादिगुणैः-रश्मिभिर्वा” [यजु० ५।१६ दयानन्दः] “मयूखा रश्मिनाम” [निघ० १।५] सदनं तमेव ब्राह्मयज्ञं शरीरयज्ञं स्थानमुपसीदन्ति (सामानि तसराणि-ओतवे-चक्रुः) समतायां भवानि सुखयितॄणि सूत्राणि बन्धनानि रक्षकाणि “तन्यृषिभ्यां क्सरन्” [उणादि० ३।७५] वयनाय कुर्वन्ति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The supreme cosmic Purusha weaves this web of existence and the same Purasha winds it up on time. He alone in this cosmos and beyond the heaven of time and space extends it. These radiations, vibrations, threads, filaments and creative processes abide and act in this vast yajna of the cosmos, and they structure the holy formulas and they spin the threads of the warp and woof of this web.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा ब्राह्मयज्ञ व शरीरयज्ञाची रचना करतो व तोच त्याला समाप्त करतो. मोक्षात ब्राह्मयज्ञ व संसारात शरीर यज्ञाचा विस्तार करतो मोक्षात परमात्म्याचे ज्ञान, प्रकाश इत्यादी गुणाने ब्राह्मयज्ञ प्रकाशित होतो व संसारात सूर्याच्या रश्मी शरीरयज्ञाचे रक्षण करतात. ॥२॥
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