ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 130/ मन्त्र 6
ऋषिः - यज्ञः प्राजापत्यः
देवता - भाववृत्तम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
चा॒कॢ॒प्रे तेन॒ ऋष॑यो मनु॒ष्या॑ य॒ज्ञे जा॒ते पि॒तरो॑ नः पुरा॒णे । पश्य॑न्मन्ये॒ मन॑सा॒ चक्ष॑सा॒ तान्य इ॒मं य॒ज्ञमय॑जन्त॒ पूर्वे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठचा॒कॢ॒प्रे । तेन॑ । ऋष॑यः । म॒नु॒ष्याः॑ । य॒ज्ञे । जा॒ते । पि॒तरः॑ । नः॒ । पु॒रा॒णे । पश्य॑न् । म॒न्ये॒ । मन॑सा । चक्ष॑सा । तान् । ये । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । अय॑जन्त । पूर्वे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चाकॢप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे । पश्यन्मन्ये मनसा चक्षसा तान्य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ॥
स्वर रहित पद पाठचाकॢप्रे । तेन । ऋषयः । मनुष्याः । यज्ञे । जाते । पितरः । नः । पुराणे । पश्यन् । मन्ये । मनसा । चक्षसा । तान् । ये । इमम् । यज्ञम् । अयजन्त । पूर्वे ॥ १०.१३०.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 130; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पुराणे जाते यज्ञे) शाश्वतिक यज्ञ सम्पन्न हो जाने पर (नः) हमारे (पितरः) पालकजन (तेन) उस यज्ञ से (ऋषयः-मनुष्याः) मन्त्रद्रष्टा और साधारणजन (चाक्लृप्रे) समर्थ होते हैं (तान् मनसा-चक्षसा) उन्हें मन से और दर्शनसाधन नेत्र से (पश्यन्-मन्ये) देखता हुआ जानता है (ये पूर्वे) जो पुरातन महानुभाव (इमं यज्ञम्) उस ब्राह्मयज्ञ या शरीरयज्ञ को (अयजन्त) अनुष्ठान करते हैं ॥६॥
भावार्थ
ब्राह्मयज्ञ और शरीरयज्ञ सदा से चले आ रहे हैं, ऋषि, मनुष्य और हमारे पुरातन रक्षक इनका सेवन करते रहे हैं, यह कर्म मन से और साक्षात् दर्शन से जाना जाता है कि पुरातन महानुभाव इन यज्ञों को करते चले आये हैं ॥६॥
विषय
यज्ञ से ऋषि- मनुष्यादि का प्रादुर्भाव
पदार्थ
उस (पुराणे) = प्राचीन यज्ञे जाते यज्ञ के उत्पन्न होने पर (तेन) = उससे ही (ऋषयः मनुष्याः) = तत्त्वज्ञानी ऋषिजन और मननशील मनुष्य और (नः पितरः) = हमारे पालक माता-पिता चाक्लृपे समर्थ हुए। (पूर्वे) = पूर्व के (ये इमं यज्ञम्) = जो इस यज्ञ को (अयजन्त) = करते थे । (तान्) = उनको मैं (मनसा) = मन रूप (चक्षसा) = चक्षु से (पश्यन्) = देखता हुआ (मन्ये) = जानता हूँ ।
भावार्थ
भावार्थ - यज्ञ से परमात्म पूजन होता था ।
विषय
यज्ञ से ऋषि-मनुष्यादि का प्रादुर्भाव।
भावार्थ
उस (पुराणे) अति प्राचीन काल से होने वाले (यज्ञे जाते) यज्ञ के होने पर (तेन) उससे ही (ऋषयः मनुष्याः) मन्त्रद्वष्टा, तत्वज्ञानी ऋषि जन और मननशील मनुष्य और (नः पितरः) हमारे पालक माता पिता (चाक्लृप्रे) समर्थ हुए। (पूर्वे) पूर्व के (ये इमं यज्ञम्) जो इस यज्ञ को (अयजन्त) करते थे (तान्) उनको मैं (मनसा) मन रूप (चक्षसा) चक्षु से (पश्यन्) देखता हुआ (मन्ये) जानता हूं। मानो उनको साक्षात् करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्यज्ञः प्राजापत्यः॥ देवता—भाववृत्तम्॥ छन्दः– १ विराड् जगती। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३, ६, ७ त्रिष्टुप्। ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पुराणे जाते यज्ञे) शाश्वतिके यज्ञे सम्पन्ने सति (नः) अस्माकं (पितरः) पालकाः (तेन) तेन यज्ञेन (ऋषयः-मनुष्याः-चाक्लृप्रे) मन्त्रद्रष्टारो मनुष्याः समर्था भवन्ति (तान् मनसा चक्षसा पश्यन् मन्ये) तान् मनसा दर्शनसाधनेन च पश्यन् मन्ये जानामि (ये पूर्वे-इमं-यज्ञम्-अयजन्त) ये पुरातना मान्या महानुभावाः-इमं ब्राह्मयज्ञं शरीरयज्ञं च सम्यगनुतिष्ठन्ते ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the creation yajna of all time is accomplished, thereby our ancient forefathers, seers and ordinary mortals receive their being and strength of identity, and, visualising them with the eye of the mind and imagination, I honour and adore those who in times of yore enact this yajna of creation.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्राह्मयज्ञ व शरीरयज्ञ सदैव चालत असतात. ऋषी, मनुष्य व आमचे पुरातन रक्षक त्यांचे सेवन करत आलेले आहेत. हे कर्म मनाने व साक्षात दर्शनाने जाणता येते. पुरातन महानुभाव या यज्ञांना करत आलेले आहेत. ॥६॥
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