ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 133/ मन्त्र 5
यो न॑ इन्द्राभि॒दास॑ति॒ सना॑भि॒र्यश्च॒ निष्ट्य॑: । अव॒ तस्य॒ बलं॑ तिर म॒हीव॒ द्यौरध॒ त्मना॒ नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥
स्वर सहित पद पाठयः । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि॒ऽदास॑ति । सऽना॑भिः । यः । च॒ । निष्ट्यः॑ । अव॑ । तस्य॑ । बल॑म् । ति॒र॒ । म॒हीऽइ॑व । द्यौः । अध॑ । त्मना॑ । नभ॑न्ताम् । अ॒न्य॒केषा॑म् । ज्या॒काः । अधि॑ । धन्व॑ऽसु ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो न इन्द्राभिदासति सनाभिर्यश्च निष्ट्य: । अव तस्य बलं तिर महीव द्यौरध त्मना नभन्तामन्यकेषां ज्याका अधि धन्वसु ॥
स्वर रहित पद पाठयः । नः । इन्द्र । अभिऽदासति । सऽनाभिः । यः । च । निष्ट्यः । अव । तस्य । बलम् । तिर । महीऽइव । द्यौः । अध । त्मना । नभन्ताम् । अन्यकेषाम् । ज्याकाः । अधि । धन्वऽसु ॥ १०.१३३.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 133; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे राजन् ! (यः सनाभिः) जो समानवंशज (च) और (निष्ट्यः) वंश से निर्गत अन्य वंशवाला दस्यु (नः) हमें (अभिदासति) क्षीण करता है (तस्य बलम्) उसके बल को (अवतिर) नष्ट कर (मही द्यौः-इव) महा सूर्य की भाँति जैसे सूर्य अन्धकार को नष्ट करता है (अध त्मना) अपने आत्मबल से नष्ट कर (नभन्ताम्०) पूर्ववत् ॥५॥
भावार्थ
स्ववंश का या परवंश का कोई अत्याचारी दुष्ट प्रजा का विनाश करे, तो राजा उसे अपने प्रताप से नष्ट कर दे ॥५॥
विषय
सनाभि व निष्ट्य शत्रु
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सेनापते ! (यः सनाभिः) = जो समानजन्यवाला, अपनी बिरादरी का (यः च) = और जो (निष्ट्य:) = निकृष्टजन्यवाला अथवा अपनी बिरादरी से बाहर का शत्रु (नः) = हमें (अभिदासति) = उपक्षीण करना चाहता है [दसु उपक्षये] (तस्य बलम्) = उसके बल को (अवतिरः) = नष्ट कर दे [जहि] । [२] इस शत्रु सैन्य को नष्ट करके (अध) = अब (त्मना) = स्वयं (मही द्यौः इव) = इस विशाल द्युलोक की तरह तू हो । जैसे द्युलोक सूर्य व नक्षत्रों से दीप्त हैं इसी प्रकार तू ज्ञान व सम्पत्तियों से श्री सम्पन्न हो । तेरी श्री के सामने (अन्यकेषां ज्याकाः) = कुत्सित वृत्ति के इन शत्रुओं की डोरियाँ (अधिधन्वसु) = धनुषों पर ही (नभन्ताम्) = हिंसित हो जाएँ । शत्रुओं के सब अस्त्र-शस्त्र कुण्ठित हो जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ - अन्दर के व बाहर के सब शत्रु नष्ट हो जाएँ ।
विषय
दण्डनीय पुरुषों को उचित दण्ड।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (यः नः अभि दासति) जो हमारा नाश करता है और (यः) जो (सनाभिः) हमारा सगोत्र होकर भी (निष्टयः) नीच स्वभाव का है तू (तस्य बलं अव तिर) उसके बल का नाश कर। तू (त्मना) अपने सामर्थ्य से स्वयं (मही व द्यौः) भूमि और सूर्य के तुल्य महान् और तेजस्वी हो। (नभन्ताम्०) इत्यादि पूर्ववत्॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सुराः पैजवनः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः-१-३ शक्वरी। ४-६ महापंक्तिः। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे राजन् ! (यः सनाभिः) यः समानवंशजः (च) तथा (निष्ट्यः) वंशान्निर्गतोऽन्यवंशजो दस्युः (नः-अभिदासति) अस्मानभिक्षिणोति (तस्य बलम्-अव तिर) तस्य बलं नाशय (मही-इव द्यौः-अध त्मना) महती द्यौः-महान् सूर्यो यथा तमो नाशयति तद्वत् (नभन्ताम्०) पूर्ववत् ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, whoever the man or power equal or lower in rank, or strength that tries to suppress and enslave us, overcome his force and crush him by your own strength and power which is great as the blazing sun. Let the bow strings of the enemies snap under the heat of your blaze.
मराठी (1)
भावार्थ
स्ववंशाचा किंवा परवंशाचा एखादा अत्याचारी दुष्ट प्रजेचा नाश करतो तेव्हा राजाने आपल्या पराक्रमाने त्याला नष्ट करावे. ॥५॥
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