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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 133 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 133/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सुदाः पैजवनः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्मभ्यं॒ सु त्वमि॑न्द्र॒ तां शि॑क्ष॒ या दोह॑ते॒ प्रति॒ वरं॑ जरि॒त्रे । अच्छि॑द्रोध्नी पी॒पय॒द्यथा॑ नः स॒हस्र॑धारा॒ पय॑सा म॒ही गौः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मभ्य॑म् । सु । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । ताम् । शि॒क्ष॒ । या । दोह॑ते । प्रति॑ । वर॑म् । ज॒रि॒त्रे । अच्छि॑द्रऽऊध्नी । पी॒पय॑त् । यथा॑ । नः॒ । स॒हस्र॑ऽधारा । पय॑सा । म॒ही । गौः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मभ्यं सु त्वमिन्द्र तां शिक्ष या दोहते प्रति वरं जरित्रे । अच्छिद्रोध्नी पीपयद्यथा नः सहस्रधारा पयसा मही गौः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मभ्यम् । सु । त्वम् । इन्द्र । ताम् । शिक्ष । या । दोहते । प्रति । वरम् । जरित्रे । अच्छिद्रऽऊध्नी । पीपयत् । यथा । नः । सहस्रऽधारा । पयसा । मही । गौः ॥ १०.१३३.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 133; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे राजन् ! (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (ताम्) उस आदेश आ आज्ञारूप वाणी को (सुशिक्ष) भलीभाँति प्रदान कर (या) जो (जरित्रे) तेरे प्रशंसक के लिए (वरम्) वरणीय अभीष्ट को (प्रति दोहते) प्रपूरित करती है (अच्छिद्रोध्नी) छिद्ररहित ऊधस्वाली (यथा नः पीपयत्) जिससे हमें बढ़ाती है (सहस्रधारा मही गौः पयसा) बहुत धारावाली महत्त्ववती गौ या पृथिवी के समान दूध से या-अन्नरस से तृप्त करनेवाली हो ॥७॥

    भावार्थ

    राजा प्रजा को वेदोक्त आदेशरूप वेदवाणी दे, जो अभीष्ट सुखों को देनेवाली हो, जैसे गौ या पृथिवी अपने दूध या अन्नरस से पूर्ण करती है-तृप्त करती है ॥७॥

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    विषय

    वेदवाणी का व्यापक प्रचार

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = राजन् ! (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (त्वम्) = आप (ताम्) = उस गौ को (सु शिक्ष) = अच्छी प्रकार प्राप्त कराइये। (या) = जो गौ (जरित्रे) = स्तोता के लिए (वरम्) = वरणीय वस्तुओं को (प्रतिदोहते) = प्रतिदिन पूरित करती है । यह गौ वेदवाणी है। और यह हमारे लिए 'आयु, प्राण, प्रजा, पशु, कीर्ति, द्रविण व ब्रह्मवर्चस्' आदि सब वरणीय वस्तुओं को प्राप्त कराती है । [२] यह (अच्छिद्रोध्नी) = निर्दोष ऊधस्वाली है । यह पवित्र ज्ञानदुग्ध का ही दोहन करती है। हे राजन् ! ऐसी व्यवस्था करिये (यथा) = जिससे यह (मही गौः) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वेदवाणी रूप गौ (नः) = हमें (सहस्त्रधारा) = शतशः धारणशक्तियोंवाली होती हुई (पयसा) = अपने ज्ञानदुग्ध से (पीपयत्) = आप्यायित करे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - राजा का कर्त्तव्य है कि राष्ट्र में सभी को वेदवाणी का ज्ञान प्राप्त कराये । यह वेदवाणी उनका सब प्रकार से वर्धन करेगी। इस सूक्त में राजा का यह मौलिक कर्त्तव्य उल्लिखित हुआ है कि यह शत्रुओं से राष्ट्र का रक्षण करके प्रजाओं को ठीक मार्ग से ले चलता हुआ दुर्गति से बचाये। सभी को वेदवाणी के ज्ञान से युक्त करे। इस वेदवाणी का धारण करनेवाला 'मान्धाता' कहलाता है, क्योंकि यह प्रभु का धारण करता है [मांधाता]। यह 'यौवनाश्व' है, इसके इन्द्रियरूप अश्व अशुभ से पृथक् व शुभ से युक्त होते हैं। वह वेदवाणी का धारण करने से 'गो-धा' भी कहलाता है। अग्रिम सूक्त का ऋषि यह 'मान्धाता यौवनाश्व' है । सूक्त के अन्तिम मन्त्र का ऋषि 'गोधा' है । यह कहता है कि-

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    विषय

    शासक ज्ञानी के कर्त्तव्य। वह अधीनों को उत्तम शिक्षा दे।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे वाणी, वेदवाणी वा शासनाज्ञा को देने वाले ! तत्वदर्शिन् ! (त्वं) तू (अस्मभ्यम्) हमें (तां शिक्ष) यह वाणी प्रदान कर। (या) जो (अच्छिद्र-ऊध्नी) त्रुटि दोषादि से रहित स्तनों वाली गौ के तुल्य होकर (जरित्रे) स्तुतिकर्त्ता विद्वान् को (प्रति) प्रत्यक्ष या प्रतिसमय, (दोहते) रस प्रदान करे। (यथा) जो (सहस्र-धारा) हज़ारों धारा वाली, हज़ारों वाणी वाली, (गौः मही) भूमिवत् पृथिवी और पृथिवीवत् गौ, और पूज्य वाणी, (नः पीपयत्) हमें पुष्ट करे। इत्येकविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः सुराः पैजवनः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः-१-३ शक्वरी। ४-६ महापंक्तिः। ७ विराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे राजन् ! (अस्मभ्यं तां सुशिक्ष) अस्मभ्यं तामादेशवाचं सुतरां देहि “शिक्षति दानकर्मा” [निघ० ३।२०] (या जरित्रे वरं प्रति दोहते) या स्तोत्रे प्रशंसकाय वरणीयमभीष्टं प्रपूरयति “दुह प्रपूरणे” [अदादि०] शपो लुङ् न भवति (अच्छिद्रोध्नी) अच्छिद्रोधस्वती (यथा नः पीपयत्) यथाऽस्मान्प्रवर्धयति (सहस्रधारा पयसा मही-गौः) या च सहस्रधारेव गौर्महती पृथिवी-इव महत्त्ववती वेदवाणी स्वज्ञानरसेन महती वेदवाग् भवेत् ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of splendour, pray bless us with that perennial cow, that speech, knowledge and vision which gives the cherished milk of life for the celebrant so that this great earth, this light of divinity, an infinite ocean of living vitality, may shower us with abundance in a thousand streams.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी गाय किंवा पृथ्वी आपल्या दूध किंवा अन्नरसाने तृप्त करते, तसे राजाने प्रजेला वेदोक्त आदेशरूपी वेदवाणी द्यावी. जी अभीष्ट सुख देणारी असते. ॥७॥

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