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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 156 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 156/ मन्त्र 1
    ऋषिः - केतुराग्नेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्निं हि॑न्वन्तु नो॒ धिय॒: सप्ति॑मा॒शुमि॑वा॒जिषु॑ । तेन॑ जेष्म॒ धनं॑धनम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । हि॒न्व॒न्तु॒ । नः॒ । धियः॑ । सप्ति॑म् । आ॒शुम्ऽइ॑व । आ॒जिषु॑ । तेन॑ । जे॒ष्म॒ । धन॑म्ऽधनम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निं हिन्वन्तु नो धिय: सप्तिमाशुमिवाजिषु । तेन जेष्म धनंधनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । हिन्वन्तु । नः । धियः । सप्तिम् । आशुम्ऽइव । आजिषु । तेन । जेष्म । धनम्ऽधनम् ॥ १०.१५६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 156; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में सेना प्रजाजन अपने कर्मों से राजा को प्रेरणा दें, राजा भी शत्रुभूमि और धन को जीतकर रक्षार्थ सेना को सौंप दे, राष्ट्रहित का प्रवचन करनेवाले को भोजन दे आदि विषय हैं।

    पदार्थ

    (नः) हमारे (धियः) कर्म (आजिषु) संग्रामों में (सप्तिम्) सर्पणशील (आशुम्-इव) घोड़े के समान (अग्निम्) अग्रणेता राजा को (हिन्वन्तु) प्रेरित करें (तेन) उस राजा के द्वारा (धनं धनम्) प्रत्येक धन-धनमात्र को (जेष्म) जीतें-प्राप्त करें ॥१॥

    भावार्थ

    सैनिक तथा प्रजाजन राजा को संग्रामों में इस प्रकार अपने कर्मों द्वारा प्रेरित करें-साहस दिलाएँ कि वह शत्रु के प्रत्येक धन पर अधिकार कर सके ॥१॥

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    विषय

    धनों का विजय

    पदार्थ

    [१] (नः) = हमारी (धियः) = बुद्धियाँ अपने अन्दर (अग्निं हिन्वन्तु) = उस प्रभु को प्रेरित करें व उस प्रभु की भावना का वर्धन करें। अर्थात् हम अपने हृदयों में प्रभु का चिन्तन करें। जो प्रभु (आजिषु) = संग्रामों में (आशुं सप्तिं इव) = [ अशू व्याप्तौ ] शीघ्र गतिवाले अश्व के समान हैं। जैसे अश्व से संग्राम में विजय प्राप्त होती है, इसी प्रकार प्रभु के द्वारा हम अध्यात्म-संग्रामों में विजय को प्राप्त करते हैं । [२] (तेन) = उस प्रभु के द्वारा हम (धनं धनम्) = प्रत्येक जीवन को धन्य बनानेवाले धन को (जेष्म) = जीतनेवाले हों । प्रभु ही भगवान् हैं, वे ही आवश्यक भगों-ऐश्वर्यों को प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु का हृदयों में चिन्तन करते हुए हम काम-क्रोध आदि को पराजित कर पायें और सब धनों का विजय करें।

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    विषय

    अग्नि।

    भावार्थ

    (नः धियः) हमारे कर्म और हमारी बुद्धियां (वाजिषु आशुम् इव) ज्ञान, बल ऐश्वर्यादि से सम्पन्नों के बीच वेग, क्रिया-सामर्थ्य से सम्पन्न (सप्तिम् अग्निम्) सातों प्राणों के स्वामी, ज्ञानवान्, तेजस्वी पुरुष को (हिन्वन्तु) उद्योग से युक्त करें, उसको प्रेरित करें। (तेन) उससे (धनं-धनं जेष्म) प्रत्येक धन का विजय करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः केतुराग्नेयः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ५ गायत्री। २, ४ निचृद् गायत्री॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्ते राजानं सेना प्रजाजनाः स्वस्वकर्मभिः शत्रुभिः सह योद्धुं प्रेरयन्तु राजापि शत्रुभूभागान् धनं च विजित्य सेनायै रक्षार्थं समर्पयेत् राष्ट्रहितप्रवक्त्रे भोज्यादिकं समर्पयेत्।

    पदार्थः

    (नः धियः) अस्माकं कर्माणि “धीः-कर्मनाम” [निघ० २।१]  (आजिषु सप्तिम्-आशुम्-इव-अग्निम्) संग्रामेषु सर्पणशील-मश्वमिव खल्वग्निमग्रणेतारं राजानम् (हिन्वन्तु) प्रेरयन्तु (तेन धनं धनं जेष्म) तेन प्रत्येकं धनं धनमात्रं जयेम ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let our thought, will and actions research and develop fire energy like a fleet or horse spurred to battle for victory so that thereby we may achieve the real wealth of wealths.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सैनिक व प्रजा यांनी संग्रामात अशा प्रकारे आपल्या कर्माद्वारे प्रेरित करावे - साहस दाखवावे, की त्याने शत्रूच्या धनावर अधिकार करावा. ॥१॥

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