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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 156 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 156/ मन्त्र 4
    ऋषिः - केतुराग्नेयः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॒ नक्ष॑त्रम॒जर॒मा सूर्यं॑ रोहयो दि॒वि । दध॒ज्ज्योति॒र्जने॑भ्यः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । नक्ष॑त्रम् । अ॒जर॑म् । आ । सूर्य॑म् । रो॒ह॒यः॒ । दि॒वि । दध॑त् । ज्योतिः॑ । जने॑भ्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने नक्षत्रमजरमा सूर्यं रोहयो दिवि । दधज्ज्योतिर्जनेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । नक्षत्रम् । अजरम् । आ । सूर्यम् । रोहयः । दिवि । दधत् । ज्योतिः । जनेभ्यः ॥ १०.१५६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 156; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणेतः ! राजन् (जनेभ्यः) प्रजाजनों के लिए (ज्योतिः) जीवनज्योति को (दधत्) धारण करने के हेतु (अजरं नक्षत्रम्) जरारहित अविनाशी अपनी आत्मा को (सूर्यं दिवि रोहय) आकाश में सूर्य की भाँति ऊपर ले जा-उन्नत कर ॥४॥

    भावार्थ

    राजा को चाहिए कि प्रजाजनों में जीवनज्योति भरने के लिए अपने आत्मा को आकाश व सूर्य के समान ऊँचा उठावे-अपने को उन्नत करे ॥४॥

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    विषय

    अजर नक्षत्र

    पदार्थ

    [१] (अग्ने) = हे परमात्मन्! आप (जनेभ्यः) = लोगों के लिये (ज्योतिः दधत्) = प्रकाश को प्राप्त करने के हेतु से (दिवि) = द्युलोक में (सूर्यम्) = सूर्य को (आरोहयः) = आरूढ़ करते हैं, जो सूर्य (अजरं नक्षत्रम्) = न जीर्ण होनेवाला नक्षत्र है । [२] 'सूर्य कभी जीर्ण होकर समाप्त हो जाएगा' ऐसी बात नहीं है। प्रभु का प्रत्येक रचना चाक्रिक क्रम से गति करती हुई सदा पूर्ण बनी रहती है। नदियों का जल बहता चला जा रहा है। समुद्र में पहुँचकर यह वाष्पीभूत होकर, मेघ बनकर फिर पर्वत- शिखरों पर वृष्टि के रूप में बरसता है। और फिर वहाँ से प्रवाहित होकर नदियों को सदा परिपूर्ण किये रहता है। इसी प्रकार सूर्य के प्रकाश की बात है। सूर्य कभी समाप्त न हो जाएगा। 'नक्षत्र' शब्द इसी भावना को व्यक्त कर रहा है, 'नभीयते त्रायते' अक्षीण होता हुआ यह सदा रक्षण कार्य में लगा रहता है। इस अजर नक्षत्र के द्वारा प्रभु हम सब में प्राणशक्ति का संचार करते हैं और प्रकाश को प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ने सूर्य की स्थापना के द्वारा हमारे जीवन को ज्योतिर्मय बनाने की व्यवस्था की है।

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    विषय

    परमेश्वर का सूर्य-स्थापन रूप अद्भुत कार्य।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) प्रकाशक ! (दिवि) महान् आकाश में प्रकाश के निमित्त (अजरम्) जीर्ण होने वाले (नक्षत्रम् सूर्यम्) नक्षत्र के तुल्य अपने स्थान से च्युत न होने वाले सूर्य को (आरोहयः) स्थापित करता और चढ़ाता, उदित करता है, जो (जनेभ्यः ज्योतिः दधत्) मनुष्यों को निरन्तर प्रकाश देता है। (२) इसी प्रकार भूमि पर राजा भी उत्तम विद्वानों को स्थिर रूप से नियत करे कि लोगों को ज्ञान-प्रकाश मिले।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः केतुराग्नेयः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ५ गायत्री। २, ४ निचृद् गायत्री॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्रणेतः ! राजन् ! (जनेभ्यः-ज्योतिः-दधत्) प्रजाजनेभ्यो जीवनज्योतिर्धारयन्-धारयितुम् (अजरं नक्षत्रम्) जरारहितमविनाशिनम् “नक्षत्रः यो न क्षीयते सः” [ऋ० ६।६७।६ दयानन्दः] स्वात्मानम् (सूर्यं दिवि रोहय) आकाशे सूर्यमिवोपरि नय-उन्नय ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light of life, ruler of existence, let the unaging sun, star of good fortune, rise high in heaven so that it may bring light and energy for humanity and enhance their well being.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने प्रजेत जीवनज्योती पेटविण्यासाठी आपल्या आत्म्याला आकाश व सूर्याप्रमाणे उंच करावे - आपल्याला उन्नत करावे. ॥४॥

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