ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 156/ मन्त्र 5
अग्ने॑ के॒तुर्वि॒शाम॑सि॒ प्रेष्ठ॒: श्रेष्ठ॑ उपस्थ॒सत् । बोधा॑ स्तो॒त्रे वयो॒ दध॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । के॒तुः । वि॒शाम् । अ॒सि॒ । प्रेष्ठः॑ । श्रेष्ठः॑ । उ॒प॒स्थ॒ऽसत् । बोध॑ । स्तो॒त्रे । वयः॑ । दध॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने केतुर्विशामसि प्रेष्ठ: श्रेष्ठ उपस्थसत् । बोधा स्तोत्रे वयो दधत् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । केतुः । विशाम् । असि । प्रेष्ठः । श्रेष्ठः । उपस्थऽसत् । बोध । स्तोत्रे । वयः । दधत् ॥ १०.१५६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 156; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्रणायक राजन् ! (उपस्थसत्) अपने राज-पद पर स्थित हुआ (विशां प्रेष्ठः-श्रेष्ठः) प्रजाओं का अत्यन्त प्रिय और अत्यन्त प्रशंसनीय तू (केतुः-असि) चेतना देनेवाला है (स्तोत्रे) स्तुति करते हुए राज्यशासन के प्रवक्ता के लिए (वयः) अन्नादि को (दधत्) नियमितरूप से धारण करता हुआ (बोधय) बोध को प्राप्त कर ॥५॥
भावार्थ
राजा जब राजपद पर विराजमान हो जावे, तो अपने को प्रजाओं के बीच में या प्रजाओं का अत्यन्त प्रिय तथा अत्यन्त प्रशंसनीय चेतानेवाला बने तथा राष्ट्र के सम्बन्ध में राज्यशासन की जो अच्छी बात कहे, उससे बोध प्राप्त करे उसकी आजीविका का प्रबन्ध करे ॥५॥
विषय
प्रेष्ठ-श्रेष्ठ
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! आप (विशाम्) = सब प्रजाओं के (केतुः) = प्रज्ञान को देनेवाले (असि) = हैं आप ही ज्ञान को प्राप्त करानेवाले हैं। (प्रेष्ठः) = प्रियतम हैं। (श्रेष्ठः) = प्रशस्यतम हैं । (उपस्थसत्) = सबके समीप विद्यमान हैं। [२] (बोधा) = आप ही सबको जानते हैं। सबके रक्षण का आप ही ध्यान करते हैं। (स्तोत्रे) = स्तुतिकर्ता के लिये (वयः) = उत्कृष्ट जीवन को दधत् धारण करते हैं। स्तोता का जीवन, आपके गुणों के धारण से सुन्दर बनता है। |
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही प्रियतम हैं, प्रशस्यतम हैं। वे ही हमें उत्कृष्ट जीवन प्राप्त कराते हैं । सूक्त का विषय ही है कि प्रभु का अवलम्बन करके हम सब धनों को प्राप्त करते हैं । सब शत्रुओं को पराजित करके उत्कृष्ट जीवनवाले बनते हैं । यह शरीरस्थ तीनों भुवनों को, 'पृथिवीरूप शरीर, अन्तरिक्षरूप हृदय तथा द्युलोकरूप मस्तिष्क' को वशीभूत करने से 'भुवन' कहलाता है [भुवनानि अस्य सन्ति इति] यही प्रभु को प्राप्त करनेवालों में उत्तम होने से 'आप्त्य' है। प्रभु प्राप्ति की साधनावाले होने से 'साधन: ' है तथा लोकहित में प्रवृत्त होने से 'भौवना' कहलाता है। यह यही आराधना करता है कि-
विषय
प्रकाशक प्रभु का सर्वोच्च पद।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानमय ! प्रकाशस्वरूप ! तू (उपस्थ-सत्) सदा समीप रहने वाला, (प्रेष्ठः) अति प्रिय, (श्रेष्ठः) सर्वश्रेष्ठ, प्रशंसनीय, (विशां केतुः असि) प्रजाओं को ज्ञान देने वाला, सर्वोच्च ध्वजा के तुल्य मान्य है। तू (स्तोत्रे बोध) स्तुतिकर्ता को ज्ञान प्रदान कर और (वयः दधत्) बल, आयु, ज्ञान, तेज प्रदान कर। इति चतुर्दशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः केतुराग्नेयः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ५ गायत्री। २, ४ निचृद् गायत्री॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे अग्रणायक राजन् ! (उपस्थसत्) स्वराजपदे स्थितः सन् (विशां प्रेष्ठः श्रेष्ठः-केतुः-असि) प्रजाजनानां प्रियतमः श्रेष्ठश्च केतयिता-चेतयिताऽसि (स्तोत्रे वयः-दधत्-बोध) स्तुतिं कुर्वते राज्यशासनप्रवक्त्रे वाऽन्नादिकं निर्धारयन् बोधं प्रापय ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, light and fire of life, you are the essential brilliant definition and identity of humanity, blazing ensign of human culture, dearest, best, closest, freest, bearing food, energy and enlightenment for the celebrant. Pray listen, enlighten, and bless.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा जेव्हा राजपदावर विराजमान होतो तेव्हा आपल्याला प्रजेमध्ये किंवा प्रजेला अत्यंत प्रिय व अत्यंत प्रशंसनीय जागृती करविणारा असावा. जो राष्ट्रासंबंधी राज्यशासनाबाबत चांगले सांगेल त्यापासून बोध घ्यावा व त्याच्या आजीविकेचा प्रबंध करावा. ॥५॥
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