ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 156/ मन्त्र 3
आग्ने॑ स्थू॒रं र॒यिं भ॑र पृ॒थुं गोम॑न्तम॒श्विन॑म् । अ॒ङ्धि खं व॒र्तया॑ प॒णिम् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । अ॒ग्ने॒ । स्थू॒रम् । र॒यिम् । भ॒र॒ । पृ॒थुम् । गोऽम॑न्तम् । अ॒श्विन॑म् । अ॒ङ्धि । खम् । व॒र्तय॑ । प॒णिम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आग्ने स्थूरं रयिं भर पृथुं गोमन्तमश्विनम् । अङ्धि खं वर्तया पणिम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । अग्ने । स्थूरम् । रयिम् । भर । पृथुम् । गोऽमन्तम् । अश्विनम् । अङ्धि । खम् । वर्तय । पणिम् ॥ १०.१५६.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 156; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अग्ने) हे अग्रणेतः ! राजन् ! (स्थूरम्) महान् (रयिम्) पोषण पदार्थ (पृथुम्) यज्ञ के विस्तारक (गोमन्तम्) गोयुक्त (अश्विनम्) अश्वयुक्त को (आ भर) भलीभाँति प्राप्त करा (खम्) रिक्त स्थान को (अङ्धि) पूरा कर (पणिं वर्तय) व्यवहार को चला ॥३॥
भावार्थ
राजा को चाहिए कि महान् पोषण पदार्थ यशोवर्धक-यश का विस्तारक गौवोंवाले घोड़ेवाले धन से राष्ट्र को भरपूर करे, जहाँ-जहाँ इसकी कमी हो, उसे सर्वप्रथम पूर्ण करे तथा राष्ट्र में उसका व्यापार करे ॥३॥
विषय
कितना धन ?
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (रयिं आभर) = हमें ऐश्वर्य से परिपूर्ण करिये। जो ऐश्वर्य (स्थूरम्) = [स्थूलं] प्रवृद्ध [बढ़ा हुआ] है, (पृथुम्) = विस्तृत है, (गोमन्तम्) = उत्तम गौवोंवाला है तथा (अश्विनम्) = प्रशस्त अश्वोंवाला है। गौवें दूध से बुद्धि की सात्त्विकता के द्वारा ज्ञानवृद्धि का कारण होती हैं, घोड़े शक्ति की वृद्धि का । इतना धन प्रभु हमें दें कि हम उत्तम गौवों व अश्वोंवाले बन पायें। [२] (खं अधि) = आप हमारी इन्द्रियों को कान्तिवाला व गतिवाला करिये। नमक तेल ईंधन की परेशानी के न होने पर वे सब इन्द्रियाँ अपना कार्य ठीक प्रकार से करनेवाली हों तथा चमकनेवाली हों, सशक्त बनी रहें। इस धन के द्वारा आप पणिम् = हमारे सब व्यवहार को वर्तया ठीक से प्रवृत्त कराइये, अर्थात् इतना धन दीजिये कि हमारे सब व्यवहार ठीक प्रकार चलते जायें।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें इतना धन दें जिससे कि हम उत्तम गौवों व घोड़ोंवाले होते हुए सब इन्द्रियों को दीप्त व सशक्त बना सकें और हमारे सब व्यवहार ठीक प्रकार से सिद्ध हों ।
विषय
नायक के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में गुरु के कर्त्तव्य और आत्मा का वर्णन।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्रणी, हे ज्ञान के प्रकाशक ! आत्मन् ! तू (स्थूरम्) स्थूल, (पृथुम्) विस्तृत, (गोमन्तम्) इन्द्रियों से युक्त (रयिम् आ भर) मूर्तिमान् देव को सब प्रकार से ऐश्वर्य के तुल्य पुष्ट कर। (खं अङ्धि) इन्द्रियगण वा हृदयाकाश को प्रकाशित कर और (पणिम् वर्त्तय) समस्त व्यवहार को सञ्चालित कर। इसी प्रकार विद्वान् नेता पुरुष बहुत विपुल धन को प्राप्त करें, अन्तःकरण वा गृह को उज्ज्वल रखें और व्यवहार करें, वा बाधक कारण को दूर करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः केतुराग्नेयः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ५ गायत्री। २, ४ निचृद् गायत्री॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अग्ने) हे अग्रणेतः ! राजन् ! (स्थूरं पृथुं रयिम्) महान्तम् “स्थूरः समाश्रितमात्रो-महान् भवति” [निरु० ६।२२] पोषणपदार्थं यशोविस्तारकम् (गोमन्तम्-अश्विनम्) गोयुक्तमश्वयुक्तञ्च (आभर) पूरय प्रापय (खम्-अङ्धि) रिक्तमवकाशं व्यञ्जय-पूरय “छिद्रं खमित्युक्तम्” [गो० ३।२।५] (पणिं वर्तय) व्यवहारं प्रवर्तय-चालय “पणयो व्यवहाराः” [यजु० २।१७ दयानन्दः] ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O light and fire of life, bring us solid, vast and lasting wealth rich in lands, cows and culture, horses, transport and achievement, fill the firmament with profuse rain and vapour, and turn poverty and indigence into plenty and generosity.
मराठी (1)
भावार्थ
राजाने महान पोषण पदार्थ यशोवर्धक गोयुक्त व अश्वयुक्त धनाने राष्ट्राला भरपूर करावे. जेथे जेथे याची कमतरता असेल ती प्रथम पूर्ण करावी व राष्ट्रात त्यांचा व्यापार करावा. ॥३॥
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