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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 17
    ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पीवा॑नं मे॒षम॑पचन्त वी॒रा न्यु॑प्ता अ॒क्षा अनु॑ दी॒व आ॑सन् । द्वा धनुं॑ बृह॒तीम॒प्स्व१॒॑न्तः प॒वित्र॑वन्ता चरतः पु॒नन्ता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पीवा॑नम् । मे॒षम् । अ॒प॒च॒न्त॒ । वी॒राः । निऽउ॑प्ताः । अ॒क्षाः । अनु॑ । दी॒वे । आ॒स॒न् । द्वा । धनु॑म् । बृ॒ह॒तीम् । अ॒प्ऽसु । अ॒न्तरिति॑ । प॒वित्र॑ऽवन्ता । च॒र॒तः॒ । पु॒नन्ता॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पीवानं मेषमपचन्त वीरा न्युप्ता अक्षा अनु दीव आसन् । द्वा धनुं बृहतीमप्स्व१न्तः पवित्रवन्ता चरतः पुनन्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पीवानम् । मेषम् । अपचन्त । वीराः । निऽउप्ताः । अक्षाः । अनु । दीवे । आसन् । द्वा । धनुम् । बृहतीम् । अप्ऽसु । अन्तरिति । पवित्रऽवन्ता । चरतः । पुनन्ता ॥ १०.२७.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 17
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वीराः) दशप्राण (अक्षाः-अनु) इन्द्रियों के सहित (दिवं न्युप्ताः-आसन्) रमणस्थान शरीर में रखे गये हैं। (मेषं पीवानम्-अपचन्त) आत्मा को पूर्णाङ्गवाला करते हैं। (द्वा) दोनों प्राण और अपान (बृहतीं धनुम्) महान् देह को (अप्सु-अन्तः) देह जलों में (पुनन्ता पवित्रवन्ता चरतः) पवित्र करते हुए पवित्ररूप विचरते हैं ॥१७॥

    भावार्थ

    आत्मा जब शरीर में आता है, तब प्रथम दशों प्राण प्राप्त होते हैं। उसके पीछे इन्द्रियों का विकास होता है और शरीर सर्वाङ्गों से पूर्ण हो जाता है। अन्दर के रसों को पवित्र करते हुए स्वयं पवित्र स्वरूप प्राण-अपान, श्वास-प्रश्वास चलते हैं ॥१७॥

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    विषय

    पीवान् मेष का पचन

    पदार्थ

    [१] १५ वें मन्त्र में वर्णित (वीरा) = सात प्राण मनुष्य को (पीवानम्) = [ stout and strong] अत्यन्त सुदृढ़ शरीरवाला तथा (मेषम्) = [मिष्] औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला (अपचन्त) = बनाते हैं । प्राण इसके जीवन का परिपाक इस रूप में करते हैं कि यह सशक्त शरीरवाला बनता है और अपनी शक्ति के द्वारा औरों के कष्टों का निवारण करके उनपर सुखों की वर्षा करता है । [२] (न्युप्ता:) = [ निक्षिप्ताः ] विषयों से व्यावृत्त होकर मन में ही क्षिप्त हुई हुई अतएव (अक्षा:) = स्थिर इन्द्रियाँ (दीवे) = द्योतन व प्रकाशन की क्रिया में (अनु आसन्) = अनुकूल होती हैं। जब तक इन्द्रियाँ विषयों में फँसी होती हैं तब तक अन्त: प्रकाश का सम्भव ही नहीं होता । विषयों से ये आवृत्त हुई और अन्दर स्थिर हुई और अन्त: प्रकाश चमक उठा। स्थिर इन्द्रियोंवाला पुरुष ही प्रभु के प्रकाश को देखता है। [३] (द्वा) = मस्तिष्क व हृदय ये दोनों मिलकर 'मूर्धानमस्य संसीव्य अथर्वा हृदयं च यत्', (अप्सु अन्तः) = सदा कर्मों में रहते हुए (पवित्रवन्ता) = मानस पवित्रतावाले तथा (पुनन्ता) = शरीर को रोगों से रहित व शुद्ध करते हुए (बृहतीं धनुम्) = वृद्धि के कारणभूत धनुष को (चरतः) = बनाते हैं। इस धनुष का एक सिरा मस्तिष्क है और दूसरा सिरा हृदय । धनुष् की इन दोनों कोटियों को परस्पर गुणित कर देने पर ही यह धनुष पूर्ण होता है और कार्य को करने में समर्थ होता है । विद्या व श्रद्धा रूप कोटियोंवाले इस धनुष से चलाया हुआ कर्मरूप तीर अत्यन्त शक्तिशाली होता है। ये कर्म मनुष्य की वृद्धि के कारण बनते हैं । धनुष शोभा के लिये ही नहीं है यह कर्मरूप तीर को चलाने के लिये हैं। ज्ञान व श्रद्धा को प्राप्त करके हमें कर्मशील बनना है। अकर्मण्यता से शरीर व मन के मैलों के फिर से आ जाने का खतरा है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना शरीर शक्ति सम्पन्न व परहित-साधक बनाती है। स्थिर हुई हुई इन्द्रियाँ अन्तः प्रकाश की अनुकूलता का कारण होती हैं। श्रद्धा व विद्या मिलकर उस धनुष को बनाते हैं जो हमारी वृद्धि का कारण बनता है।

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    विषय

    आत्मा, दशों प्राण, और उनमें दो मुख्य प्राण, अपान, और देह में रुधिर आदि की व्यवस्था।

    भावार्थ

    वे (वीराः) दशों प्राण (पीवानं) स्थूल, सब के पोषक, वृद्धिशील (मेषं) आनन्द के प्रदाता आत्मा को (अपचन्त) परिपक्व करते हैं, और वे ही (नि-उप्ताः अक्षाः) देह में विशेष रूप से निक्षिप्त वा अंकुरित इन्द्रियगण (अनु) उस आत्मा के इच्छानुसार (दीवे) उसके रमण, क्रीड़ा आदि सुख के लिये (आसन्) होते हैं। और (अप्सु अन्नः) प्राणों या रुधिर-धाराओं के बीच में व्यापक होकर (द्वा) दो मुख्य प्राण, अपान (पवित्रवन्ता) पवित्र शरीर को शोधन करने वाले बल से युक्त होकर (पुनन्ता) शरीर को निरन्तर पवित्र करते हुए (अन्तः चरन्ति) शरीर के कण २ में विचरते हैं। प्राण और अपान की सूक्ष्म गति शरीर के कण २ में है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वीराः) दश प्राणाः “प्राणा वै दश वीराः” [श० १२।१।८।२२] (अक्षाः अनु) इन्द्रियाणि अनु “अक्षा इन्द्रियाणि” [मै० ४।५।९] (दिवे न्युप्ताः आसन्) रमणस्थाने शरीरे क्षिप्ताः अन्तर्हिताः सन्ति (मेषं पीवानम्-अपचन्त) इन्द्रमात्मानम् “इन्द्रस्य मेषस्य” [काठ० १२।२१] पुष्टं पूर्णशरीरवन्तं कुर्वन्ति (द्वा) द्वौ प्राणापानौ (बृहतीं धनुम्) महतीं तनुम् (अप्सु अन्तः) देहजलेषु (पुनन्ता पवित्रवन्ता चरतः) पवित्रयन्तौ पवित्रभूतौ चरतः ॥१७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Ten pranas together with the senses, positioned in the holy body for nature’s purpose, mature the living body of the soul. Two of these pranas, i.e., prana and apana, active in the vital waters with warm energy, mature, purify and perfect the growing body for the soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आत्मा जेव्हा शरीरात प्रवेश करतो तेव्हा प्रथम दहा प्राण प्राप्त होतात. त्यानंतर इंद्रियांचा विकास होतो व शरीर सर्वांगाने पूर्ण होते. आतून रसांना पवित्र करत स्वत: पवित्र स्वरूप प्राण-अपान-श्वास-प्रश्वास चालतात. ॥१७॥

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