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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒तौ मे॒ गावौ॑ प्रम॒रस्य॑ यु॒क्तौ मो षु प्र से॑धी॒र्मुहु॒रिन्म॑मन्धि । आप॑श्चिदस्य॒ वि न॑श॒न्त्यर्थं॒ सूर॑श्च म॒र्क उप॑रो बभू॒वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तौ । मे॒ । गावौ॑ । प्र॒ऽम॒रस्य॑ । यु॒क्तौ । मो इति॑ । सु । प्र । से॒धीः॒ । मुहुः॑ । इत् । म॒म॒न्धि॒ । आपः॑ । चि॒त् । अ॒स्य॒ । वि । न॒श॒न्ति॒ । अर्थ॑म् । सूरः॑ । च॒ । म॒र्कः । उप॑रः । ब॒भू॒वान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतौ मे गावौ प्रमरस्य युक्तौ मो षु प्र सेधीर्मुहुरिन्ममन्धि । आपश्चिदस्य वि नशन्त्यर्थं सूरश्च मर्क उपरो बभूवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतौ । मे । गावौ । प्रऽमरस्य । युक्तौ । मो इति । सु । प्र । सेधीः । मुहुः । इत् । ममन्धि । आपः । चित् । अस्य । वि । नशन्ति । अर्थम् । सूरः । च । मर्कः । उपरः । बभूवान् ॥ १०.२७.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 20
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मे प्रमरस्य) मेरे मरणशील जीर्ण धर्मवाले शरीर के (एतौ गावौ युक्तौ) ये गतिशील शरीर में युक्त हुए प्राण-अपानों को (मा-उ-सु) न ही (मुहुः प्रसेधीः) हे परमात्मन् ! बार बार देह से पृथक् कर (ममन्धि) तथा मेरे प्रार्थनावचन को मान स्वीकार कर (अस्य) इस मुझ प्रार्थना करते हुए के (आपः-चित्) कामनाएँ इच्छाएँ भी (अर्थं वि नशन्ति) प्रार्थनीय मोक्ष के प्रति जा रही हैं। (मर्कः सूरः-च) शोधक सूर्य की भाँति मुख्य प्राण भी (उपरः-बभूवान्) मेघ के समान जीवनरस का सींचनेवाला हो ॥२०॥

    भावार्थ

    मरणधर्मशील प्राण-अपान गति करते हैं। बारम्बार शरीर पृथक् होते रहते हैं। पुनः-पुनः जन्मधारण करने के निमित्त बनते हैं। उपासक की आन्तरिक भावनाएँ पुनः-पुनः शरीरधारण करने से बचकर मोक्ष को चाहती हैं ॥२०॥

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    विषय

    समुद्र जल-सूर्य व मेघ में प्रभु-दर्शन

    पदार्थ

    [१] (एतौ) = ये (मे) = मेरी (गावौ) = [ गावः इन्द्रियाणि] ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप दो गौवों (प्रमरस्य) = शत्रुओं को प्रकर्षेण नष्ट करनेवाले उस प्रभु से (युक्तौ) = शरीर शकट के अन्दर जोती गयी हैं । प्रभु ने मेरे इस शरीर - शकट को सुचारुरूपेण चलाने के लिये इसमें ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप दो बैल [= गावौ ] जोते हैं। प्रभु ने ये इन्द्रियाँ दी हैं जिससे हम जीवन-यात्रा में आगे और आगे चल सकें। [२] (मा उसु प्रसेधी:) = हे प्रभो ! आप इनको मेरे इस रथ से [मा अपगमय] अलग न करिये। ये इसमें ठीक से जुती ही रहें। इनका कार्य ठीक प्रकार से चलता रहे। इन इन्द्रियों [ख] के ठीक [सु] होने को ही तो 'सुख' कहते हैं, इनका विकृत [दुः] होना ही दुःख है। इस प्रकार इन्हें मेरे से अपगत न करके मुहुः और अधिक उन्ममन्धि-उत्कृष्ट हर्ष से युक्त करिये। [३] (अस्य) = इस स्तोता को (आपः चित्) = ये समुद्र के विस्तृत जल भी (अर्थम्) = उस गन्तव्य प्रभु को (विनशन्ति) = [attain, To reach] प्राप्त कराते हैं, अर्थात् इन समुद्र के विस्तृत जलों में उसे प्रभु की महिमा दिखती है। (च) = और (मर्क:) = शोधीयता अपने संतापयुक्त किरणों के द्वारा सब मलों को दग्ध करके शोधन का करनेवाला (सूर:) सूर्य भी प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है। सूर्य में भी उसे प्रभु की महिमा दिखती है। यह (बभूवान्) = सब प्रकार के अन्नादि की उत्पत्ति का कारणभूत (उपर:) = मेघ भी उस प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारी इन्द्रियाँ ठीक से कार्य करती रहें और हम समुद्र जलों में, सूर्य में तथा मेघों में प्रभु की विभूति को देखनेवाले हों ।

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    विषय

    उसका जीवों की सृष्टि बनाना। सूक्ष्म शरीरादि से जीवसर्ग की व्यवस्था।

    भावार्थ

    हे प्रभो ! परमेश्वर ! (मे प्रमरस्य) प्राणों को त्याग कर मृत्यु को प्राप्त होने वाले मेरे (एतौ) ये दोनों (गावौ) प्राण और अपान दोनों, रथ में लगे दो बैलों या घोड़ों के समान (युक्तौ) देह में जुड़े हैं, उन दोनों को (मो सु प्रसेधीः) तू कभी दूर न कर। प्रत्युत (मुहुः इत्) बार २ (ममन्धि) जोड़ कर। (अस्य) इस जीवगण के (आपः) प्राणमय, सूक्ष्म शरीर (चित्) ही (अस्य अर्थं विनशन्ति) इसको प्राप्य लोक तक पहुंचाते हैं। और वह प्रभु (सूरः च) सूर्य के समान और (मर्कः) समस्त जगत् को शोधन करने वाला (उपरः) मेघ के समान सब पदार्थ देने वाला (बभूवान्) होता है। इत्यष्टादशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    ममन्धि-मन स्तम्भे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मे प्रमरस्य) मम मदीयस्य प्रकृष्टं मरणशीलस्य जीर्णधर्मणः शरीरस्य (एतौ गावौ युक्तौ) इमौ गतिमन्तौ शरीरे युक्तौ प्राणापानौ ( मा उ सु) नैव (मुहुः प्रसेधीः) हे परमात्मन् ! पुनः पुनर्देहात् पृथक् कुरु (ममन्धि) इत्थं मे प्रार्थनावचनं मन्यस्व (अस्य) मम प्रार्थयमानस्य (आपः-चित्) कामाः खल्वपि “आपो वै सर्वे कामाः” [श० १०।५।४।१५] (अर्थं विनशन्ति) अर्थनीयं प्रार्थनीयं मोक्षं प्रति व्याप्नुवन्ति विशेषेण गच्छन्ति (मर्कः सूरः च) शोधकः सूर्य इव मुख्यप्राणश्च (उपरः-बभूवान्) मेघ इव “उपराः मेघनाम” [निघ० १।१०] जीवनरससेचको भवतु ॥२०॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Lord of life, pray do not deprive me, the mortal man, of these two vital energies of prana and apana joined to my existence, pray keep them integrated with me, active and pleasing. The subtle body and the pranic energies help us reach our divine goal, and may the sun and pranic energies, like the cloud, shower me here below with light and joy.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मरणधर्मशील प्राण अपाण गती करतात. वारंवार शरीरे पृथक होतात. पुन्हा पुन्हा जन्म धारण करण्याचे निमित्त बनतात. उपासकाच्या आंतरिक भावना पुन्हा पुन्हा शरीर धारण करण्यापासून बचाव करू इच्छितात. ॥२०॥

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