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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 22
    ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वृ॒क्षेवृ॑क्षे॒ निय॑ता मीमय॒द्गौस्ततो॒ वय॒: प्र प॑तान्पूरु॒षाद॑: । अथे॒दं विश्वं॒ भुव॑नं भयात॒ इन्द्रा॑य सु॒न्वदृष॑ये च॒ शिक्ष॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ॒क्षेऽवृ॑क्षे । निऽय॑ता । मी॒म॒य॒त् । गौः । ततः॑ । वयः॑ । प्र । प॒ता॒न् । पु॒रु॒ष॒ऽअदः॑ । अथ॑ । इ॒दम् । विश्व॑म् । भुव॑नम् । भ॒या॒ते॒ । इन्द्रा॑य । सु॒न्वत् । ऋष॑ये । च॒ । शिक्ष॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृक्षेवृक्षे नियता मीमयद्गौस्ततो वय: प्र पतान्पूरुषाद: । अथेदं विश्वं भुवनं भयात इन्द्राय सुन्वदृषये च शिक्षत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृक्षेऽवृक्षे । निऽयता । मीमयत् । गौः । ततः । वयः । प्र । पतान् । पुरुषऽअदः । अथ । इदम् । विश्वम् । भुवनम् । भयाते । इन्द्राय । सुन्वत् । ऋषये । च । शिक्षत् ॥ १०.२७.२२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 22
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वृक्षे वृक्षे) वृक्षविकार धनुष् धनुष् में-प्रत्येक धनुष् में (गौः) गो सम्बन्धी-स्नायुवाली ज्या-धनुष् की डोरी (नियता) नियुक्त हुई (मीमयत्) शब्द करती है (ततः) पुनः (पुरुषादः-वयः-प्रपतान्) मनुष्यों को खानेवाले हिंसित करनेवाले बाण प्रबलरूप से गिरते हैं। यह एक प्रकार का अर्थ निरुक्त में दिये यास्काचार्य के अनुसार अधिभौतिक दृष्टि से है। आध्यात्मिक दृष्टि से−(वृक्षे वृक्षे) व्रश्चनशील छिन्न-भिन्न होनेवाले या नश्वर शरीरमात्र में (गौः) गमनशील सब को प्राप्त होनेवाला मृत्यु (नियता) नियुक्त हुआ (मीमयत्) घोषित करता है कि मैं मारूँगा (ततः) पुनः (पुरुषादः-वयः-प्रपतान्) मनुष्यों को हिंसित करनेवाले आघात रोग आदि बाणरूप प्रहार करते हैं (अथ-इदं विश्वं भुवनं भयाते) पुनः यह प्राणिमात्र भय करता है (इन्द्राय-ऋषये-सुन्वत्-च शिक्षत्) ऐश्वर्यवान् सर्वद्रष्टा परमात्मा के लिये उपासनारस को समर्पित करता है ॥२२॥

    भावार्थ

    प्रत्येक प्राणिशरीर नश्वर है, उसके लिये मृत्यु नियत है। नाना प्रकार के आघातों और रोगों से मृत्यु का ग्रास बन जाता है। यह देख उपासक अमृतरूप परमात्मा की उपासना करता है ॥२२॥

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    विषय

    वृक्ष में बद्ध गौ

    पदार्थ

    [१] (वृक्षे वृक्षे) = प्रत्येक शरीररूप वृक्ष में हृदयस्थ प्रभु से (गौ:) = वेदवाणी (नियता) = बद्ध की गई है और वह (मीमयत्) = वेदवाणी रूप गौ शब्द करती है। यह ठीक है कि इस शब्द को सब कोई सुनता नहीं है । [२] (ततः) = इन वेदवाणी के शब्दों से (पूरुषादः)[पुरुषात् अदन्ति =ब्रह्म चरन्ति] = उस प्रत्येक शरीर में वास करनेवाले प्रभु से ज्ञान प्राप्त करनेवाले (वयः) - [वय् गतौ way] = मार्ग पर चलनेवाले प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष (प्रपतान्) = प्रकृष्ट मार्ग से जाते हैं, उन्नतिपथ पर आगे बढ़ते हैं । [३] (अथ) = अब (इदम्) = यह (विश्वम्) = सब (भुवनम्) = लोक भयाते उस प्रभु से भय करता है। उसके भय से ही 'अग्नि तपती है, सूर्य चमकता है, मेघ, वायु व मृत्यु भी उस प्रभु के शासन में ही अपने-अपने कार्य को करते हैं' । [४] (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिये (सुन्वत्) = अपने शरीर में सात्त्विक आहार से सोम [= वीर्य] का अभिषव करता है। इस सोम के शरीर में पान करने से ही वह उस सोम 'परमात्मा' को पानेवाला बनता है (च) = और (ऋषये) = उस प्रभु के दर्शन के लिये, ऋषि बनने के लिये (शिक्षत्) = विद्या का उपादान करता है। यह विद्या ही तो उसे ब्रह्म का साक्षात्कार करानेवाली होती है 'परा (विद्या) यया तदक्षरमधिगम्यते' । प्रभु दर्शन इस प्रकार ऋषियों की तीव्र बुद्धि से ही हो सकता है 'दृश्यते त्वग्र्या बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः'।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदयस्थ प्रभु से उच्चारित वेदवाणी को सुनें । प्रभु के भय से सदा उत्कृष्ट मार्ग पर चलें। उस प्रभु के दर्शन के लिये सोम का रक्षण करें और शिक्षा का उपादान करते हुए ऋषि बनें।

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    विषय

    जीव को प्रभु का व्यापक भय।

    भावार्थ

    (वृक्षे वृक्षे) मानो धनुष २ में (नियता) बंधी (गौः मीमयत्) बाण फेंकने वाली डोर झनकारती है और (ततः) उससे (पुरुषादः वयः प्रपतान्) देह-पुर में बसे जीवों को खाने वाले तीर निकल रहे हैं। (अथ इदं विश्वम् भुवनं) इसी से यह समस्त उत्पन्न जगत् (भयाते) भय अनुभव करता है और (इन्द्राय सुन्वत्) उस परमैश्वर्यवान् प्रभु की पूजा करता और उसी (ऋषये च) सर्वद्रष्टा के लिये (शिक्षत्) सर्वस्व दान देता है। भगवान् का ऐसा भय है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वृक्षे वृक्षे) वृक्षविकारे धनुषि धनुषि (गौः) गोसम्बन्धिनी स्नायुमती ज्या (नियता) नियुक्ता सती (मीमयत्) शब्दं करोति (ततः) पुनः (पुरुषादः-वयः प्रपतान्) जनानामत्तारो बाणाः प्रपतन्ति “इति निरुक्तम्” इत्थं च वृक्षे वृक्षे व्रश्चनशीले “वृक्षो व्रश्चनात्” [निरु० २।६] नश्वरशरीरे शरीरमात्रे गौर्गमनशीलः सर्वान् प्रति प्रापणशीलो मृत्युः शब्दं करोति मारयामीति घोषयति तस्य बाणा रोगादयः-मनुष्यादीनामत्तारः प्रपतन्ति “अदन्तीति वै गा आहुः अश्नन्तीति मनुष्यान्” [मै० ३।६।६] (अथ-इदं विश्वं भुवनं भयाते) अनन्तरमिदं समस्तं भूतजातं-जीवमात्रं बिभेति (इन्द्राय-ऋषये-सुन्वत्-च शिक्षत्) ऐश्वर्यवते सर्वद्रष्ट्रे परमात्मने खलूपासनारसं सम्पादयति दानमात्मदानमात्मसमर्पणं च करोति जनः ॥२२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The string fixed like destiny on every bow twangs with a clang, the arrows fly and fall like cannibals on humanity, consuming life and karma. And then the whole world shakes with fear. O yajaka on the vedi, keep on the offer of soma homage to Indra, the omniscient who knows it all.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रत्येक प्राणी शरीर नश्वर आहे. त्याचा मृत्यू निश्चित आहे. नाना प्रकारच्या आघातांनी व रोगांनी ते मृत्यूचा ग्रास बनते ते पाहून उपासक अमृतरूप परमात्म्याची उपासना करतो. ॥२२॥

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