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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 27/ मन्त्र 19
    ऋषिः - वसुक्र ऐन्द्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अप॑श्यं॒ ग्रामं॒ वह॑मानमा॒राद॑च॒क्रया॑ स्व॒धया॒ वर्त॑मानम् । सिष॑क्त्य॒र्यः प्र यु॒गा जना॑नां स॒द्यः शि॒श्ना प्र॑मिना॒नो नवी॑यान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑श्यम् । ग्रामम् । वह॑मानम् । आ॒रात् । अ॒च॒क्रया॑ । स्व॒धया॑ । वर्त॑मानम् । सिस॑क्ति । अ॒र्यः । प्र । यु॒गा । जना॑नाम् । स॒द्यः । शि॒श्ना । प्र॒ऽमि॒ना॒नः । नवी॑यान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपश्यं ग्रामं वहमानमारादचक्रया स्वधया वर्तमानम् । सिषक्त्यर्यः प्र युगा जनानां सद्यः शिश्ना प्रमिनानो नवीयान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपश्यम् । ग्रामम् । वहमानम् । आरात् । अचक्रया । स्वधया । वर्तमानम् । सिसक्ति । अर्यः । प्र । युगा । जनानाम् । सद्यः । शिश्ना । प्रऽमिनानः । नवीयान् ॥ १०.२७.१९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 27; मन्त्र » 19
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अचक्रया स्वधया वर्त्तमानम्) चक्ररहित एकदेशी गतिरहित अर्थात् सर्वत्र गतिवाली स्वधारणा व्यापक प्रवृत्ति से वर्त्तमान (ग्रामं वहमानम्-आरात्-अपश्यम्) जड़ जङ्गम समूह को-संसार को वहन करते हुए परमात्मा को दूर से भी या समीप से ही आन्तरिक दृष्टि से जानता हूँ (नवीयान् सद्यः शिश्ना प्रमिनानः) प्रथम से ही पूर्ण शक्तिमान् होता हुआ, उत्पन्न होनेवाले प्राणियों की गुप्त इन्द्रियों को तुरन्त प्राप्त कराता हुआ-प्रकट करता हुआ (जनानां युगा-अर्यः-प्र सिसक्ति) जायमान उत्पन्न होनेवाले प्राणियों के युगलों स्त्री-पुरुषों को भली-भाँति नियुक्त करता है-नियत करता है ॥१९॥

    भावार्थ

    परमात्मा अपनी विभु गति से जड़-जङ्गम-प्राणीसमूहरूप संसार को चलाता है और वह प्रथम से ही उत्पन्न होनेवाले प्राणियों के गुप्त इन्द्रियों को प्रकट करता हुआ स्त्री-पुरुषरूप युगलों को नियत करता है। जिससे कि प्राणी-संसार चले-चलता रहे ॥१९॥

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    विषय

    सद्गृहस्थ का धारक प्रभु

    पदार्थ

    [१] (ग्रामं वहमानम्) = प्राणि समूह को धारण करनेवाले व उन्नतिपथ पर आगे ले चलनेवाले प्रभु को (आरात्) = अपने समीप ही, अपने अन्दर ही (अपश्यम्) = देखता हूँ। वे प्रभु अपनी इस वहन क्रिया में (अचक्रया) = बिना किसी चक्रवाली (स्वधया) = अपनी धारण शक्ति से ही (वर्तमानम्) = प्रवृत्त हैं। प्रभु को किन्हीं सवारियों की आवश्यकता हो, सो बात नहीं है । [२] वह उत्पन्न जगत् का (अर्य:) = स्वामी प्रभु (जनानाम्) = लोगों के (युगा) = युगों को, अर्थात् पति-पत्नी रूप द्वन्द्व को (प्रसिषक्ति) = प्रकर्षेण प्राप्त होता है। जो भी लोग गृहस्थ के भार को पूर्ण कर्त्तव्यभावना के साथ उठाते हैं उन्हें प्रभु का साहाय्य सदा प्राप्त होता है। 'दुःखमित्येव यत्कर्मकायक्लेशभयात्त्यजेत्' इन शब्दों के अनुसार जो व्यक्ति 'कौन इतना बोझ उठायेगा' इस विचार से घबराकर गृहस्थ होने से भागते हैं, वे प्रभु के प्रिय नहीं होते । [३] वे प्रभु (शिश्ना) = भोग प्रधान जीवनवाले अथवा औरों की हिंसा करनेवाले लोगों को (सद्यः) = शीघ्र ही (प्रमिनान:) = हिंसित करते हैं। प्रभु की रक्षा के पात्र वे ही होते हैं जो भोग प्रधान जीवनवाले नहीं तथा जो औरों की हिंसा करनेवाले नहीं। [४] ये प्रभु (नवीयान्) = अतिशयेन स्तुति के योग्य हैं [नु स्तुतौ]। इनका स्तवन हमें जीवन मार्ग का प्रदर्शन कराता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही सारे ब्रह्माण्ड को धारण कर रहे हैं। वे सद्गृहस्थों को प्राप्त होते हैं और विलासी पुरुषों की हिंसा करते हैं। इस प्रभु का स्तवन हमारे सामने एक लक्ष्य-दृष्टि पैदा करता है और हम ब्रह्म जैसा बनने का प्रयत्न करते हैं।

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    विषय

    जगत् का अनादि-सञ्चालक प्रभु, उसका सृष्टि-निर्माण।

    भावार्थ

    मैं (अचक्रया) स्वयं कोई कार्य न करने वाले, जड़ (स्वधया) अपने आप ही जगत् को बनाते और चलाते हुए और (आरात्) बहुत दूर से, अनादिकाल से प्रवाह रूप से (ग्रामं वहमानः) इस भूत-संघ को वहन करते हुए उस प्रभुको (अपश्यम्) देख रहा हूं। वह (नवीयान्) सबसे अधिक स्तुत्य, (अर्यः) सब का स्वामी परमेश्वर (सद्यः) सदा ही (शिश्ना प्रमिनानः) आघातकारी, बाधक दुःखदायी कारणों का नाश करता हुआ (जनानां युगा) अनेक जीवों के जोड़ों को (प्र सिसक्ति) उत्पन्न करता और मिलाता है। इस प्रकार वह प्रभु जीव जगत् को चला रहा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऐन्द्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, ५, ८, १०, १४, २२ त्रिष्टुप्। २, ९, १६, १८ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४, ११, १२, १५, १९–२१, २३ निचृत् त्रिष्टुप्। ६, ७, १३, १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। २४ भुरिक् त्रिष्टुप्। चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अचक्रया स्वधया वर्त्तमानम्) चक्ररहितया खल्वेकदेशिगतिरहितया सर्वत्र गतिमत्या स्वधारणया विभुप्रवृत्त्या वर्त्तमानम् (ग्रामं वहमानम्-आरात्-अपश्यम्) जडजङ्गमग्रामं चराचरसमूहं संसारं वहन्तं परमात्मानमहमाराद् दूराद् यद्वा समीपात् “आराद् दूरसमीपयोः” [अव्ययार्थनिबन्धनम्] पश्यामि अन्तर्दृष्ट्या जानामि (नवीयान् सद्यः शिश्ना प्रमिनानः) प्रथमतः पूर्णशक्तिमान् सन् जायमानानां शिश्नानि गुप्तेन्द्रियाणि सद्यः प्रमिनानः प्रगमयन्-प्रकटयन् “मिनाति गतिकर्मा” [निघं० २।४] (जनानां युगा-अर्यः प्रसिषक्ति) जायमानानां युगानि युग्मानि प्रकर्षेण समवयति संयुक्तानि करोति ॥१९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    From far off by observation of nature and from near by meditation, I have perceived and realised the divine power and presence bearing the multitudinous humanity and other forms of life by its own essential might, moving without wheels, that is, moving and yet not moving, being omnipresent, eternal, yet even new in manifestation, who, sole lord of life, creates the male and female pairs of humans from eternity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा आपल्या विभू गतीने जड-जंगम-प्राणिसमूहरूप जगाला चालवितो व तो प्रथमच उत्पन्न होणाऱ्या प्राण्यांच्या गुप्त इंद्रियांना प्रकट करत स्त्री-पुरुषरूप युगलांना नियत करतो. ज्यामुळे प्राणी संसार चालत आलेला आहे व चालत राहावा. ॥१९॥

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