ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 13
कु॒विद॒ङ्ग प्रति॒ यथा॑ चिद॒स्य न॑: सजा॒त्य॑स्य मरुतो॒ बुबो॑धथ । नाभा॒ यत्र॑ प्रथ॒मं सं॒नसा॑महे॒ तत्र॑ जामि॒त्वमदि॑तिर्दधातु नः ॥
स्वर सहित पद पाठकु॒वित् । अ॒ङ्ग । प्रति॑ । यथा॑ । चि॒त् । अ॒स्य । नः॒ । स॒ऽजा॒त्य॑स्य । म॒रु॒तः॒ । बुबो॑धथ । नाभा॑ । यत्र॑ । प्र॒थ॒मम् । स॒म्ऽनसा॑महे । तत्र॑ । जा॒मि॒ऽत्वम् । अदि॑तिः । द॒धा॒तु॒ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुविदङ्ग प्रति यथा चिदस्य न: सजात्यस्य मरुतो बुबोधथ । नाभा यत्र प्रथमं संनसामहे तत्र जामित्वमदितिर्दधातु नः ॥
स्वर रहित पद पाठकुवित् । अङ्ग । प्रति । यथा । चित् । अस्य । नः । सऽजात्यस्य । मरुतः । बुबोधथ । नाभा । यत्र । प्रथमम् । सम्ऽनसामहे । तत्र । जामिऽत्वम् । अदितिः । दधातु । नः ॥ १०.६४.१३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 13
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अङ्ग मरुत) हे जीवन्मुक्तो ! (अस्य सजात्यस्य नः) इस परमात्मा का हमारे साथ बहुत प्रकार से सम्बन्धभाव हो-मोक्ष में (यथा चित्) जिस साधन से, वह (प्रति बुबोधथ) हमें बतलाओ (यत्र नाभा) जिस बन्धन में या सम्बन्ध के होने पर (प्रथमं संनसामहे) प्रमुख सुख को प्राप्त करें (तत्र-अदितिः) उस मोक्ष में अखण्डित एकरस अविनश्वर परमात्मा (नः-जामित्वं दधातु) हमारे लिए सुखभोग सम्बन्ध को धारण कराये ॥१३॥
भावार्थ
जीवन्मुक्त विद्वानों के पास जाकर वह ज्ञानग्रहण करना चाहिए, जिससे परमात्मा के साथ स्थायी सम्बन्ध बन जावे। वह अपना सम्बन्धी बनाकर मोक्ष का प्रमुख सुख दे सके और सदा विद्वानों का सहयोग मिलता रहे ॥१३॥
विषय
विद्वानों और वीरों से परस्पर बन्धुत्व और ज्ञान-प्रसार की प्रार्थना।
भावार्थ
(अंग मरुतः) हे विद्वान् वीर जनो ! (यथा चित्) जैसे भी हो, आप लोग (कुवित्) बहुत बार (नः सजात्यस्य) हमारे समान जाति-वर्ग, मनुष्य समूह को भी आप लोग (प्रति बुबोधथ) प्रति दिन ज्ञान प्रदान करो, उनकी भी खबर रक्खो, हम लोग (यत्र नाभा) जिस नाभि या मातृवत् एक ही देश में (प्रथमं संनसामहे) सब से प्रथम प्राप्त होते हैं (अदितिः) मातृतुल्य भूमि (तत्र जामित्वं नः दधातु) वहां हमारा परस्पर बंधुत्व पुष्ट करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गयः प्लातः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ५, ९, १०, १३, १५ निचृज्जगती। २, ३, ७, ८, ११ विराड् जगती। ६, १४ जगती। १२ त्रिष्टुप्। १६ निचृत् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सुक्तम्॥
विषय
प्राणसाधना व यज्ञियवृत्ति
पदार्थ
[१] हे (मरुतः) = प्राणो ! आप (अंग) = शीघ्र ही (कुवित्) = खूब ही (यथा) = जैसे-जैसे (चित्) = निश्चय से (नः) = हमारे (अस्य) = इस (सजात्यस्य) = बन्धुत्व का (प्रतिबुबोधथ) = प्रतिदिन बोध करते हो, हमारे बन्धुत्व को अपने साथ समझते हो, तो यह बन्धुत्व ऐसा होता है कि (यत्र) = जिसमें (प्रथमम्) = सबसे पहले तो हम (नाभा) = [ अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः ] यज्ञ में (संनसामहे) = संगत होते हैं। जितनी-जितनी हम प्राणसाधना करते हैं उतनी उतनी हमारी वृत्ति यज्ञ की ओर झुकती है। प्राणों के साथ हमारा सजात्य व बन्धुत्व यही है कि हम प्राणायाम के द्वारा प्राणसाधना में प्रवृत्त होते हैं और प्राणों के बल को बढ़ाते हैं । यह प्रवृद्ध प्राणशक्तिवाला पुरुष यज्ञों में प्रवृत्त होता है । [२] (तत्र) = वहाँ, उन यज्ञों में (अदिति:) = [अ+दिति] स्वास्थ्य का अखण्डन (नः) = हमारे (जामित्वम्) = बन्धुत्व को (दधातु) = धारण करे। हम स्वस्थ बने रहें और यज्ञात्मक कर्मों के करने में समर्थ रहें । वस्तुतः प्राणसाधना से जहाँ हमारी वृत्ति यज्ञिय बनती है, वहाँ हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहता है और हम उन यज्ञों के करने के योग्य बने रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्राणों के साथ अपना बन्धुत्व स्थापित करें, इस बन्धुत्व का परिणाम वह होगा कि हमारी वृत्ति यज्ञिय बनेगी और हम दीर्घायुष्य को प्राप्त करेंगे।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अङ्ग मरुत) हे जीवन्मुक्ताः ! (अस्य सजात्यस्य नः) अस्य परमात्मनोऽस्माकं बहुः समान-सम्बन्धभावः प्रथमार्थे षष्ठी व्यत्ययेन स्यात्-मोक्षे (यथा चित्) येनापि साधनेन (प्रति बुबोधथ) प्रति ज्ञापयथ (यत्र नाभा) यस्मिन् नहने बन्धने सम्बन्धे योगे (प्रथमं संनसामहे) प्रमुखं प्रतमं सुखं प्राप्नुमः “नसतिराप्नोतिकर्मा” [निरु० ७।१७] “नसते गतिकर्मा” [निघ० २।१४] (तत्र-अदितिः) तस्मिनखण्डित एकरसोऽविनश्वरः परमात्मा (नः-जामित्वं दधातु) अस्मभ्यं सुखभोगसम्बन्धं धारयतु ॥१३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Dear Maruts, wise sages, you know and we pray enlighten us of our divine affinity and essential relationship with this Lord Supreme whatever way it is possible. May Aditi, mother Infinity, lead us to find our essential nature and identity and guide us to reach there where we may regain our first and original centre of being.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवनमुक्त विद्वानांजवळ जाऊन हे ज्ञान ग्रहण केले पाहिजे, की ज्यामुळे परमेश्वराशी स्थायी संबंध बनावे. तो आपला संबंधी बनून मोक्षाचे प्रमुख सुख देऊ शकेल. सदैव विद्वानांचा सहयोगही मिळेल. ॥१३॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal