ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 7
प्र वो॑ वा॒युं र॑थ॒युजं॒ पुरं॑धिं॒ स्तोमै॑: कृणुध्वं स॒ख्याय॑ पू॒षण॑म् । ते हि दे॒वस्य॑ सवि॒तुः सवी॑मनि॒ क्रतुं॒ सच॑न्ते स॒चित॒: सचे॑तसः ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । वा॒युम् । र॒थ॒ऽयुज॑म् । पुर॑म्ऽधिम् । स्तोमैः॑ । कृ॒णु॒ध्व॒म् । स॒ख्याय॑ । पू॒षण॑म् । ते । हि । दे॒वस्य॑ । स॒वि॒तुः । सवी॑मनि । क्रतु॑म् । सच॑न्ते । स॒ऽचितः॑ । सऽचे॑तसः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र वो वायुं रथयुजं पुरंधिं स्तोमै: कृणुध्वं सख्याय पूषणम् । ते हि देवस्य सवितुः सवीमनि क्रतुं सचन्ते सचित: सचेतसः ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । वः । वायुम् । रथऽयुजम् । पुरम्ऽधिम् । स्तोमैः । कृणुध्वम् । सख्याय । पूषणम् । ते । हि । देवस्य । सवितुः । सवीमनि । क्रतुम् । सचन्ते । सऽचितः । सऽचेतसः ॥ १०.६४.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 7; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(वः) हे जीवन्मुक्त विद्वानों ! तुम (रथयुजं वायुम्) रमणीय मोक्ष को योजित करने-प्राप्त करानेवाले सर्वत्र विभु गतिमान् (पुरन्धिम्) बहुविध संसार को धारण करने-वाले (पूषणम्) पुष्टिकर्त्ता परमात्मा को (स्तोमैः सख्याय प्रकृणुध्वम्) स्तुतिसमूहों द्वारा मित्रता के लिए सत्कृत करो (ते हि) जो तुम्हारे जैसे विद्वान् होते हैं, वे (सवितुः-देवस्य सवीमनि) उत्पादक परमात्मदेव के उत्पन्न किये संसार में (सचितः-सचेतसः) समानज्ञान सावधान हुए-हुए (क्रतुं सचन्ते) श्रेष्ठकर्म को सेवन करते हैं ॥७॥
भावार्थ
जीवन्मुक्त विद्वान् परमात्मा की मित्रता करने के लिए उसका स्तुतियों द्वारा सत्कार करते हैं, जो कि मोक्ष का प्रदान करनेवाला है। उस ऐसे परमात्मा को अपना इष्टदेव मान कर ही उसकी प्राप्ति के लिए सदाचरण किया करते हैं ॥७॥
विषय
वायुवद् बलवान् पोषकों का वरण, क्योंकि वे प्रभु के शासन में एक चित्त होकर कार्य करते हैं।
भावार्थ
हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (वायुं रथयुजं) रथ में लगने वाले वायु तत्व को और रथ को जोड़ कर वेग से चलने वाले वायुवद् बलवान् पुरुष को, और (पुरन्धिम्) पुर, देह के धारक आत्मावत् नगर के रक्षक को, और (पूषणम्) पोषक, स्वामी को (स्तोमैः) उत्तम स्तुत्य वचनों और पदों से (वः सख्याय कृणुध्वम्) अपने मित्र भाव के लिये चुनो। उनको अपना मित्र बनाओ। (ते हि) क्योंकि वे (देवस्य सवितुः) सर्वप्रकाशक, सर्वदाता, सर्वोत्पादक, सर्वशासक प्रभु स्वामी के (सवीमनि) शासन में (सचितः) ज्ञान से युक्त और (स-चेतसः) एकचित्त होकर (क्रतुं सचन्ते) यज्ञ तुल्य अपना कार्य करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गयः प्लातः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ५, ९, १०, १३, १५ निचृज्जगती। २, ३, ७, ८, ११ विराड् जगती। ६, १४ जगती। १२ त्रिष्टुप्। १६ निचृत् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सुक्तम्॥
विषय
प्रभु की प्रेरणाएँ
पदार्थ
[१] हे जीवो! (वः वायुम्) = तुम्हारे गति देनेवाले, (रथ-युजम्) = शरीर रूप रथ को उत्तम इन्द्रियाश्वों से युक्त करनेवाले (पुरन्धिम्) = पूरक व पालक बुद्धि को देनेवाले (पूषणम्) = सब के पोषक उस प्रभु को (स्तोमैः) = स्तुतियों के द्वारा (सख्याय प्रकृणुध्वम्) = मित्रता के लिये उत्तमता से करो । स्तुति के द्वारा हम प्रभु को अपना मित्र बनायें। वे प्रभु ही हमें शक्ति देकर गतिशील बनाते हैं, सब इन्द्रिय-शक्तियाँ प्रभु से ही प्राप्त होती हैं, प्रभु ही हमें उत्तम बुद्धि देते हैं । [२] (ते) = वे प्रभु को मित्र बनानेवाले (सचितः) = ज्ञानी पुरुष (सचेतसः) = समानचित्तवाले होकर (हि) = निश्चय से (सवितुः देवस्य) = सब के प्रेरक दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रभु के (सवीमनि) = प्रेरण में (क्रतुं सचन्ते) = यज्ञों का सेवन करते हैं। प्रभु को ये मित्र बनाते हैं और उस मित्र की प्रेरणा के अनुसार उत्तम कर्मों को करनेवाले होते हैं। प्रभु ने जिन यज्ञों का उपदेश दिया है, उन यज्ञों में ये तत्पर रहते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ-स्तवन के द्वारा हम प्रभु के मित्र बनते हैं, उस मित्र की प्रेरणा के अनुसार यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं। हमारे यज्ञ ज्ञानपूर्वक होते हैं [सचितः] और अप्रमाद के साथ होते हैं [ सचेतसः] ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(वः) हे जीवन्मुक्ता विद्वांसः ! यूयम् ‘विभक्तिव्यत्ययः’ (रथयुजं वायुम्) रमणीयमोक्षे योजयति-प्रापयति यस्तं सर्वत्र विभुगतिकं (पुरन्धिम्) पुरुं बहुविधं संसारं धारयति यस्तं (पूषणम्) पोषयितारं परमात्मानं (स्तोमैः-सख्याय प्रकृणुध्वम्) स्तुतिसमूहैः सख्याय सखित्वाय सत्कृतं कुरुत (ते हि) युष्मादृशास्ते खलु (सवितुः-देवस्य सवीमनि) उत्पादकस्य परमात्मदेवस्य-उत्पादिते जगति (सचितः-सचेतसः) समानज्ञानाः सावधानाः सन्तः (क्रतुं सचन्ते) श्रेष्ठकर्म सेवन्ते ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O yajakas, by your programmed yajnic sessions of scientific endeavour, study the munificent Vayu and Pusha, realise and harness the motive energy of wind usable in chariot and also the nourishing and invigorating power of nature as friends of life for the service of humanity. Both Vayu and Pusha in this cosmic yajna of Savita, lord creator and sustainer, are efficacious and together take life’s growth and evolution forwards.
मराठी (1)
भावार्थ
जीवनमुक्त विद्वान परमात्म्याची मैत्री करण्यासाठी त्याचा स्तुतीद्वारे सत्कार करतात जो मोक्ष प्रदान करणारा आहे. अशा त्या परमात्म्याला आपला इष्टदेव मानूनच त्याच्या प्राप्तीसाठी सदाचरण केले जाते. ॥७॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal