ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 64/ मन्त्र 15
वि षा होत्रा॒ विश्व॑मश्नोति॒ वार्यं॒ बृह॒स्पति॑र॒रम॑ति॒: पनी॑यसी । ग्रावा॒ यत्र॑ मधु॒षुदु॒च्यते॑ बृ॒हदवी॑वशन्त म॒तिभि॑र्मनी॒षिण॑: ॥
स्वर सहित पद पाठवि । सा । होत्रा॑ । विश्व॑म् । अ॒श्नो॒ति॒ । वार्य॑म् । बृह॒स्पतिः॑ । अ॒रम॑तिः । पनी॑यसी । ग्रावा॑ । यत्र॑ । म॒धु॒ऽसुत् । उ॒च्यते॑ । बृ॒हत् । अवी॑वशन्त । म॒तिऽभिः॑ । म॒नी॒षिणः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि षा होत्रा विश्वमश्नोति वार्यं बृहस्पतिररमति: पनीयसी । ग्रावा यत्र मधुषुदुच्यते बृहदवीवशन्त मतिभिर्मनीषिण: ॥
स्वर रहित पद पाठवि । सा । होत्रा । विश्वम् । अश्नोति । वार्यम् । बृहस्पतिः । अरमतिः । पनीयसी । ग्रावा । यत्र । मधुऽसुत् । उच्यते । बृहत् । अवीवशन्त । मतिऽभिः । मनीषिणः ॥ १०.६४.१५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 64; मन्त्र » 15
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सा होत्रा) वह वेदवाणी (विश्वं वार्यं वि-अश्नोति) समस्त वरणीय वस्तुओं को व्याप्त होती है (बृहस्पतिः-अरमतिः पनीयसी) परमात्मा की जो वेदवाणी वह अप्रतिहत है, प्रशंसनीय है (यत्र) जिस वेदवाणी में (ग्रावा) विद्वान् (मधुसुत्-उच्यते) ज्ञानमधु का निष्पादक कहा जाता है-होता है (मनीषिणः-मतिभिः-बृहत्-अवीवशन्त) जिसे मननशील विचारों के द्वारा बहुत चाहते हैं ॥१५॥
भावार्थ
वेदवाणी समस्त पदार्थों में व्याप्त है अर्थात् उनके गुण और स्वरूपों का वर्णन करती है, वह मनुष्यवाणी के समान प्रतिहत नहीं होती, वह यथार्थ वाणी है। उसमें निष्णात विद्वान् ज्ञानमधु का सेवन करता है और बढ़ता चला जाता है ॥१५॥
विषय
परम वेदवाणी का वर्णन।
भावार्थ
(सा होत्रा) वह सब पदार्थों के नामों और व्यवहारों को बतलाने वाली वा जिस द्वारा समस्त पदार्थ और भाव बतलाये या बुलाये जाते हैं वह परम वाणी (विश्वम् वार्यम् अश्नोति) समस्त वरण करने योग्य इष्ट पदार्थ को व्याप रही है। वही (पनीयसी) उत्तम रीति से ज्ञान का उपदेश करने वाली है, (यत्र) जिसमें कुशल पुरुष (अरमतिः) बहुत बड़ी बुद्धि वाला (बृहस्पतिः) बड़ी वाणी का पालक कहा जाता है और (यत्र) जिसमें निष्ठ (ग्रावा) उपदेष्टा (मधुसुत्) मधुर ज्ञान ऋग्वेदादि का प्रवक्ता (उच्यते) कहा जाता है। (यत्र) और जिसमें, वा जिसके बल पर (मतिभिः) अपनी २ बुद्धियों के द्वारा (मनीषिणः) बुद्धिमान् पुरुष (बृहत् अवीवशन्त) उस महान् प्रभु की कामना करते हैं, उसकी उपासना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गयः प्लातः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ४, ५, ९, १०, १३, १५ निचृज्जगती। २, ३, ७, ८, ११ विराड् जगती। ६, १४ जगती। १२ त्रिष्टुप्। १६ निचृत् त्रिष्टुप्। १७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तदशर्चं सुक्तम्॥
विषय
सा होत्रा [वह वेदवाणी]
पदार्थ
[१] (सा) = वह (होत्रा) = सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु से दी जानेवाली वेदवाणी (विश्वम्) = सब (वार्यम्) = वरणीय, चाहने योग्य, जीवन के लिये उपयोगी ज्ञान को वि अश्नोति विशेषरूप से व्याप्त करती है । यह वाणी सब सत्य विद्याओं का कोश है। यह (बृहस्पतिः) = वृद्धियोंकी रक्षिका है, इस वेदवाणी के द्वारा हमारी सब प्रकार की उन्नति का सम्भव होता है। (अ-रमतिः) इसका अवसान व अन्त नहीं, अनन्त ज्ञान से यह परिपूर्ण है । जितना - जितना इसे हम पढ़ेंगे उतना उतना हमें अपना ज्ञान बढ़ता हुआ प्रतीत होगा तथा कोई ऐसी जीवन की समस्या न होगी जिसका कि इसमें हमें हल न मिले। (पनीयसी) = यह अत्यन्त उत्तम व्यवहार की साधिका तथा स्तुति को प्राप्त करानेवाली है । 'केवल प्रभु-स्तवन का ही इसके द्वारा साधन हो' ऐसी बात नहीं है । प्रभु-स्तवन के साथ यह हमारे इस संसार के व्यवहार को भी सुन्दर बनाती है। इस प्रकार अभ्युदय व निःश्रेयस दोनों का साधन करती हुई यह हमारे जीवन को धर्मयुक्त करती है । [२] यह वेदवाणी वह है (यत्र) = जिसमें वह (बृहद् ग्रावा) = महान् गुरु (उच्यते) = प्रतिपादित होता है जो कि (मधुषुत्) = मधु को ही जन्म देनेवाला है । 'स पूर्वेषामपि गुरुः ' प्रभु गुरुओं के भी गुरु हैं एवं महान् हैं। प्रभु जो भी उपदेश देते हैं, मधुरता से देते हैं। वे दण्ड देते हुए ज्ञान नहीं देते। हृदयस्थ होकर निरन्तर प्रेरणा के रूप में यह ज्ञान दिया जाता है। यह ज्ञान हमें माधुर्य का ही पाठ पढ़ाता है, हमारे जीवन को भी मधुर बनाता है । [३] (मनीषिणः) = बुद्धिमान् लोग (मतिभिः) = मनन के द्वारा (अवीवशन्त) = इस ज्ञान की निरन्तर कामना करते हैं। इस ज्ञान में ही अन्ततः उन्हें प्रभु-दर्शन होता है। इस प्रकृति से बने संसार का जितना - जितना ये बुद्धिमान् पुरुष विचार करते हैं उतना उतना वे प्रभु के समीप पहुँचते जाते हैं, एक-एक पदार्थ में उन्हें प्रभु की महिमा का दर्शन होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- वेदवाणी सब सत्य - विद्याओं का प्रतिपादन करती है, अन्ततः इसका प्रतिपाद्य विषय वे प्रभु होते हैं जिन्हें कि मनीषी लोग मनन के द्वारा प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सा होत्रा) सा वेदवाक् “होत्रा वाङ्नाम” [निघ० १।११] (विश्वं वार्यं वि-अश्नोति) समस्तं वरणीयं वस्तु व्याप्नोति (बृहस्पतिः-अरमतिः-पनीयसी) बृहस्पतेः परमात्मनः ‘व्यत्यये प्रथमा’ या वाक् सा-अरमतिः-अप्रतिहता यस्यासौ सा वेदवाक् प्रशंसनीया (यत्र) यस्यां वेदवाचि (ग्रावा) विद्वान् “विद्वांसो हि ग्रावाः” [श० ३।९।३।२४] (मधुसुत्-उच्यते) ज्ञानमधुनो निष्पादक उच्यते भवति (मनीषिणः-मतिभिः बृहत् अवीवशन्त) यां मननशीला मननैः बहुकामयन्ते ॥१५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That wonderful voice of divinity, the Vedic Word, which comprehends and corresponds to the entire world of cherished forms of existence is inviolable and sublime. Brhaspati, dedicated preserver and promoter of the divine Word adores it. Therein the master speaker and teacher of it is honoured as harbinger of honey sweets of joyous knowledge. Men of reason and faith with best of thought and action love and serve it beyond measure.
मराठी (1)
भावार्थ
वेदवाणी संपूर्ण पदार्थांमध्ये व्याप्त आहे अर्थात त्यांच्या गुण व स्वरूपाचे वर्णन करते. ती मानवी वाणीप्रमाणे नसते, ती यथार्थ वाणी असते. त्यात निष्णात विद्वान ज्ञानमधूचे सेवन करतो व वृद्धी पावतो. ॥१५॥
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