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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 93/ मन्त्र 14
    ऋषिः - तान्वः पार्थ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    प्र तद्दु॒:शीमे॒ पृथ॑वाने वे॒ने प्र रा॒मे वो॑च॒मसु॑रे म॒घव॑त्सु । ये यु॒क्त्वाय॒ पञ्च॑ श॒तास्म॒यु प॒था वि॒श्राव्ये॑षाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । तत् । दुः॒ऽशीमे॑ । पृथ॑वाने । वे॒ने । प्र । रा॒मे । वो॒च॒म् । असु॑रे । म॒घव॑त्ऽसु । ये । यु॒क्त्वाय॑ । पञ्च॑ । श॒ता । अ॒स्म॒ऽयु । प॒था । वि॒ऽश्रावि॑ । ए॒षा॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र तद्दु:शीमे पृथवाने वेने प्र रामे वोचमसुरे मघवत्सु । ये युक्त्वाय पञ्च शतास्मयु पथा विश्राव्येषाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । तत् । दुःऽशीमे । पृथवाने । वेने । प्र । रामे । वोचम् । असुरे । मघवत्ऽसु । ये । युक्त्वाय । पञ्च । शता । अस्मऽयु । पथा । विऽश्रावि । एषाम् ॥ १०.९३.१४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 93; मन्त्र » 14
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (5)

    पदार्थ

    (ये-अस्मयु) जो हमें चाहनेवाले हितैषी विद्वान् (पञ्चशता) पाँच सौ गुणित शक्तिवाली इन्द्रियों को (युक्त्वाय) योजित करके (पथा) ज्ञानमार्ग से-ज्ञानप्रदान क्रम से (विश्रावि) विशेषरूप से सुनाने योग्य परमात्मज्ञान है (एषाम्) इनके अर्थ (तत्) उस सुनाए हुए (दुःशीमे) जहाँ दुःख से सोते हैं, ऐसे (पृथवाने) विस्तृत (वेने) कामनापूर्ण (राये) भोग में रमे हुए जनसमुदाय में (मघवत्सु) धनवान् जनों में (प्रवोचम्) प्रवचन करूँ ॥१४॥

    भावार्थ

    जिन हितैषी विद्वानों द्वारा ज्ञानप्रदान क्रम से हमारे मन आदि को पाँच सौ गुणित शक्तिवाले बना करके परमात्मज्ञान प्रदान करते हैं, उसका विशेषरूप से विषयों में रत हुए दुःख से सोनेवाले जनसमुदाय में तथा धन के लोलुप जनों में उपदेश करना चाहिये ॥१४॥

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    पदार्थ

    (ये-अस्मयु) जो हमें चाहनेवाले हितैषी विद्वान् (पञ्चशता) पाँच सौ गुणित शक्तिवाली इन्द्रियों को (युक्त्वाय) योजित करके (पथा) ज्ञानमार्ग से-ज्ञानप्रदान क्रम से (विश्रावि) विशेषरूप से सुनाने योग्य परमात्मज्ञान है (एषाम्) इनके अर्थ (तत्) उस सुनाए हुए (दुःशीमे) जहाँ दुःख से सोते हैं, ऐसे (पृथवाने) विस्तृत (वेने) कामनापूर्ण (रामे) भोग में रमे हुए जनसमुदाय में (मघवत्सु) धनवान् जनों में (प्रवोचम्) प्रवचन करूँ ॥१४॥

    भावार्थ

    जिन हितैषी विद्वानों द्वारा ज्ञानप्रदान क्रम से हमारे मन आदि को पाँच सौ गुणित शक्तिवाले बना करके परमात्मज्ञान प्रदान करते हैं, उसका विशेषरूप से विषयों में रत हुए दुःख से सोनेवाले जनसमुदाय में तथा धन के लोलुप जनों में उपदेश करना चाहिये ॥१४॥

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    पदार्थ

    (ये-अस्मयु) जो हमें चाहनेवाले हितैषी विद्वान् (पञ्चशता) पाँच सौ गुणित शक्तिवाली इन्द्रियों को (युक्त्वाय) योजित करके (पथा) ज्ञानमार्ग से-ज्ञानप्रदान क्रम से (विश्रावि) विशेषरूप से सुनाने योग्य परमात्मज्ञान है (एषाम्) इनके अर्थ (तत्) उस सुनाए हुए (दुःशीमे) जहाँ दुःख से सोते हैं, ऐसे (पृथवाने) विस्तृत (वेने) कामनापूर्ण (रामे) भोग में रमे हुए जनसमुदाय में (मघवत्सु) धनवान् जनों में (प्रवोचम्) प्रवचन करूँ ॥१४॥

    भावार्थ

    जिन हितैषी विद्वानों द्वारा ज्ञानप्रदान क्रम से हमारे मन आदि को पाँच सौ गुणित शक्तिवाले बना करके परमात्मज्ञान प्रदान करते हैं, उसका विशेषरूप से विषयों में रत हुए दुःख से सोनेवाले जनसमुदाय में तथा धन के लोलुप जनों में उपदेश करना चाहिये ॥१४॥

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    विषय

    'दुःशीम- पृथवान - वने - राम- असुर- मघवान्'

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (तद्) = उस गतमन्त्र के (हिरण्य) = हितरमणीय ज्ञान को (दुःशीमे) = सब बुराइयों को शान्त करनेवाले में, सब वासनाओं को जीतनेवाले में पृथवाने वासनाओं को जीतकर शक्तियों का विस्तार करनेवाले में और इस प्रकार (वेने) = अपने जीवन को कान्त व सुन्दर बनानेवाले में (प्रवोचम्) = कहता हूँ। [२] इस ज्ञान का मैं रामे भक्ति में रमण करनेवाले में अथवा संसार की सब क्रियाओं को एक क्रीड़क की मनोवृत्ति से करनेवाले में [रम् क्रीडायाम्], (असुरे) = प्राणशक्ति में रमण करनेवाले में [असुषु रमते] = प्राणायामादि द्वारा प्राणशक्ति को बढ़ानेवाले में तथा (मघवत्सु) = [मघ- ऐश्वर्य तथा यज्ञ 'मख'] ऐश्वर्यशाली तथा अपने ऐश्वर्य का यज्ञों में विनियोग करनेवालों में (प्र अवोचम्) = प्रवचन करता हूँ। [३] इस ज्ञान को प्राप्त करके इस ज्ञान के अनुसार (ये) = जो (पञ्च) = पाँचों प्राणों, पाँचों कर्मेन्द्रियों, पाँचों ज्ञानेन्द्रियों व अन्तःकरण पंचक को [मन-बुद्धि-चित्त- अहंकार - हृदय] (शता) = सौ के सौ वर्ष तक युक्त्वाय शरीररूप रथ में ठीक प्रकार से जोतकर (पथा) = मार्ग से चलते हुए (अस्मयु) = हमारी प्राप्ति की कामनावाले होते हैं, (एषाम्) = इनका (विश्रावि) = श्रव [=यश] चारों ओर फैलता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'दुःशीम, पृथवान, वने, राम, असुर व मघवान्' बनें जिससे प्रभु के ज्ञान का हमारे लिये प्रवचन हो ।

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    विषय

    धनवानों में हम सदा ईश्वर की चर्चा किया करें।

    भावार्थ

    (ये) जो (अस्मयु) हमें चाहते हुए, (पञ्चशता युक्त्वाय) पांच सौ को योग कर (पथा) मार्ग से गमन करते हैं (एषां विश्रावि) उनका विविध प्रकार का यश सुनाई देता है वा उनका ज्ञान विशेष रूप से श्रवण करने योग्य है, मैं (तत्) उस ज्ञान को (दुःशीमे) पराजित न होने वाले, (पृथवाने) सर्वत्र विस्तृत, (वेने) कान्तियुक्त, (रामे) रमण करने योग्य, (असुरे) बलवान् प्राणप्रद प्रभु के सम्बन्ध में (मघवत्सु) अनेक धन सम्पन्न जनों के बीच (प्र वोचम्) उसका धनवानों में हम सदा ईश्वर की चर्चा किया करें। प्रवचन करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिस्तान्वः पार्थ्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १ विराट् पक्तिः। ४ पादनिचृत् पङ्क्तिः। ५ आर्चीभुरिक् पङ्क्तिः। ६, ७, १०, १४ निचृत् पङ्क्तिः। ८ आस्तारपङ्क्तिः। ९ अक्षरैः पङ्क्तिः। १२ आर्ची पङ्क्तिः। २, १३ आर्चीभुरिगनुष्टुप्। ३ पादनिचृदनुष्टुप्। ११ न्यङ्कुसारिणी बृहती। १५ पादनिचृद् बृहती। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ये-अस्मयु) ये हितैषिणो विद्वांसोऽस्मान् कामयमानाः “सुपां सुलुक्…” [अष्टा० ७।१।३९] इति जसो लुक् (पञ्चशता युक्त्वाय) पञ्चशतानि-इव ‘लुप्तोपमावाचकालङ्कारः’ अश्वान्-इन्द्रियाणि पञ्चशतगुणितशक्तिमन्ति योजयित्वा (पथा) ज्ञानमार्गेण ज्ञानप्रदानक्रमेण (विश्रावि) विशेषेण श्रावणीयं परमात्मज्ञानम् (एषाम्) एतेषां खलु (तत्) तच्छ्रावितं (दुःशीमे) दुःशयनस्थाने यत्र दुःखेन जनाः शेरते तत्र कष्टस्थाने “शीङ् धातोर्मन् प्रत्यय औणादिको बाहुलकात्” (पृथवाने) विस्तीर्यमाणो (वेने) कामयमाने (रामे) भोगेषु जनवर्गे (मघवत्सु) जनेषु (प्रवोचम्) प्रवचनं कुर्याम् ॥१४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    To the restless, celebrated, emotional, sensual, exuberant and powerful, let me speak of that knowledge and wisdom which is heard of these our well wishers of humanity who control and direct five hundred fluctuations of their mind by meditation to peace and divinity. (That is the path of living, knowing and speaking.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे हितेच्छु विद्वान ज्ञान प्रदान क्रमाने मन इत्यादींना पाचशेने गुणून शक्तिवान बनविणारे परमात्मज्ञान प्रदान करतात. त्याचा विशेषरूपाने विषयात रत झालेल्या व दु:खाने निद्रिस्त जनसमुदायात आणि धनलोलुप लोकात उपदेश केला पाहिजे. ॥१४॥

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